Saturday, 27 December 2014

घर नही आये

वो भी किसी माँ के बेटे होंगे ।
उनके आँसू कभी आँचल ने लपेटे होंगे ।
उनकी ऊँगली वालिद ने थामी होगी ।
उनके घर मे भी मौसी और मामी होगी ।
जाने किसने सबक वैहशी ये सिखाया उनको ।
अपनी माटी का नमक याद ना आया उनको ।
खून के छींटे भी उनको नज़र नही आये ।
स्कूल गए थे वो बच्चे घर नही आये ।
दनादन गोलियाँ मासूमो पर बरसाई कैसे ।
चीख उनकी इनके कानो तक ना आई कैसे ।
उनकी आवाज़ मे रहम की गुजारिश ना देखी ।
या उनकी निगाहों मे आँसुओं की बारिश ना देखी ।
या दिल था पत्थर का या हैवान थे वो ।
मुझे यकीन है नही ज़रा भी इंसान थे वो ।
इतनी बेदर्दी से किसी ने कहर नही ढाये ।
स्कूल गए थे वो बच्चे घर नही आये ।

कविराज तरुण

मै

मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।
कितना भी बुला लो मुड़ के ना देख पाउँगा ।
आँसू बहेंगे दर्द भी होगा
सूनी रातो मे मेरा हमदर्द ना होगा
तन्हा रहूँगा अकेला रहूँगा
तुम कितना भी पूछो कुछ ना कहूँगा
याद कितना भी करूँ पर नही मै बताऊंगा ।
मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।
बहुत दिल लगाकर मोहब्बत करी है
नब्ज़ जितनी चली बस इबादत करी है
तेरी खुशियों को खुदा से बढ़कर ही माना
साथ तेरा दिया कुछ भी कह ले ज़माना
बिन कहे बिन सुने यही दोहराऊंगा।
मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।

कविराज तरुण

Friday, 26 December 2014

व्यर्थ है जीवन

कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।
कभी किसी का हो न सका
अनर्थ है जीवन ।
कभी खुद की नादानियों से
कभी छोटी मोटी बेइमानियो से
कभी अपनी हरकतों से हँसाकर
जाने अनजाने तुझको रुलाकर
अपनी नासमझी मे
बर्बाद किया यौवन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।
हम ना सो जाए कहीं
इसलिए पलकों को जगाये रखा
वो ना आ जाए कहीं
इसलिए दामन को बिछाये रखा
इन्तेहा नही थी मेरी चाहत की
वो ना घबराये कही
इसलिए अश्कों को छिपाये रखा
उनकी खुशियों को नज़र ना लगे
यही सोचकर इन नज़रों को झुकाये रखा
पतझड़ स्वीकार है अगर
उन्हें मिले सावन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।

कविराज तरुण

Thursday, 25 December 2014

आयतें इश्क की

तुम बोलती रहो मै सुनता रहूँ ।
प्यार की तह्मते यूँही बुनता रहूँ ।
तुमसे अलग कुछ भी सोचा नही ...
आयतें इश्क की यूँही लिखता रहूँ ।।
चल ज़रा साथ चल
ना इधर ना उधर
ये बता दिल तेरा
मुझको सोचे अगर
तो भला क्या मेरा
प्यार आये नज़र ।
तू हसीं मै नही
और अदा लाज़मी
मंद मुस्कान है
और लबों पर नमी
तू सुबह ओस की
अब्र सी सादगी ।
छू के देखूँ तुझे या मै तकता रहूँ ।
पास आऊ तेरे या भटकता रहूँ ।
शाम की शबनमी वादियां कह रही ...
आयतें इश्क की यूँही लिखता रहूँ ।।

