Saturday 19 December 2020

गीत - उम्मीदों का तारा देखा

गीत - उम्मीदों का तारा देखा

काली तम की रेखाओं में , मैंने फिर उजियारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

मेघ गगन पर आच्छादित था , और निशा छाई थी मन मे
प्रेम हृदय में संचित करने , भटक रहा था मै उपवन में

तभी दूर पर्वत पर मैंने , जलता हुआ सितारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

राह कठिन थी पलपल माना , छोर-छोर पर निर-आशा थी
टूट रही थी पतझड़ बनके , जो भी मन में अभिलाषा थी

तभी राह का भेद बताते , मैंने एक इशारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

झूठ बराबर छलक रहा था , कुंठाओं के साथ शहर में
अँधियारे की विकट कालिमा , घिरी हुई थी आठ पहर में

सच का दीप लिए तब हाथों , मैंने हाथ तुम्हारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

आँच नही आ सकती सच पर , उम्र झूठ की क्षणभंगुर है
घोर तमस की परिपाटी पर , बीज सत्य का ही अंकुर है

इसी सत्य के लिए सदा ही , झूठ को मैंने हारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

अंधे एक थपेड़े से ही , दूर हुई थी नाँव हमारी
शून्य हुआ था जलथल जीवन , छाई आँखों में अँधियारी

तभी जोहते बाँट हमारी , मैंने पास किनारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

काली तम की रेखाओं में , मैंने फिर उजियारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा , उम्मीदों का तारा देखा

तरुण कुमार सिंह
प्रबंधक
अंचल कार्यालय, लखनऊ
क. सं. - 57228

Thursday 29 October 2020

ग़ज़ल - मुहब्बत

#ग़ज़ल - #मुहब्बत
#कविराजतरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

मुहब्बत में कोई भी पेशकश तो की नही जाती
अगर हो फूल कागज का तो फिर खुशबू नही आती

बना लोगे बहाने तुम मगर ये हो न पायेगा
जहाँ पर दिल नही लगता वहाँ नींदें नही आती

जो अपने इश्क़ को ही मान बैठा है खुदा बिस्मिल
उसे हर चीज मिल जाये मगर कुछ भी नही भाती

ज़रा सा चाँद पर बादल का पहरा और छाने दो
मुसीबत के बिना तो दिल्लगी भी हो नही पाती

'तरुण' हर दीन मजहब से यही तुम बोल कर आना
मुहब्बत से किसी भी धर्म की इज्जत नही जाती

चलो कुछ सोचते हैं

#विषय - #चलोकुछसोचतेहैं
#गीत
#कविराजतरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

चलो कुछ सोचते हैं आज नूतन
बजे जिससे खुशी के साज नूतन

बुरा कुछ भी नही सबका भला हो
महकते फूल से हर घर सजा हो
किसी को चोट ना पहुँचे कभी भी
कि मन को जीत लेने की कला हो
मिठाई सी लगे आवाज नूतन

चलो कुछ सोचते हैं आज नूतन
बजे जिससे खुशी के साज नूतन

करे सम्मान सबकी भावना का
विचारों की नई आराधना का
कदम मिलकर बढ़ाएं साथ ऐसे
कि पूरा हो मनोरथ साधना का
मिले सबको खुशी का ताज नूतन

चलो कुछ सोचते हैं आज नूतन
बजे जिससे खुशी के साज नूतन

सितारों सा सदा तुम जगमगाना
कि चिड़ियों से सदा ही चहचहाना
न डरना तुम ज़रा भी मुश्किलों से
हवाओं में खुशी के गीत गाना
बदलना तुम नही अंदाज नूतन

चलो कुछ सोचते हैं आज नूतन
बजे जिससे खुशी के साज नूतन

Wednesday 16 September 2020

आ चले हम

बादलों की सीढ़ियों से आसमाँ तक आ चले हम
खोजें रस्ते मंजिलों के मुश्किलों से ना डरे हम
हर वो तिनका है प्रभू का सब तो उनके हाथ मे है
कौन क्या कर पायेगा जब वो हमारे साथ मे है

कविराज तरुण

Friday 11 September 2020

राजभाषा हिंदी

राजभाषा हिन्दी

उठो ! जागो ! निज भाषा को अपना लो 
हिन्दी बुला रही है.. ऐ हिन्दुस्तानी ! लाज बचा लो

मै पुरखों की अतुल्य धरोहर,
और संस्कृत की बेटी हूँ ।
सिंहासन पर पली-बढ़ी मै,
आज चिता पर लेटी हूँ ।।

सहज , सरस और सरल सा,
मेरा ये इतिहास बड़ा ।
आकर काश मुझे कर दे तू,
निज पंजों पर फिरसे खड़ा ।

विस्मित माँ की आँखों से.. आँसू की हर बूँद हटा लो
हिन्दी बुला रही है.. ऐ हिन्दुस्तानी ! लाज बचा लो

एक हजार वर्षों से ज्यादा,
मैंने देश की सेवा की है ।
अवधी ब्रज बुंदेली मगही,
सब तो मेरी ही बोली है ।।

आजादी की लड़ी लड़ाई,
संविधान में शामिल हूँ मै ।
देशप्रेम की अलख जगाई,
जनवाणी हूँ काबिल हूँ मै ।।

फिल्मी दुनिया खुद कहती है.. हिंदी से संगीत सजा लो
हिन्दी बुला रही है.. ऐ हिन्दुस्तानी ! लाज बचा लो

तरुण कुमार सिंह
प्रबंधक 
विपणन विभाग - लखनऊ अंचल
क. सं. 57228

Tuesday 25 August 2020

उम्मीदों का तारा देखा

गीत - उम्मीदों का तारा देखा

काली तम की रेखाओं में
मैंने फिर उजियारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

मेघ गगन पर आच्छादित था
और निशा छाई थी मन मे
प्रेम हृदय में संचित करने
भटक रहा था मै उपवन में

तभी दूर पर्वत पर मैंने
जलता हुआ सितारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

झूठ बराबर छलक रहा था
गगरी से उन मक्कारों की
छोटे मन के लोग मिले बस
नगरी से उन हत्यारों की

सच का दीप लिए हाथों में
मैंने हाथ तुम्हारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

आँच नही आ सकती सच पर
उम्र झूठ की क्षणभंगुर है
घोर तमस की परिपाटी पर
बीज सत्य का ही अंकुर है

इसी सत्य के लिए सदा ही
झूठ को मैंने हारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

अंधे एक थपेड़े से ही
दूर हुई थी नाँव हमारी
शून्य हुआ था जलथल जीवन
छाई आँखों में अँधियारी

तभी जोहते बाँट हमारी
मैंने पास किनारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

काली तम की रेखाओं में
मैंने फिर उजियारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा
उम्मीदों का तारा देखा

कविराज तरुण

शेरों शायरी

बस इतना ही उनसे
अब सिलसिला रहा
कुछ गलतफहमी रही
कुछ शिकवा गिला रहा

सुंदरता इक जाने कैसा सच्चा झूठा स्वप्न हुआ
देखूँ जिसके मन के भीतर चोर दिखाई देता है
कलुषित कुंठित अभिमानी बन बैठे हैं जो गद्दी पर
उनकी ओछी बातों में इक शोर सुनाई देता है

