Saturday 28 April 2018

ग़ज़ल 94 - स्वावलंबन


विषय - स्वावलंबन

1222 1222 1222 1222

कभी बिन बात के हँसना कभी बिन बात के क्रंदन ।
यही कोशिश रहे मेरी महकता ही रहे चन्दन ।।

मै रश्मो को निभाता हूँ किसी माली के फूलों सा ।
नही कोई शिकायत है कि बचपन हो या हो यौवन ।।

जुड़ी जब ईंट से ईंटें तभी दीवार बन पाई ।
यही इक सीख लेकर के सँवरता ही रहा जीवन ।।

न महनत से बड़ा कोई न किस्मत से गिला कोई ।
कमाई खूँ पसीने की सजी बहतर मेरे आँगन ।।

सितारों से फलक अपना सजाने की नही चाहत ।
लिखूं खुद की कहानी यूँ *तरुण* पतझड़ मे ज्यों सावन ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Monday 23 April 2018

प्रिय मिलन

प्रियमिलन

कोटि कोटि देख द्वार
नख शिख है श्रृंगार
दृष्टि में असीम प्यार
प्रिय को पुकारती ।

एकटक ही वो नार
पट खोल बार बार
दूर तक आर पार
पंथ को निहारती ।।

नैन जो हुये हैं चार
ख़ुशी अगम अपार
प्रेमरस की फुहार
आँख से निकालती ।

हृदय के तंतु तार
तनमन के विचार
रक्त की प्रत्येक धार
जैसे करें आरती ।।

कविराज तरुण

Saturday 21 April 2018

ग़ज़ल 93- दुनिया

ग़ज़ल - दुनिया

122 122 122 122
सुबह शाम रंगत बदलती है दुनिया
कलेवर नये रोज गढ़ती है दुनिया

कभी हार तो जीत मिलती यहाँ पर
ये अपने हिसाबो से चलती है दुनिया

कमाया है क्या औ लुटाया है कितना
इसी कश्म-ओ-कश में उलझती है दुनिया

है चित और पट दोनो इसके हवाले
अचानक ही पासा पलटती है दुनिया

दिली बेदिली हो वफ़ा बेवफा हो
ये बिन बादलों के बरसती है दुनिया

लिफ़ाफ़े मे खत इसके कितने तरह के
बुरा वक़्त आते ही पढ़ती है दुनिया

कभी साथ देती कभी छोड़ देती
'तरुण' सब तमाशे ये करती है दुनिया

कविराज तरुण

Saturday 7 April 2018

बैंककर्मी

सवाल तो ये चौंकाता है , जब कोई पूँछ बैठता है कि बैंक में आपकी छुट्टी का टाइम क्या है ?

एक उम्र बीत गई घर पे शाम बिताये हुए
और वो कहते हैं आज मौसम सुहाना है
काम काम और सिर्फ काम में जिंदगी है
हमसे बेहतर तो परिंदों का ठिकाना है
लौट आते है हर शाम वो अपने घोंसलों में
दिन की थकान को बच्चों संग मिटाना है
अब तो लोगों ने इंतज़ार हमारा छोड़ दिया
घूमने जाने का सपना परिवार ने छोड़ दिया
नियम क्या बनायें अपना समय कैसे बतायें
खुद ही मालूम कहाँ कि वापस कब जाना है
एक उम्र बीत गई घर पे शाम बिताये हुए
और वो कहते हैं आज मौसम सुहाना है

कविराज तरुण । 9451348935