कविराज तरुण

Monday, 15 December 2014

तिरंगा झलक रहा

इस ओर तिरंगा झलक रहा ।
उस ओर तिरंगा झलक रहा ।
सरहद के काँटो से देखा
सब ओर तिरंगा झलक रहा ।
तुम दिल्ली पर आँख गड़ाए हो
यहाँ लाहौर तिरंगा झलक रहा ।
सियाचीन की बर्फ पे चढ़कर देखा
घनघोर तिरंगा झलक रहा ।
तुम साजिश करके हार गये ।
आतिश बाज़ी करके हार गये ।
भारत का बाल नही उखड़ा
हर कोशिश करके हार गये ।
सावधान पड़ोसी मेरे
अब चहुओर तिरंगा झलक रहा ।
रात मे सपने देख लो कितने
पर अब भोर तिरंगा झलक रहा ।
इस्लामाबाद की धरती पर फिरसे
है शोर तिरंगा झलक रहा ।
हवा महल से बाहर सच है
कर गौर तिरंगा झलक रहा ।

कविराज तरुण

Monday, 24 November 2014

मिल गया होता

तारों को चमकने का बहाना मिल गया होता ।
जो बादल को फलक से दूर ठिकाना मिल गया होता ।
मै आवारा 'तरुण' हूँ दुनिया की बेबाक नज़रों मे ...
जो मेरे दर्द ना होते तो अफ़साना मिल गया होता ।
बड़ी बद्सलूखी की मेरे दिल ने तेरे दिल से ...
अज़ब सी दिलकशी की मेरे दिल ने तेरे दिल से ...
समझ लेती अगर दिल को तो दिवाना मिल गया होता ।
ज़िन्दगी खुल के जीने का बनामा मिल गया होता ।
अब तो आँख से आँसू भी कतरा कतरा रोते हैं ।
बची शायद नही बूँदें ये बस पलकें भिगोते हैं ।
इन्हें आँसू भरा कोई खज़ाना मिल गया होता ।
तो मेरे लफ्ज़ को बेहतर तराना मिल गया होता ।
वो बोले दिन तो है ये दिन , वो बोले तो शाम है ये ।
जो सूरज को कहें चन्दा तो बेशक नाम है ये ।
अगर जिद थोड़ी रख लेते तो आशियाना मिल गया होता ।
मेरी इस अब्र को बारिश का नज़राना मिल गया होता ।
ना अब तो नींद आँखों मे , ना है अब चैन एक पल का ।
धड़कन को सुने कोई तो जाने हाल हलचल का ।
बेसुध मन की हालत को फ़साना मिल गया होता ।
जो तुम मिलती तो मुझको ये ज़माना मिल गया होता ।
चलो अब खैर जाने दो ये बिन सिर - पैर की बातें ।
नही आता मुझे करना , किसी भी गैर की बातें ।
जो तुम पहचान लेती अक्स तो फिर बेगाना मिल गया ।
है जो अब भीड़ का हिस्सा वो किस्सा पुराना मिल गया होता ।

कविराज तरुण

Thursday, 20 November 2014

नैन

बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।
स्वप्न द्वार पलकों से खोलते हुए नैन ।
और कुटिल सी मुस्कान
जिसपर अर्क गुलाबी सा निशान
चुरा लेंगे अनगिनत दीवानों का चैन ।
बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।
इसकी आभा की उपमा कुछ भी नही
बंद हो तो नज़ाकत, जो खुले तो शरारत
एक टकी से जो देखे , तो फिर हो कयामत
घूर दे तो नसीहत , झपकी ले तो मोहब्बत
चौक कर जब ये देखे , तो फिर विस्मित अकीदत
कभी ये इबादत कभी ये शराफत
कभी ये हकीकत कभी ये इबारत
इस खुदा की सबसे अनोखी ये देन ।
बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।