Sunday 23 August 2020

पुकारों यारों

बहुत शोर है यहाँ जोर से पुकारो यारों
ठहरे पानी में एक कंकड़ तो मारो यारों
कौन कहता है हमसे ये होगा नही
कोई रस्ता नया खोज के निकालो यारों

Saturday 8 August 2020

राम

राम

राम ही शब्द हैं राम ही अर्थ हैं
राम आराध्य हैं राम उत्कर्ष हैं

राम एक सोच हैं राम विश्वास हैं
राम से ही धरा राम आकाश हैं

राम कण कण में हैं राम क्षण क्षण में हैं
राम जड़ जड़ में हैं राम तृण तृण में हैं

राम संजीवनी राम तारण भी हैं
राम ही सब दुखों का निवारण भी हैं

राम जीवनकला राम संघर्ष हैं
राम प्रारब्ध हैं राम निष्कर्ष हैं

राम ही शब्द हैं राम ही अर्थ हैं
राम आराध्य हैं राम उत्कर्ष हैं

राम से है जुड़ी देश की भावना
राम के नाम से सारी संभावना

राम ही प्राण हैं राम सर्वत्र हैं
भूमि जल ये गगन राम के क्षत्र हैं

राम ही श्लोक हैं राम ही मंत्र हैं
राम सद्भाव का मूल ही तंत्र हैं

राम से प्रीत है राम संगीत हैं
राम ही सत्य हैं राम ही जीत हैं

राम हर व्यक्ति में व्याप्त सामर्थ्य हैं
राम हैं चिर सखा राम आकर्ष हैं

राम ही शब्द हैं राम ही अर्थ हैं
राम आराध्य हैं राम उत्कर्ष हैं

कविराज तरुण

Friday 24 July 2020

ग़ज़ल - प्यार कीजिये उसे

#साहित्यसंगमसंस्थान
#ग़ज़ल - प्यार

212121212121212

प्यार से मिले कोई तो प्यार कीजिये उसे
एकबार प्यार से पुकार लीजिये उसे

जाने कैसी उलझनों मे जी रहा है वो अभी
गौर से कभी कभी निहार लीजिये उसे

तेरा क्या है मेरा क्या है कौन लेके जायेगा
अपने हक की चीज भी उधार दीजिये उसे

बार बार कोसने से होगा तेरा क्या भला
नेकभाव से कभी विचार लीजिये उसे

प्यार से बड़ी कोई भी मापनी बनी नही
आप प्यार मे 'तरुण' उतार लीजिये उसे

कविराज तरुण

Tuesday 21 July 2020

आत्मनिर्भर भारत

आत्मनिर्भर भारत

ये एक दौर है तुम इसे बीत जाने दो
बुरा वक्त तो आता है और निकल जाता है
जिसने दूसरों को हँसने के मौके दिए
एक न एक दिन वो जरूर मुस्कुराता है

तुम्हे किस बात की फिक्र है
तुम्हे किस चीज़ पर ऐतराज है
ऐसा कौन है जो कभी हारा नही
ऐसा कौन जो हुआ बे-सहारा नही

पर खुद को तो संभालना पड़ता है
अपने आप को निखारना पड़ता है
मुसीबतों से घबराकर आखिर क्या होगा
इन्हीं हाथों से मुकद्दर सँवारना पड़ता है

पाँचो उँगलियाँ बराबर नही होतीं
हर मौसम एक जैसे नही होते
सही मौके की तलाश में चलते रहो तो
मंजिल की ओर बढ़ता रास्ता नजर आता है

ये एक दौर है तुम इसे बीत जाने दो
बुरा वक्त तो आता है और निकल जाता है
जिसने दूसरों को हँसने के मौके दिए
एक न एक दिन वो जरूर मुस्कुराता है

डर तो लगता है इसमे कोई नई बात नही
सूरज कल दस्तक देगा हमेशा ये रात नही
बस एक उम्मीद का दिया जलाना जरूरी है
जो हो गया सो हो गया उसे भुलाना जरूरी है

अपनी ताकत पहचानो और जमकर प्रयास करो
काबिल नही हो अगर तो भी अभ्यास करो
ऐसा कुछ भी नही जो तुम कर नही पाओगे
इन्ही कदमों से एकदिन फलक छू के आओगे

बस 'आत्मनिर्भर' होने का अहसास जरूरी है
अपने हौसलों पर ज़रा सा विश्वास जरूरी है
फिर देखना तस्वीर बदल जायेगी देश की जहान की
तुम्हारे हाथों मे छुपी है तकदीर हिंदुस्तान की

ये एक दौर है तुम इसे बीत जाने दो
बुरा वक्त तो आता है और निकल जाता है
जिसने दूसरों को हँसने के मौके दिए
एक न एक दिन वो जरूर मुस्कुराता है

तरुण कुमार सिंह
(कविराज तरुण)
7007789629
प्रबंधक - यूको बैंक

Friday 17 July 2020

ग़ज़ल - मिला कीजिये

#साहित्यसंगमसंस्थान

जब भी मौका मिले तो मिला कीजिये
दर्द-ए-दिल की यही इक दवा कीजिये

प्यार में और कुछ तो जरूरी नही
पर जरूरी है इसमें वफ़ा कीजिये

दिलनशीं फूल सा तेरा ये रूप है
मेरी आँखों मे आके रहा कीजिये

चाँद का हो रहा चाँदनी से मिलन
आप भी हो सके तो मिला कीजिये

इश्क़ में जो हुआ वो तो बढ़िया हुआ
इस 'तरुण' के लिए सब दुआ कीजिये

कविराज तरुण

ग़ज़ल - फैसला कीजिये

#ग़ज़ल
#साहित्यसंगमसंस्थान

212 212 212 212

हर बुरी चीज से फासला कीजिये
मशविरा सिर्फ ये मत बुरा कीजिये

चाहिए उस खुदा की जो रहमत तुम्हे
उसके बंदों का खुलकर भला कीजिये

वक़्त के साथ चलने से होगा ही क्या
वक़्त के बाद का हौसला कीजिये

कोशिशों के बिना कुछ भी मिलता नही
कुछ अलग कीजिये कुछ नया कीजिये

एकदिन तो सभी को है जाना 'तरुण'
राह का आप ही फैसला कीजिये

कविराज तरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

Thursday 16 July 2020

गीत - सावन

#विषय - सावन

जाने कब ये सावन आया , जाने कब बरसात हुई
सुंदर सपनों की कोशिश में , मेरी बीती रात हुई

जो भी मैंने सोचा था वो , नही अभी तक पूर्ण हुआ
मेरे सपनों का शीशा ये , रगड़-रगड़ कर चूर्ण हुआ

मन को बहलाने वाली भी , नही अभी तक बात हुई
जाने कब ये सावन आया , जाने कब बरसात हुई