--- कविराज तरुण

Wednesday, 5 November 2014

बेवजह

अपनों की भीड़ मे, मुझे भूल जाना बेवजह ।
मै हँसता सा दिखूँ , तुम रुलाना बेवजह ।
बाँध कर रखा है मुझे, मेरे ज़ज्बातो की कसम ।
प्यार गैरों के लिए, मेरी किस्मत मे बस सितम ।
करूँ जो मै शिकायत, तो नसीहत हर कदम ।
तोड़ दे दिल मेरा अब, कर दे एक ज़रा सा रहम ।
प्यार का अब ठिकाना , क्यों बनाना बेवजह ।
अपनों की भीड़ मे, भूल जाना बेवजह ।
था भरोसा इश्क पर, झूठा गुरूर था ।
बस नशे की रात सा, एक शुरूर था ।
उतर जाना थी फिदरत, नही तेरा कसूर था ।
मगर तुझको ही किस्मत, हमने माना जरूर था ।
बची इज्ज़त को महफ़िल मे, क्यों लुटाना बेवजह ।
अपनों की भीड़ मे, मुझे भूल जाना बेवजह ।

--- कविराज तरुण

Sunday, 2 November 2014

जरुरी था

मै टूट जाऊंगा
बर्बाद भी हो जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
मेरा ना तो जीना जरुरी था ।
ना ही मेरा मरना जरुरी था ।
सिर्फ अपने आपसे मेरा अभी...
लड़ना जरुरी था ।
इसी कश्मोकश मे
पानी सा बिखर जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
सिलसिला सवालों का तुझे बदलना जरुरी था ।
मोहब्बत मे एक उमर अपनी गुजरना जरुरी था ।
ख़त्म कर देती भले कहानी बिन कहे तुम ...
पर एक दुसरे से एक दफा अभी मिलना जरुरी था ।
इस कहानी से बैरंग
मै गुजर जाऊँगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
सावन के फुहारों का ज़रा जलना जरुरी था ।
कि हल्की आँच पर अहसास का पिघलना जरुरी था ।
हुई जब बात तो ज़ज्बात की नौबत नही आई...
इसी हालात का अपने अभी बदलना जरुरी था ।
ना बदल पाया तो मै
खुद से मुकर जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।

--- कविराज तरुण

Saturday, 18 October 2014

राजभाषा हिन्दी

राजभाषा हिन्दी

उठो , जागो ... निज भाषा को अपना लो |
हिन्दी बुला रही है ... ऐ हिन्दुस्तानी लाज बचा लो ||
मै पुरखों की अतुल्य धरोहर ...
और संस्कृत की बेटी हूँ |
सिंहासन पर मै पली – बढ़ी ...
पर आज चिता पर लेटी हूँ |
सहज , सरस और सरल सा ...
मेरा ये इतिहास बड़ा |
काश मुझे आकार कर दे तू ...
अपने इन पैरों पर फिरसे खड़ा |
विस्मित माँ की आँखों से ... आँसू की हर बूँद हटा लो |
हिन्दी बुला रही है ... ऐ हिन्दुस्तानी लाज बचा लो ||

--- कविराज तरुण

Wednesday, 24 September 2014

नही आता

हसरतो पर लगाम लगाना नही आता ।
मै खुश हूँ मगर मुस्कुराना नही आता ।।
जो मिला जब मिला और जैसे मिला ...
ना किसी से शिकवा ना कोई गिला ...
अश्क आये तो उन्हें पलको में छिपाना नही आता ।
झूठे सपने इन आँखों मे सजाना नही आता ।
हसरतो पर लगाम लगाना नही आता ।
मै खुश हूँ मगर मुस्कुराना नही आता ।।
लोग कहते हैं इश्क छिपाए नही छिपता ...
सावन के अंधे को कुछ और नही दिखता ...
उतर जाती है हिना भी हथेली पर चढ़कर ...
रंग मोहब्बत का दिल से यार नही रिसता ...
बिक जाते हैं शहंशाह भी मुफलिसी में अक्सर ...
किसी कीमत मे मगर ये प्यार नही बिकता ...
पर फिरभी इस प्यार को आजमाना नही आता ।
जो है वो दिल मे है यूँ सरेआम दिखाना नही आता ।
सच है हमे रूठों को मनाना नही आता ।
ये भी सच है किसी को रुलाना नही आता ।
हो जाए गलती तो बस सुधार लेते हैं ।
बेवजह किसी को समझाना नही आता ।
हसरतो पर लगाम लगाना नही आता ।
मै खुश हूँ मगर मुस्कुराना नही आता ।।
--- कविराज तरुण

Tuesday, 23 September 2014

बँटवारा

पहले बड़े प्यार से हम रोटी बांटा करते थे ।
आज देखो हम अपना ये घर बाँट रहे हैं ।
किसी के हिस्से मे आ जाए ना ज्यादा
इसी उधेड़बुन मे हर एक कोना नाप रहे हैं ।
आज देखो हम अपना ये घर बाँट रहे हैं ।।
ये आँगन जिसमे सीखे सब खेल खिलवाड़ ...
आज इसके बीच खिच गई है दीवार ...
और वो छज्जे जिसपर लटक कर गुलाटी मारते थे ...
अब उसे हथियाने के लिए लाठी मार रहे हैं ।
आज देखो हम अपना ये घर बाँट रहे हैं ।।
चाँदनी रातों का पहरा...
भाइयों का प्यार गहरा...
तारों मे शक्ल बनाना...
एक दुसरे से लड़ना-मनाना...
अब जब समझदार हुए हैं तो छत की ऊँचाई भांप रहे हैं ।
आज देखो हम अपना ये घर बाँट रहे हैं ।।
लुकाछुपी करते थे दीवारों के पीछे...
टॉफ़ी छुपा देते थे बिस्तर के नीचे...
खीर किस प्लेट मे कम है किसमे है ज्यादा ...
हालाँकि छीनने का किसी का नही था इरादा ...
पर सबकुछ भूलकर हम अपनी जड़े काट रहे हैं ।
आज देखो हम अपना ये घर बाँट रहे हैं ।।

--- कविराज तरुण

Saturday, 6 September 2014

फ़लसफ़ा

अंधेरों को चीरता आया हूँ मै
फिर एक फ़लसफ़ा लाया हूँ मै
मुद्दतें गुजर गई जिसको जलाने मे
वो चिराग-ए-रोशिनी तेरे दिल मे सजाया हूँ मै ।
वो रुक रुक के लेती रहती वफ़ा का इम्तेहां
मै बुझ बुझ के देता रहा जलने का निशां
तब कहीं जाकर तुमको मुकद्दर बनाया हूँ मै
अंधेरों को चीरता आया हूँ मै ।
हाँ मगर वक़्त लगा दिल में जगह बनाने मे
कसर ही कहाँ छोड़ी तुमने हमे आजमाने मे
और अब देखो हँसते हुए कैसे निखर आया हूँ मै
अंधेरों को चीरता आया हूँ मै ।

--- कविराज तरुण

Wednesday, 3 September 2014

online

तेरे online होने का इंतज़ार किया करता हूँ ।
watsapp को रोज मै घड़ी घड़ी तकता हूँ ।
न जाने कब आ जाए तेरा प्यार भरा message ...
इसी उम्मीद मे data को off नही करता हूँ ।
जब भी notification की ringtone बजती है ।
मेरे दिल की घंटी⏰ भी trinn trinn करती है ।
जवाब क्या भेजूँ तेरे question का हरदम...
इसी उधेड़बुन मे मेरी battery�� सुलगती है ।
मेरे थोक भरे messages से जब होती हो hyper ।
autostart हो जाता है आँखों का wiper ।
और दिल मे viberation सी alert होने लगी ...
हालत हो जाती है जैसे बच्चा बिन dyper ।
पर smiley तेरी जब kiss वाली आती है ।
मेरी profile pic तब ख़ुशी से इतराती है ।
और status की शब्दावली झट से बदल जाती है ...
sweet भरे message मे यूँही रात�� गुजर जाती है ।।