प्रेमपथिक की मुश्किल इतनी , कलयुग के इस बंधन में
प्रेमसुधा का आशय सीमित , नश्वर वाले इस तन में

मन के भीतर के भावों को , नही कोई भी जाने अब
केवल झूठी दुनिया को ही , हर कोई पहचाने अब

पृष्ठों पर पीड़ा अंकन की , देखो अब शुरुआत हुई
जाने कब ये सावन आया , जाने कब बरसात हुई

कविराज तरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

Friday 10 July 2020

ग़ज़ल - वार कर

#साहित्यसंगमसंस्थान
#दैनिककार्यक्रम : १०.०७.२०२०

एक शेर मिसरा के वास्ते-

मंजिलों की शर्त है बस मुश्किलों को पार कर
और मेरी जिद हदों के पार सीमा यार कर

#ग़ज़ल 

काफ़िया- आर
रदीफ़- कर
वज्न- 2122 2122 2122 212

दानवों का अंत करके देश का उद्धार कर
हर बुराई का बराबर भाव से संहार कर

जो किसी की जिंदगी का मोल करता है नही
धर्म कहता है कि खुलकर तू उसी पर वार कर

रौब अपना झाड़कर बे-खौफ घूमें सिरफिरें
तो जरूरी है तेरा तू अपनी सीमा पार कर

कामयाबी के नशे में जुल्म जब बेहद बढ़े
तब यकीनन पार्थ उसकी जोर से फटकार कर

न्याय की तहरीर में सबकुछ नही मिलता 'तरुण'
तू कभी तो न्याय की खातिर कोई यलगार कर

कविराज तरुण
साहित्य संगम संस्थान

Monday 6 July 2020

गीतिका - सम्मान ज्ञान का

दिनाँक : ०७.०७.२०२०
दिवस : मंगलवार
#विषय : #सम्मान_ज्ञान_का
#साहित्यसंगमसंस्थान
#विधा : #छंदगीतिका
(14,12 पर यति, दो-दो चरण संतुकात, अंत मे लघु-गुरु)

हमसब करें सुंदर पहल
ज्ञान के सम्मान की
लेखनी हो सारगर्भित
वर्तनी में चासनी

कर्म का हो बोध अगणित
तर्कसंगत बात हो
धर्म का दीपक लिए ही
जगमगाती रात हो

कल्पना के पार जाओ
विश्व के निर्माण में
देवता के दिव्य दर्शन
हों सभी के प्राण में

सोच सुरभित पुष्प सी हो
भाव मधुकर सा बने
सत्य का स्वरूप निर्मित
हो सभी के सामने

प्रेम संचित हो हृदय मे
सद्गुणों का वास हो
सम्मान हो साहित्य का
हर सृजन में आस हो

साहित्य की इस राह पर
साथ में आओ चलें
बात मन की पूर्ण मन से
हम सभी आओ करें

कविराज तरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

Thursday 2 July 2020

ग़ज़ल - इश्क़वालों का किरदार

ग़ज़ल
2122 2122 212
काफ़िया - आर
रदीफ़- है

इश्क़वालों का गज़ब किरदार है
एक है पर दूसरे से प्यार है

चायवाली टोपरी पर बैठकर
फिर मसौदा इक नया तैयार है

गफलतों में हैं छुपी चिंगारियाँ
हर युवा क्यों इश्क़ में बीमार है

जिसको बनना था बड़ा इंसान वो
अपनी छोटी सोच से लाचार है

कर्ज में डूबी हैं घर की हसरतें
कर्ज में डूबा सकल व्यापार है

बाप ने भेजा था पढ़ने गाँव से
और बेटा रच रहा श्रृंगार है

रोकना मुमकिन नही चुप हो 'तरुण'
आशिकी तो कुदरती अधिकार है

कविराज तरुण

Monday 22 June 2020

शायरी - बारिश

आज फिर बारिश में सवाल धुल गए
जो चल रहे थे मन में ख़याल धुल गए

देख करके तुमको जो आता था गाल पर
तुम दूर हो गए तो वो गुलाल धुल गए

कविराज तरुण

Sunday 21 June 2020

शायरी - बदल गया

जिसने कभी गुलाब से सज़दा किया मेरा
वो शख्स दूसरे के साँचे में ढल गया

फिर वक़्त हो या मौसम या हों सफर की बातें
बदला जो एक तू तो सबकुछ बदल गया

कविराज तरुण

ग़ज़ल - दूर नहीं

2122 1212 22/112

काफिया - ऊर 
रदीफ़ - नहीं

शाम इतनी भी दूर दूर नहीं
गम की बातें गमों से चूर नहीं

बस ज़रा दिल मेरा है बेगाना
इसमे तेरा कोई कसूर नहीं

इश्क़ हमको समझ न आया तो
हमने माना हमें शऊर नहीं

बोल दूँ हाल दिल का आज तुझे
इतनी हिम्मत अभी हुजूर नहीं

ये तो किस्मत का खेल सारा है
अपनी किस्मत मे कोई नूर नहीं

कविराज तरुण
#साहित्यसंगमसंस्थान

Friday 19 June 2020

मुक्तक - शूरवीर

प्रेमपथिक प्रिय पावन के पदकंजन मे रह जाता है
सौंदर्य का मुक्तिबोध कृत्रिम अभिव्यंजन में रह जाता है

शूरवीर को शोभित है संग्राम शत्रु की शैय्या पर
धिक्कार उसे जो घर बैठे आलिंगन में रह जाता है

कविराज तरुण

Thursday 18 June 2020

निस्तारण

उत्थान पतन के बीच कदाचित अभ्यारण करना पड़ता है
अपनी युद्ध कुशलता का विस्तारण करना पड़ता है

बातों से जो कार्य बने वो निश्चय ही हितकारी है
पर अवसर आने पर रण में निस्तारण करना पड़ता है

कविराज तरुण

ग़ज़ल - मीत

विषय - मीत
विधा - ग़ज़ल

#मीतग़ज़ल #साहित्यसंगमसंस्थान

2122 2122 2122

देखकर तुमको बजे संगीत यारा
तुम बने हो मन मुताबिक मीत यारा

शाम की अंगड़ाइयों से पूछ लेना
हर अदा में आ गई है प्रीत यारा

हारकर दिल खुश हुआ है आज इतना
जैसे हासिल हो गई हो जीत यारा

प्यार का अहसास कितना दिलनशीं है
चल पड़ी शहनाइयों की रीत यारा

लफ्ज़ उसके नाम रुकने लगे हैं
और धड़कन गा रही है गीत यारा

कविराज तरुण
साहित्य संगम संस्थान

Wednesday 17 June 2020

देश मेरे

गलवान भिड़ंत में शहीद हुए जवानों को विनम्र श्रद्धांजलि 

(देश मेरे)

देश तेरा ये कर्ज भला मै कैसे आज चुकाऊँगा
मिट्टी से तेरी बना हुआ मै मिट्टी मे मिल जाऊँगा