--- कविराज तरुण

Thursday, 14 August 2014

एक गरीब लड़की

उसकी सूरत ने मुझे कुछ हैरान कर दिया ।
जो 'तरुण' मनमौजी था उसे परेशान कर दिया ।
सियासत करते रहे लोग उस तबके को ऊपर लाने की ...
जिसको बासी रोटी देकर एक रहीस ने अहसान कर दिया ।
वो पूछती रही बताओ ये हिन्दुस्तान कहाँ है ।
मेरे माथे पर तिरंगे का निशान कहाँ है ।
ना इल्म है न वजूद ना वजह न सबूत ...
मैंने जीना नही सीखा... मेरा इंसान कहाँ है ।
मै निशब्द खामोश कुछ व्याकुल कुछ अबोध ...
खोजता रहा इन सवालों को पर फिर भी अफ़सोस ...
बिना कोई जवाब दिए इन कदमो ने प्रस्थान कर दिया ।
उसकी सूरत ने मुझे कुछ हैरान कर दिया ।
जो 'तरुण' मनमौजी था उसे परेशान कर दिया ।।

--- कविराज तरुण

Monday, 21 July 2014

अदला बदली

एक आह निकल जाती है
जब भी दूर चला जाता हूँ ।
शायद पागलपन है मेरा
कह भी नहीं पाता हूँ ।
मुट्ठी बिन खोले निकल रही हैं
रेत सी तेरी यादें ।
अश्कों में डूबी सिसक गई हैं
वो अपनी बीती बातें ।
चल लुक्का छुप्पी करते हैं
मै खोजूँ तू छुप जाए ।
पर जो पल भी ना देखूँ तुमको
मेरा दिल कितना घबराए ।
तू पास नही अब
एहसास नही अब
रब साथ नही अब
विश्वास नही अब
कि बिन तेरे ये कोरा जीवन
किस पत्थर से चमकाएं ।
सुन ! अदला बदली कर ले शायद
मेरा प्यार नज़र कुछ आये ।।

--- कविराज तरुण

Monday, 23 June 2014

सनम

pfa

याद करेंगे


जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।
कुछ सक्श ऐसे भी मिल जायेंगे ...
जो नाम  जी भरकर बर्बाद करेंगे ।
खैर हमें क्या ...
खैर हमें क्या , क्या लेना इनसे ।
शम-ए-मोहब्बत के हम परवाने ...
जल जायेंगे मगर रोशिनी बेहिसाब करेंगे ।
कुछ लोग मेरे वजूद का सुबूत मांगेंगे ,
कुछ लोग सहेजने को मेरा ताबूत मांगेंगे ,
कुछ कह देंगे-गया जो उसे जाना ही था ,
कफ़न तो उसका एकदिन यहाँ आना ही था
उसके आँसू मगर फिरभी ये सवालात करेंगे
बिन तुम्हारे भला कैसे जहां आबाद करेंगे
जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।
दिल से निकली ,पंहुची दिल तक
दिल की बातें ...
फरक नही है , लफ्जों की
क्या थी सौगातें ...
नाम उसके हर ज़र्रा हर अल्फाज़ करेंगे
बंद पलकों में छुपा हर ख्वाब करेंगे ।
जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।

-कविराज तरुण

तबाह

तबाह हो जाने दे सनम आज , कसम आज तुम्हे ।
इस अँधेरे मे हो जाने दे , दफ़न आज मुझे ।
खुद को तुझसे , तुझ को खुद से अलग कैसे करूँ ।
मेरी उम्मीदों का तू दे दे , कफ़न आज मुझे ।
कि गम से गुम हुआ , गुम से गुमनामी की तरफ ।
हँसते गाते जो कटे दिन , वो बदनामी की तरफ ।
जो मुझे मुझसे बेहतर समझते थे , हैं हैरानी की तरफ ।
बिखरे सपने पहुँच पाए नही , किसी कहानी की तरफ ।
अपने हाथो से ही करना था , खुशियों का दमन आज मुझे ।
तुझमे खोया था अबतक , तुझको खोया हूँ अब जब ।
तेरा चेहरा नही आँखों से हटता , सनम आज मुझे ।
तबाह हो जाने दे सनम आज , कसम आज तुम्हे ।
--- कविराज तरुण