और नही कुछ ख़्वाहिश दिल मे बस तेरा ही नाम रहे
सुबह तेरी मिट्टी मे हो मिट्टी मे ही शाम रहे
और नही कुछ माँगूँ रब से बस तेरी रखवाली हो
आँच ज़रा भी आये तो फिर अपना वार न खाली हो

जान का अपने दाँव लगाकर अपना फर्ज निभाऊँगा
मिट्टी से तेरी बना हुआ मै मिट्टी मे मिल जाऊँगा

लहू का कतरा-कतरा तेरा साँसों पर अधिकार तेरा
रगो-रगो मे शामिल मेरे देश सदा ही प्यार तेरा
शान रहे ऐ देश तेरी फिर चाहे जंग जमीनी हो
फर्क हमे क्या पड़ता है वो पाकी हो या चीनी हो

तुझको आँख दिखाये जो मै उसे नोच खा जाऊँगा
मिट्टी से तेरी बना हुआ मै मिट्टी मे मिल जाऊँगा

जीवन का हर अक्षर मैंने देश तुझी पर वार दिया
साथ दिया जबतक साँसों ने दुश्मन का संहार किया
लगी गोलियाँ तन पर मेरे कोना-कोना छलनी है
देश मेरे तेरी सेवा मुझको वापस फिरसे करनी है

मौत भला क्या कर लेगी मै वापस फिरसे आऊँगा
मिट्टी से तेरी बना हुआ मै मिट्टी मे मिल जाऊँगा
देश तेरा ये कर्ज भला मै कैसे आज चुकाऊँगा
मिट्टी से तेरी बना हुआ मै मिट्टी मे मिल जाऊँगा

कविराज तरुण

Monday 15 June 2020

मन : लघु लेख

साहित्य और समाज का संबंध:

स्थाई व अस्थाई मानवीय भावनाओं का रेखांकन ही साहित्य है और मानव से ही समाज निर्मित है ।  मानव ही साहित्य और समाज के बीच की कड़ी है । किसी भी समाज का अध्ययन वहाँ के साहित्य को पढ़कर आसानी से किया जा सकता है । साहित्य में न सिर्फ समाज को प्रदर्शित करने की कला होती है अपितु सामाजिक मूल्यों के निर्माण, उसके परिष्करण और विकास मे भी अहम भूमिका रहती है । 

सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन , जनमानस के नवजागरण , नैतिक जनाधिकारों के बचाव में भी साहित्य ने सदैव योगदान दिया । साहित्य ही समाज का निर्माता होता है और समाज ही साहित्य को समृद्ध बनाता है । साहित्य केवल खुशियों और आनन्द का बखान ही नही करता अपितु विरह, वेदना और अभाव को चित्रित भी करता है । इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज बंधन और घुटन मे फँसा, साहित्य ने ही उसे मुक्त किया । कई ऐसी क्रांतियाँ रही हैं जिसमे साहित्य ने स्वयं एक क्रांतिकारी की भूमिका निभाई ताकि एक भयमुक्त, समर्थ और समृद्ध समाज की स्थापना हो सके । यह पंक्ति कहने में कोई गुरेज नही-
साहित्य समाज का दर्पण है, निर्माता है , आलोचक है
साहित्यिक उत्कर्ष सदा ही, सभ्य समाज का द्योतक है

कविराज तरुण

साहित्य और समाज : लघु लेख

साहित्य और समाज का संबंध:

स्थाई व अस्थाई मानवीय भावनाओं का रेखांकन ही साहित्य है और मानव से ही समाज निर्मित है ।  मानव ही साहित्य और समाज के बीच की कड़ी है । किसी भी समाज का अध्ययन वहाँ के साहित्य को पढ़कर आसानी से किया जा सकता है । साहित्य में न सिर्फ समाज को प्रदर्शित करने की कला होती है अपितु सामाजिक मूल्यों के निर्माण, उसके परिष्करण और विकास मे भी अहम भूमिका रहती है । 

सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन , जनमानस के नवजागरण , नैतिक जनाधिकारों के बचाव में भी साहित्य ने सदैव योगदान दिया । साहित्य ही समाज का निर्माता होता है और समाज ही साहित्य को समृद्ध बनाता है । साहित्य केवल खुशियों और आनन्द का बखान ही नही करता अपितु विरह, वेदना और अभाव को चित्रित भी करता है । इतिहास साक्षी है कि जब-जब समाज बंधन और घुटन मे फँसा, साहित्य ने ही उसे मुक्त किया । कई ऐसी क्रांतियाँ रही हैं जिसमे साहित्य ने स्वयं एक क्रांतिकारी की भूमिका निभाई ताकि एक भयमुक्त, समर्थ और समृद्ध समाज की स्थापना हो सके । यह पंक्ति कहने में कोई गुरेज नही-
साहित्य समाज का दर्पण है, निर्माता है , आलोचक है
साहित्यिक उत्कर्ष सदा ही, सभ्य समाज का द्योतक है

कविराज तरुण

Thursday 11 June 2020

प्यार के किस्से

कभी फुर्सतों में सुनना मेरे प्यार के किस्से
दिल-ए-करार के किस्से , दिल-ए-बहार के किस्से
वो चाँद मुझसे रूबरू था ये बात जमाने को खलती थी
बुरी नज़र अक्सर आकर मेरी खुशियों पर पड़ती थी
अब वो चाँद मुझमे खफा है आँखों से ओझल हो गया है
इन बादलों की साजिश के चलते देखो कहीं खो गया है
अब कैसे तुम्हे सुनाऊँ वो दीदार के किस्से
दिल-ए-करार के किस्से , दिल-ए-बहार के किस्से

कविराज तरुण

Wednesday 10 June 2020

ग़ज़ल - दिन बहार के

212 1212 1212 1212

क्यों खफा खफा हुए ये दिन बहार के तरुण
देखता नही हमे गुलाब प्यार से तरुण

फूल फूल खिल रहे हैं आस-पास मे तेरे
एक हम ही रह गए हैं दरकिनार से तरुण

बेवफा ने कह दिया है जाने ऐसा क्या मुझे
आँख से निकल पड़ा है आबशार ये तरुण

फिरसे आज रात हमसे चाँदनी खफा हुई
चाँद को नजर लगी है जार-जार से तरुण

मुश्किलों से ही सफर मे हमसफर मिला करे
मिल गया तो थाम लो नजर उतार के तरुण


कविराज तरुण

Saturday 23 May 2020

विषय - देख असीमित लक्ष्य बड़ा

विषय - देख असीमित लक्ष्य बड़ा

निज खोल नयन तू कलरव कर ले
क्यों भूतल पर निष्प्राण पड़ा
अभी बहुत जीना है तुझको
देख असीमित लक्ष्य बड़ा

कुंठाओं से पार क्षितिज पर
पंख खोल के उड़ना है ?
या इन कीट-पतंगों जैसे
तुझे दीप मे जलना है ?