शायद बचपन इसी का नाम

शाम सुहाने बचपन की
फिर बात पुराने बचपन की
कागज़ की कस्ती पानी मे
परियों की शादी कहानी मे
कुत्ते के पिल्ले छोटे से
हलवाई चाचा मोटे से
पिंकी बिल्लू नंदन चम्पक
बांकेलाल की हरदम बकबक
साबू और राका की धूम-धड़ाम
नागराज का इन्तेकाम
जंगल की मस्ती मोगिली संग
टॉम को कर दिया जेरी ने तंग
चन्द्रकान्ता श्रीकृष्णा शक्तिमान
शायद बचपन इसी का नाम

--- कविराज तरुण

Friday, 30 May 2014

पापा

ऊँगली पकड़कर चलना सीखा
विपदाओं से लड़ना सीखा
पापा की राहों पर कदम बढ़ाकर
मैंने शिखर पर चढ़ना सीखा
आदर्श मेरे बस आप ही हो
खुशियों का स्रोत सदा बस आप ही हो
आप की छाया सदा रहे बस
फूल सा मैंने खिलना सीखा
नमन आपको पापा मेरे
भगवान से बढ़कर पापा मेरे
भवबाधा से मैंने उबरना सीखा
जीवन में कुछ करना सीखा
उंगली पकड़कर चलना सीखा

--- कविराज तरुण

Friday, 23 May 2014

कुछ कह सकूँ

या तो शहर दो कोई दूसरा
या वजह दो दूसरी कि मै यहाँ रह सकूँ
या तो ख़ुशी दो कोई दूसरी
या हौसला दो मुझे कि ये गम सह सकूँ
आवाज़ नज़रंदाज़ करके देख चुका
एक नया आगाज़ करके देख चुका
तस्वीर से नज़रें फिरा के देख चुका
खुद से तुमको चुरा के देख चुका
अब तो बस उमर दो कोई दूसरी
या इस दिल में असर दो कि कुछ कह सकूँ
या तो शहर दो कोई दूसरा
या वजह दो दूसरी कि मै यहाँ रह सकूँ

--- कविराज तरुण

Monday, 19 May 2014

कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे

न दिल मिला न दिल्ली
'आप' की उड़ गई खिल्ली
अब भाग के कहाँ जाओगे
कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे ।
गंगा में लुटिया डूबी
गायब दिल्ली और यू पी
जमानत अब कैसे दिलवाओगे
कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे ।
पंजाब में खुल गया खाता
बाकी जगहों पर चाटा
मीडिया को क्या बतलाओगे
कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे ।
विश्वास का ड्रामा फ़िल्मी
सांप्रदायिक शाजिया इल्मी
गुल पनाग को फिर लड़वाओगे
कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे ।
पाने दिल्ली का शासन
थामके कांग्रेस का दामन
एकबार फिर तुम पछताओगे
कैसे तुम अपना मुँह छिपाओगे ।
--- कविराज तरुण

Wednesday, 16 April 2014

असहाय बेबस

उसको मिलती नही छत कहीं
सिर छुपाने के लिए ।
और हम आज़ाद हैं उसपर
मुस्कुराने के लिए ।
दो रोज़ रोटी की भी मिन्नत
बिन हाथ के बिन पैर के ...
बासी खाना डालते हम
बड़े गर्व से ...
खाने के लिए ।
अर्द्धनग्न अपने वस्त्र मे
खुद को ढके या शर्म को ...
दो चार सिक्को में कहाँ
मिलती है चादर ...
तन छुपाने के लिए ।
मंदिरों में दूध की गंगा बहाने चल पड़े ।
आज भी मज़ार में चद्दर चढ़ाने चल पड़े ।
रास्ते में दिख रहें हैं इसके जरुरी हक़दार कुछ...
पर पैसो से भगवान् को हम रिझाने चल पड़े ।
असहाय बेबस को मिला कब बोलने का हक कभी ...
बस इसलिए ही आज हम उलटी गंगा बहाने चल पड़े ।
एक उम्र लग जाती है हमको
घर बनाने के लिए ।
जवानी घिस जाती है अक्सर
पैसे जुटाने के लिए ।
दिख जाये फिरभी असहाय कोई
तो कुछ मुस्कुरा के बोल दो...
हो सके तो दो चार सिक्के ही
उसे अनमोल दो ...
मिलते हैं अवसर कहाँ अब
पूण्य कमाने के लिए ।
उसको मिलती नही छत कहीं
सिर छुपाने के लिए ।
और हम आज़ाद हैं उसपर
मुस्कुराने के लिए ।

--- कविराज तरुण

Monday, 14 April 2014

नजरिया

नज़र से देखोगे मेरी , तो नज़र आएगा।
दूर लगता जो तुम्हे , पास चला आएगा ।
नज़र का फेर है , नज़रिए का फरक ।
बात समझोगे तो ,नजरिया बदल जायेगा ।
जब भी किसो से वैचारिक मतबेध होता है तो अपनी ये पंक्तियाँ स्वतः ही स्मृति पटल पर दस्तक दे जाती हैं । आलोचनाओ , विरोधों और आरोपों से भरे इस लोकसभा चुनाव में वाणी की मधुरता और सहजता लुप्त होती नज़र आ रही है । परन्तु इस बात से कदापि संशय नही कि दुर्भावना से ग्रसित तर्क ... कुतर्क की श्रेणी में आता है जिससे सभी को सतर्क रहने की आवश्यकता है । कांग्रेस प्रवक्ता संजय झा द्वारा कही गई बात ( स्रोत ट्विटर) कि 'अटल जी देश के सबसे कमजोर प्रधानमन्त्री हैं ' अपने आप में कुतर्क की बड़ी मिसाल है । जिस व्यक्ति ने परिवार से ऊपर देश को , स्वयं से ऊपर जनता को और धर्म से ऊपर समन्व्यय को रखा उसके प्रति टिपण्णी से पहले पिछले दस साल का प्रशासन को भलीभांति देख लेना चाहिए था । खैर ! संजय झा को अटल जी की एक कविता का लिंक समर्पित कर रहा हूँ जिसमे कारगिल विजय के बाद अटल जी ने पाकिस्तान और अमेरिका को खुले तौर पर आईना दिखाया था । मुझे नही लगता इतना साहस किसी और प्रधानमन्त्री में अबतक रहा है ... कम से कम मेरी आँखों के सामने तो कदापि नही ---

Watch "Shri Atal Bihari Vajpayee awesome speech against Pakistan and America(must watch)" on YouTube - https://www.youtube.com/watch?v=SKbIlcN4jQQ&feature=youtube_gdata_player