चयन तुम्हारा नियति तुम्हारी
गति हृदय-स्थल की बोल रही
संकल्पित अनुशासित मन को
ज्वार सिंधु की तोल रही

तू सिंधु ज्वार को आरव कर दे
देख राह मे आज अड़ा
अभी बहुत जीना है तुझको
देख असीमित लक्ष्य बड़ा

दिग-दिगंत के बीच कहो क्यों
साहस का ये काल बुरा
बस इतनी कठिनाई से ही
उच्छ्वासों का हाल बुरा

अभी बहुत है जीवन बाकी
दुर्दिन बदलेगा निश्चय से
नया सवेरा आएगा जब
पंख खोल के उड़ना फिरसे

तू नभ छूने की कोशिश कर ले
क्या सोचे यूँही खड़ा खड़ा
अभी बहुत जीना है तुझको
देख असीमित लक्ष्य बड़ा

कविराज तरुण

Tuesday 19 May 2020

एक सवेरा ऐसा भी हो

ॐ सुप्रभात

एक सवेरा ऐसा भी हो ,
प्रेम जहाँ पर संचित हो
एक सवेरा ऐसा भी हो ,
छाप प्रेम की अंकित हो

अतिदूर तमस का घेरा हो ,
ऐसा एक सवेरा हो
जो मेरा हो वो सब तेरा ,
जो तेरा सब मेरा हो

स्वार्थ कपट की बातों के बिन ,
मुक्त दिखे हर छोर दिशा
मन के भीतर गहराई में ,
लुप्त दिखे घनघोर निशा

जहाँ नेक व्यवहार लिये सब ,
इक-दूजे के साथ रहें
जो सबके मन को हर्षित हो ,
बस वैसी ही बात कहें

ना अंतस हो भारी भारी ,
ना आँखें हों जलधारी
दीप जले केवल आँखों मे ,
स्नेहभाव के हितकारी

नफरत की कोई पौध नही ,
घर मे बोई जाती हो
माधुर्य लिए वाणी वाणी ,
मधुरस मे घुल जाती हो

धन का कोई मोल नही हो ,
मन का कोना कोना हो
मन हीरा हो मन मोती हो ,
मन चाँदी मन सोना हो

शक्ति स्वरूपा माँ लक्ष्मी का ,
हम सबको उपहार मिले
एक सवेरा ऐसा भी हो ,
जहाँ प्यार ही प्यार मिले

कविराज तरुण

Tuesday 12 May 2020

नजर

खुद से नजर कभी मिला लिया करो
ये आईना कभी उठा लिया करो

मिल जायेंगे तुम्हे अपने फरेब भी
चश्म-ए-दीद दिल को बना लिया करो

कविराज तरुण

ग़ज़ल - आज फिर से

आँखों मे गुमशुदा हैं , जज़्बात आज फिर से
काटे से न कटेगी , ये रात आज फिर से

कैसे मै भूल जाऊँ , नज़दीकियों को तेरी
होने लगी है बाहर , बरसात आज फिर से

पहले पहल मिले थे , तो लफ्ज़ ही सिले थे
अब याद आ रही है , वो बात आज फिर से

वो धुन अभी है ताजा , तुमने जो छेड़ दी थी
आकर मुझे सुना दो , नगमात आज फिर से

चंदा है चाँदनी है , क्या खूब रौशिनी है
कितना संवर रहे हैं , हालात आज फिर से

हर शायरी में तुमको , लिखने लगा 'तरुण' है
हर लफ्ज़ बन रहे हैं , सौगात आज फिर से

कविराज तरुण

Monday 27 April 2020

ग़ज़ल - कभी आओ तुम

मेरे गुमगश्ता ठिकानों पे कभी आओ तुम
अहले-उल्फ़त के तरानों पे कभी आओ तुम

ख्वाहिशे-दिल जो कहे वो भी कभी करने दो
यार बादल की उड़ानों पे कभी आओ तुम

ये जो सिलवट है शगुफ्ता से मेरे चहरे पर
इनके गुजरे उन ज़मानों पे कभी आओ तुम

फिर गमो की रात मेरी मयकशी में गुजरी
मेरे ख्वाबों के मचानों पे कभी आओ तुम

भीड़ लगती है अमीरों की दुकानों पे 'तरुण'
इन गरीबों की दुकानों पे कभी आओ तुम

कविराज तरुण

(गुमगश्ता- खोया हुआ , अहल-ए-उल्फ़त- प्यारा इंसान , शगुफ्ता- खिला हुआ, )

Sunday 26 April 2020

ग़ज़ल - गंगा

ग़ज़ल - गंगा

सभी के पाप धोने की करे कोशिश यही गंगा
इसी कोशिश मे पहले से कहीं मैली हुई गंगा

थे भागीरथ उठा लाये उन्हें शिव की जटाओं से
इसी अफसोस मे शायद रहे अबतक दुखी गंगा

ये अपने ज़ख्म जो तुम धो रहे हो रात में आकर
रहेगी कबतलक पावन सितारों से धुली गंगा

ये मानुष तो समझता है कि इनको दर्द क्यों होगा
सहेगी चोट ये हँसकर बड़ी ही है भली गंगा

'तरुण' की बात सुन लो गौर से सुनने सभी वालों
है देवी माँ इसे पूजो है आफत मे मेरी गंगा

कविराज तरुण

न्याय दो

सोचा था नही लिखूँगा या लिख नही मै पाऊँगा
पर बात इतनी खास थी कि चुप नही रह पाऊँगा

दो संत आखिर मर गए तो कौन सा भूचाल है
कीमती जानें यहाँ कब ? हरतरफ कंकाल है
खुद को ज्ञानी मै समझकर दूर सारी झंझटों से
सोचता बस ये रहा जो हाल है वो हाल है

पर मेरे अंतस का कोना खोजता मुझको रहा
हर घड़ी आवाज देकर कोसता मुझको रहा
सुनकर उसे मै अनसुना करता रहा था आजतक
पर वो सपनों में भी आकर नोचता मुझको रहा

तो कलम का मौनव्रत अब तोड़ने का वक़्त है
जो बहा है लाठियों से वो न केवल रक्त है
तुम भूल जाने के लिए जो सुन रहे तो मत सुनो
जो चल रहा है देश मे वो न दिखे तो मत सुनो
तुम साम्यवादी हो बड़े घनघोर तो फिर मत सुनो
हो सनातन धर्म मे कमजोर तो फिर मत सुनो


सिर्फ हिन्दू मर गया है बात केवल ये नही है
संत तो भगवान का है रूप केवल ये सही है
चोर का तमगा लगाकर मारने का हक़ किसे है
जब पुलिस थी सामने तो और कोई शक किसे है
बेशर्म होके दानवों ने पीटकर हाय मार डाला
इस सनातन धर्म के विश्वास को ललकार डाला
जिसतरह से वो पुलिस का हाथ थामे चल रहे थे
भीड़ में वो इन दरिंदो की सहमकर डर रहे थे
शर्म आनी चाहिए जब हाथ छोड़ा उस पुलिस ने
कर्म अपना भूलकर जो साथ छोड़ा उस पुलिस ने
इन सभी लोगों को सच का आईना देना पड़ेगा
इस घिनोने कार्य का परिणाम तो सहना पड़ेगा
इतिहास कहता है जहाँ पर संत पर प्रहार हो
इसतरह बेबाक होकर घोर अत्याचार हो
तो वहाँ भगवान का एक जलजला आ जायेगा
चुप रहेंगे बुद्धजीवी तो फिर कहा क्या जायेगा
है अगर ये राजनीति तो सही पर न्याय दो
भूल जाने का नही फिर एक ये अध्याय दो

कविराज तरुण

Saturday 25 April 2020

तुम क्या करोगे ?