- कविराज तरुण

Saturday, 12 April 2014

भारत निर्माण पर विचार

"दिशाविहीन पथभ्रमित व्याकुलित ... अचरज भरी निगाहों से ।
किस रस्ते जाऊं कुछ खबर नही ... क्या हाल हुए हैं युवाओं के । "
मै कविराज तरुण - वाकई में एक आम आदमी , कांग्रेस के 10 साल के कुशासन से तंग ... आज नए भारत के निर्माण के सपने देख रहा हूँ । ज़ाहिर है कि कांग्रेस को हटाना तो हमारी नैतिक ज़िम्मेदारी है । पर प्रश्न ये आता है कि कैसे ? सपा बसपा या अन्य क्षेत्रीय दलों को वोट करके मै कांग्रेस को एक और मौका देने के पक्ष में नही हूँ । अब हमारे पास बचे दो विकल्प - भाजपा और आप ।
जहाँ एक ओर मोदी दस साल के कामो को अपना आधार बनाकर विकास के मुद्दे पर हमसे साथ देने की अपील कर रहे हैं । अपने अनुभव और कार्य को आगे रख रहे हैं वही दूसरी ओर केजरीवाल अपनी दिल्ली की ज़िम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए इस महासमर में त्रिशंकु की स्थिति बनाने का प्रयास कर रहे हैं जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को होगा । बड़ा दुःख होता है ये सुनकर कि जो व्यक्ति विकास को तरजीह देकर चुनाव लड़ रहा है उसे धर्म के नाम पर या फिर वैवाहिक स्थिति के नाम पर घेर जा रहा है । इस मामले में केजरी जी को भी कोई परहेज नहीं चाहे फिर अंसारी का ही समर्थन क्यों न मिले । चार साल के बच्चे को दसवी की परीक्षा में बैठाकर नक़ल या अन्य सहयोग से हम पास करा भी दें तो क्या वो अपना या दूसरों का भविष्य बना पायेगा । यहाँ पर तो इस बालक ने प्रथम कक्षा भी पूरी नहीं की । कांग्रेस को धूल चटाना है तो सिर्फ मोदी का कमल खिलाना है । केजरीवाल को एक सन्देश -अभी आप अधूरे काम को पूरा करने की सोचो । पांच साल बाद फिर अपने काम को लेकर वोट मांगने आना । सही रहा तो बिना मांगे ही मिल जायेगा । जय भारत ।
--- कविराज तरुण

Tuesday, 8 April 2014

Punch line


हर किसी से
मिल जाने को
तैयार नहीं है ।
   ये दिल है
   मेरा दिल
कोई 'आप ' की
सरकार नही है ।।

कमल का फूल

भ्रष्टाचार नहीं क़ुबूल
अबकी बार कमल का फूल
झूठे वादों की बातें भूल
अबकी बार कमल का फूल ||

सच्चाई का नकाब पहन कर
और जनता को बहला फुसलाकर
दुश्मन झोकेंगे आँखों में धूल
अबकी बार कमल का फूल ||

शिक्षा का हक़ , हक़ रहने खाने का
दस साल नही था होश निभाने का
बातें इनकी है बड़ी फ़िज़ूल
अबकी बार कमल का फूल ||

केंद्र की जल्दी में राज्य गया
ख़ासी सुनकर मत करना दया
मुफरल के भीतर चालाकी का शूल
अबकी बार कमल का फूल ||

मुलायम - माया की बात गलत सब
नितीश का था सारा साथ गलत तब
पर इन सबको करदो जड़ से उन्मूल
अबकी बार कमल का फूल ||

--- कविराज तरुण

Wednesday, 26 March 2014

हमें याद करेंगे

जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।
कुछ सक्श ऐसे भी मिल जायेंगे ...
जो नाम हमारा जी भरकर बर्बाद करेंगे ।
खैर हमें क्या ...
खैर हमें क्या , क्या लेना इनसे ।
शम-ए-मोहब्बत के हम परवाने ...
जल जायेंगे मगर रोशिनी बेहिसाब करेंगे ।
कुछ लोग मेरे वजूद का सुबूत मांगेंगे ,
कुछ लोग सहेजने को मेरा ताबूत मांगेंगे ,
कुछ कह देंगे-गया जो उसे जाना ही था ,
कफ़न तो उसका एकदिन यहाँ आना ही था
उसके आँसू मगर फिरभी ये सवालात करेंगे
बिन तुम्हारे भला कैसे जहां आबाद करेंगे
जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।
दिल से निकली ,पंहुची दिल तक
दिल की बातें ...
फरक नही है , लफ्जों की
क्या थी सौगातें ...
नाम उसके हर ज़र्रा हर अल्फाज़ करेंगे
बंद पलकों में छुपा हर ख्वाब करेंगे ।
जो हमें चाहते हैं वो हमेशा याद करेंगे ।

-कविराज तरुण