यूँ लिपटकर छोड़ देने से बुरा तुम क्या करोगे ?
कर सके खुद का भला ना तो भला तुम क्या करोगे ?

देख लेंगी ये तुम्हे भी वक़्त की चिंगारियां सब
उस खुदा के नाम पर अब आसरा तुम क्या करोगे ?

कविराज तरुण

Friday 24 April 2020

बैंक वाले बैंक वाले ।। bank wale bank wale

चाहे जान जोखिम में , फिर भी करें सेवा
ये सिंपल से बंदे हैं , खाते नही मेवा
पूरे ईमान से , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सच मे महान हैं
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

पहले आया जन-धन तो , खाते खुले लोगों के
लाइन लगी पब्लिक की , हमने कहा ओके है
फिर आई नोटबन्दी , फिर से कतार लगी
बारह बजे रात में भी , हमने करी सेवा थी

चाहे हो जीएसटी या , चाहे पैसे ईंधन के
सभी को संभाला है , हमने तो तन-मन से
छोटा बड़ा कोई नही , जो भी यहाँ आया है
डिजिटल जमाने को , हमने बनाया है
जनता के काम मे , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सच मे महान हैं
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

मुद्रा के लोन खाते , खुले ये अपार जब
गली गली गाँव मे भी , बढ़े रोजगार तब
चाहे आधार हो , चाहे पगार हो
बैंक की ही मेहनत से , काम-व्यापार हो

इन दिनों छाया ये , वायरस कोरोना का
हम गए काम पर , काहे का रोना था
जनता की सेवा का , अपना प्रयास है
सल्लू ने भी बोला , बैंक वाले खास हैं
पूरे ही ध्यान से , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

कविराज तरुण
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Thursday 23 April 2020

ग़ज़ल - हवा चल रही है

ग़ज़ल - हवा चल रही है

बड़ी तेज फिर से हवा चल रही है
इन्हें क्या पता है शमा जल रही है

कि भटकी हुई हैं मुहब्बत की गलियाँ
यही बात दिल मे मुझे खल रही है

न समझे जमाना तो इसमें नया क्या
ये अपने उसूलों पे ही चल रही है

वो लड़की जिसे ख़्वाब आते थे मेरे
किसी और के घर में वो पल रही है

तुम्हे आज फिर याद आई तरुण की
ये किस्मत मेरी हाथ फिर मल रही है

कविराज तरुण

कविता - जिजीविषा

विषय - जिजीविषा

पथभ्रमित करे जब ओर-छोर
जब लुप्त दिखे हर कोण दिशा
शून्य रहे अंतर्मन जब
हो घोर कालिमा लिए निशा

तब जीने की हर कोशिश पर
प्रश्नचिन्ह लग जाता है
आगे बढ़ने का संकल्प कदाचित
संकल्प मात्र रह जाता है

निर-आशा का घेर लिपटकर
विचलित कर देता है मन को
मिट्टी के सूखे बर्तन सा
वही तोड़ता है तब तन को

ऐसे दुष्कर विषम काल मे
वही उभरकर आता है
जिजीविषा हो जिसके अंदर
वही शिखर पर जाता है

कविराज तरुण

Sunday 19 April 2020

गीत - मधुबन

मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया
ऐसा मुझको स्वाद चढ़ा है , पीना खाना भूल गया

राधा को प्रभु गिरिधर नागर , सीता को प्रभु राम मिले
मैंने देखा जबसे तुमको , मुझको चारों धाम मिले

प्रेम हृदय मे संचित करके , दर्द पुराना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया

तू शीतल है तू निर्मल है , तू कोमल बनफूल सखे
मै भँवरा हूँ रज का प्यासा , दे दो अपनी धूल सखे

ऐसा मधुरस तुमने बाँटा , पंख चलाना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया

वृक्ष लता के नख से सिर तक , आकर्षण का द्वार मिला
मै विस्मित हूँ पाकर तुमको , जीवन को अब प्यार मिला

अनुरागी हो प्रीत-कमल से , ठौर ठिकाना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया


कविराज तरुण

Saturday 18 April 2020

ग़ज़ल - रात में क्या क्या रहा

ग़ज़ल - रात में क्या क्या रहा

इश्क़ गफलत में रहा कल , हुस्न भी टूटा रहा
आप अब ना पूछिये फिर , रात में क्या क्या रहा

वो सिसक कर चादरों के , दरमियां ही सो गई
मै ज़रा मजबूत था तो , दूर ही बैठा रहा

कुछ तेरे इल्ज़ाम ऐसे , जो नही वाजिब लगे
रो रहे थे तुम तो मै चुप-चाप ही सहता रहा

ये कहानी रोज की है , बात है कल की नही
एक आँसूँ बह गया तो , रातभर बहता रहा

और भी मसले कई थे , इस दरो-दीवार में
मै उसे सुनता रहा वो , जोर से कहता रहा

सिलसिले ये जब रुकेंगे , उम्र भी ढल जाएगी
आमना की चाह में मै , सामना करता रहा

कौन किसको दोष दे जब , बोल दोनों के बुरे
तल्ख़ बातें हो रही तो , तल्ख़ ही लहजा रहा

इश्क़ के हर लफ्ज़ से वो , आज कोसों दूर है
क्यों 'तरुण' तू खामखाँ ही , प्यार में उलझा रहा

कविराज तरुण

Thursday 16 April 2020

होने को है

फिर तुम्हारी याद में ये आसमाँ रोने को है
रात भी होने को है ये चाँद भी सोने को है

फिर न कहना इश्क़ के दो चार किस्से मै कहूँ
एक किस्से में बहुत कुछ आज भी खोने को है

बेकरारी और उल्फत दूर से सब ठीक पर
पास इसके जो गया वो ग़मज़दा होने को है

मै फरिश्ता हूँ नही इक आम ही इंसान हूँ
झेल कर ये मुश्किलें 

लॉकडाउन में

किस तरह खुद को सँवारें लॉकडाउन में
ये बड़ी मुश्किल तुम्हारे लॉकडाउन में

तुम न निकलो मै न निकलूँ वक़्त ही निकले
तो समय कैसे गुजारें लॉकडाउन में

हाल ये है नींद भी आती नही हमको
चाँद को कबतक निहारें लॉकडाउन में

शायरी लिख लिख मै हारा तुम नही आये
और किसको अब पुकारें लॉकडाउन में

जिसके सर पर छत नही वो क्या करे आखिर
जाए वो अब किस किनारे लॉकडाउन में

घर मे रोटी दाल की अब हो रही किल्लत
बंद हैं जब काम सारे लॉकडाउन में

कर सको तो कुछ करो तुम इन गरीबों का
इनकी हालत को विचारें लॉकडाउन में

जिंदगी रुक सी गई है ये 'तरुण' अब तो
फिर कई खरगोश हारे लॉकडाउन में

कविराज तरुण

Wednesday 15 April 2020

ग़ज़ल - रोता हूँ

हर विफलता पे बड़ा मायूस होता हूँ
दिखता खुश हूँ पर अकेले मै भी रोता हूँ

कर्म अपना साधने में देर हो जाये
तो कहाँ फिर चैन की मै नींद सोता हूँ

जो मिलें खुशियाँ उसे मै बाँट कर सबको
सबके चहरे की खुशी दिल में पिरोता हूँ

वक़्त आयेगा हसीं ये मानता मै भी
पर मिला जो वक़्त उसको मै सँजोता हूँ

वो लहर चुपचाप अपना काम करती है
और मै चुपचाप अपने पाप धोता हूँ

जिंदगी जब भी मिले तो पूछना उससे
क्या हुआ उस ख़्वाब का जो रोज बोता हूँ

पा लिया जितना अभी तुमने 'तरुण' उतना
रोज पाता और फिर मै रोज खोता हूँ

कविराज तरुण

Sunday 5 April 2020

विषय - साधना कर लीजिए

देश है ये साधको का साधना कर लीजिए
हो सके तो भक्तिमय आराधना कर लीजिए

दे दिया प्रभुराम ने है ये समय विस्तार का
अपने अंदर की छुपी दुर्भावना संहार का

एक दीपक की हृदय स्थापना कर लीजिए
देश है ये साधको का साधना कर लीजिए

दोष देने से किसी को क्या मिलेगा फल बता
जीव होकर तू किसी भी जीव को अब ना सता

धर्म अपना कर्म अपना है जगत अब साथ मे
एक दीपक आस का हो प्रज्वलित  अब हाथ मे

रात में सब नौ बजे शुभ-कामना कर लीजिए
देश है ये साधको का साधना कर लीजिए

कविराज तरुण

Tuesday 31 March 2020

इतिहास लिखा जायेगा

*इतिहास लिखा जायेगा*

तुम बेतहाशा लोगों को बरगालाओगे हमे मालूम है
झूठी बातें सीना ठोक कर बड़बड़ोगे हमे मालूम है
पर जो सच है वो बड़ी जल्दी लोगों तक पहुंच जायेगा
तब तेरी करतूतों का हर प्रयास लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

अपनी नफरत की दुकान मोबाइल में समेटकर
छोटे छोटे वीडियो में डर वहम लपेटकर
तुम साजिशों के अंधाधुंध पैतरे आजमाना
हर झूठ को सच है सच है कहके चिल्लाना
इन बेमतलब की दलीलों को बकवास लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

यूँ तो बातें बोलने का हक जताना
और फिर वो बोलना जो देश के खिलाफ है
कुछ युवाओं को अपने एजेंडे में फँसाकर
इसकदर ज़हर घोलना कौन सा इंसाफ है
मेरी तहरीर में हर लफ्ज़ साफ-साफ लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

तमाम सहूलियतों के लिए लाइन लगाने वालों
मुफ्त राशन के लिए हर कागज दिखाने वालों
बस देश के नाम पर ही तुम्हे ऐतराज़ है
बड़ी बेशर्मी बे-उसूलों में तुम्हारे कागजात हैं
तुम्हारी इस हरकत पर कुछ न कुछ खास लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

जिक्र आयेगा जब भी देश विरोधी बयानों का
जिक्र आयेगा जब भी जिन्ना के खानदानों का
तुम जैसों को तब नामुराद कहा जायेगा
तुम्हारी हर सोच को बर्बाद कहा जायेगा
और जो गुलाब में काँटे सजा के बैठो हो
तुम्हारी इस नीयत को मुर्दाबाद कहा जायेगा
कि कुछ लोग ऐसे भी थे जो अफजल के गुण गाते रहे
जिस थाली में खाया खाना उसमे छेद बनाते रहे
कि कुछ लोग ऐसे भी थे जो बसों में आग लगाते रहे जिद में अड़ जाने के बाद
कि कुछ लोग ऐसे भी थे दुनिया को भड़काते रहे अपनों से लड़ जाने के बाद
भूलें नही हैं हम अभी साँपो को कुचलना
भूले नही हैं दुश्मन के सीने पर मूँग दरना
वक़्त आने दो अभी कयामत का
वक़्त आने दो अपनी शामत का
फिर हर दर-ओ-दीवार पर तुम्हारा पाप लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा सारा इतिहास लिखा जायेगा

हम चाँद भी लिखेंगे रात भी लिखेंगे
तुमने जो बिगाड़े वो हालात भी लिखेंगे
धधकती आग में जो ये शहर जल रहा है
उसके साथ हुई हर वारदात भी लिखेंगे
तेरी करतूतों का हर एक प्रयास लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

देखो तुम किसी खुमारी में मत रहना 
क्या कहते हो ? पेट्रोल बम का तुम्हे शौक है 
बेहतर होगा किसी चिंगारी में मत रहना
गलतफहमी और अफवाह का बाज़ार गर्म है
पर ज्यादा दिन इस होशियारी में मत रहना

तेरे मंसूबो का एकदिन अहसास लिखा जायेगा
जिन्ना प्रेमियों तुम्हारा पूरा इतिहास लिखा जायेगा

कविराज तरुण

Monday 30 March 2020

ग़ज़ल - जानते हो

अदा जानते हो असर जानते हो
तिजारत के आठों पहर जानते हो

हमी से मुहब्बत हमी से ख़िलाफ़त
बड़े तुम सियासी हुनर जानते हो

हमे भी पता है तेरी हरकतों का
तुम्ही हो नही जो ख़बर जानते हो

कभी फुर्सतों में मुलाकात करना
सुना तुम रकीबों का घर जानते हो

हुये आज फिर लापता उस गली में
न कहना कि सारा शहर जानते हो

कहाँ से शुरू है कहाँ को ख़तम है
बताओ न तुम तो सफर जानते हो

दिले-मुफ़लिसी ने ये पूछा तरुण से
दवा जानते या ज़हर जानते हो


कविराज तरुण

ग़ज़ल - जानते हो

अदा जानते हो असर जानते हो
तिजारत के आठों पहर जानते हो

हमी से मुहब्बत हमी से मुखालत
बड़े तुम सियासी हुनर जानते हो

हमे भी पता है तेरी हरकतों का
तुम्ही हो नही जो ख़बर जानते हो

कभी फुर्सतों में मुलाकात करना
सुना तुम रकीबों का घर जानते हो

किसी मोड़ पर हुस्न से जो मिलो तो
न कहना कि सारा शहर जानते हो

अगर मुफ़लिसी मे मिलो तो बताना
दवा जानते या ज़हर जानते हो

कहाँ से शुरू है कहाँ को ख़तम है
बताओ न तुम तो सफर जानते हो

कि हर शायरी पर दिया दाद तुमने
ज़रा ये बताओ बहर जानते हो

कविराज तरुण

ग़ज़ल - हारा नही है

सफलता का कोई इशारा नही है
अभी वक़्त आया हमारा नही है

कहो ख़्वाहिशों से ज़रा दूर हो लें
भटकते दिलों का सहारा नही है

हुई गर्दिशों में हवा आज ऐसी
कहीं कोई बचने का चारा नही है

मुहाफ़िज़ रकीबों के हों हमनवां जब
तो इन कश्तियों को किनारा नही है

उसे तुम हराने का क्यों सोचते हो
जो अपनों की हरकत से हारा नही है

कविराज तरुण

Tuesday 24 March 2020

कबतलक ?

कबतलक ??

कबतलक उस शख्स को बदनाम करोगे
कबतलक तुम बेरुखी के काम करोगे

कबतलक विद्रोह के ये स्वर उठाकर झोंक दोगे तुम शहर को आग मे
कबतलक पत्थर चलाकर देश का आँचल रंगोंगे दाग मे
और कितनी बदनुमा ये शाम करोगे
कबतलक उस शख्स को बदनाम करोगे

तुम खुदा की बात करते हो मगर इंसानियत क्या चीज है तुमको पता क्या
मजहबी बातें बताकर बलगलाकर सत्य को ही दूर करने का तरीका
चल रहा है जल रहा देश मेरा
पर मुझे विश्वास है होगा सबेरा
और तेरा झूठ सबके सामने आ जायेगा
ये तमाशा अनशनों का अनसुना रह जायेगा
कबतलक ये शोर खुलेआम करोगे
कबतलक उस शख्स को बदनाम करोगे

तुम देश को खंडित करने के मंसूबे रोज बनाना छोड़ो
भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाअल्लाह गाना छोड़ो
जेएनयू में देश विरोधी नारे यूँ लगवाना छोड़ो
एएमयू में जिन्ना की फोटो पर फूल चढ़ाना छोड़ो
अफजल की बरसी होने पर रोना और चिल्लाना छोड़ो
हमे चाहिए आज़ादी ये फर्जी माँग उठाना छोड़ो

कबतलक शाहीन में संग्राम करोगे
कबतलक ये जुर्म सरे-आम करोगे
कबतलक तुम बेरुखी के काम करोगे
कबतलक उस शख़्स को बदनाम करोगे


कविराज तरुण

Tuesday 17 March 2020

ग़ज़ल - गहरान होने दो

हौसलों को तुम ज़रा बलवान होने दो
धार पर तलवार की ये जान होने दो

कौन है जो रोक सकता है तेरी किस्मत
तुम लकीरों की ज़रा गहरान होने दो

उंगलियाँ उठने लगी हैं उस खुदा पर जब
तो जरूरी है कहीं शैतान होने दो

जान कर तुमको कभी मै जान ना पाया
हो सके तो तुम मुझे अंजान होने दो

कश्तियाँ मै इस भँवर से पार कर दूँगा
साहिलों से तुम अभी पहचान होने दो

कविराज तरुण

Saturday 14 March 2020

करो-ना

हाथ जोड़ करके नमस्कार करो-ना
दूर से ही बात-चीत यार करो-ना

देख लो प्रकोप कैसा है जहान में
नॉनवेज का मिलके तिरस्कार करो-ना

वायरस अजीब आया ये वुहान से
फेफड़ों को ब्लॉक करता ये विधान से
फैलता ये वस्तु या किसी सामान से
मात इसको मिलती केवल तापमान से

मात इसको देने पर विचार करो-ना
हाथ जोड़ करके नमस्कार करो-ना

ये हवा में दस मिनट ही जागता रहे
वस्त्र पर मगर खुशी से भागता रहे
धातु पर भी कम नही है इसके आयुक्षण
तीन दिन शिकार ये तलाशता रहे

हैंड वाश दिन में कई बार करो-ना
हाथ जोड़ करके नमस्कार करो-ना
लिख दिया है मैंने तुम प्रचार करो-ना
हाथ जोड़ करके नमस्कार करो-ना

कविराज तरुण

ग़ज़ल - बुला रहा है

वो कौन सिरफिरा है हमको बुला रहा है
बे-फालतू मुसीबत अपनी बढ़ा रहा है

उसको नही पता है अंजाम-ए-इश्क़ शायद
काँटो की तश्करी में शबनम खिला रहा है

हर मोड़ पर मिलेंगे तुमको हजार चहरे
क्यों सामने से आकर यूँ मुस्कुरा रहा है

है प्यार का तजुर्बा कर लो यकीन मेरा
जो दिल से सोचता है वो चोट खा रहा है

ये बात भी अजब है समझायें और कैसे
मै दूर जा रहा हूँ वो पास आ रहा है

कविराज तरुण

Friday 6 March 2020

अलंकार

दिव्यता का भव्यता का ये सहज प्रचार है
ये अलंकार है ये अलंकार है

भीड़ आई है तमस की सामने तो डर है क्या
सूर्य के हैं पुत्र सारे देह में दिया छुपा

शून्य से शिखर का ये सामरिक विचार है
ये अलंकार है ये अलंकार है

रंग लेके हाथ से ही छाप छोड़ने लगे
पृष्ठ था सपाट वृत्त-चाप छोड़ने लगे
दृश्य को बना अतुल विलाप छोड़ने लगे
ठंड में जमी कलम पे ताप छोड़ने लगे

आधुनिक प्रवेष का ये सौम्य सा सुधार है
ये अलंकार है ये अलंकार है

कविराज तरुण

Thursday 5 March 2020

ग़ज़ल - कमल

विषय - कमल

कमल के फूल सा सुंदर तुम्हारा आज हो कल हो
कभी दिल चोट न खाये कभी कोई नही छल हो

दुआ बस एक है माँगी खुदा से बंदिगी करके
जहाँ मुश्किल मिले तुमको उसी के सामने हल हो

जो देखें ख़्वाब हैं तुमने सितारों की पनाहों में
निगाहों को हक़ीक़त में मुबारक वो सभी पल हो

ज़रा सी बात पर तुम हौसला क्यों तोड़ते अपना
जरूरी तो नही हरबार मीठा सब्र का फल हो

तेरा लड़ना जरूरी है फलक की आखिरी हद तक
'तरुण' डरने से क्या होगा भले कितने भी बादल हो

कविराज तरुण

Saturday 1 February 2020

ग़ज़ल - होने दो

ग़ज़ल - होने दो

मै जीना सीख जाऊँगा मुझे आजाद होने दो
शरीफों की कहाँ दुनिया ज़रा बर्बाद होने दो

था मुद्दत से जिसे पाया वही अब दूर है हमसे
भला हो या बुरा हो जिंदगी मे स्वाद होने दो

जरूरी ये नही उसके लिए हों बददुआ दिल मे
जहाँ जैसी भी हो उसको वहीं आबाद होने दो

महल बन जायेगा इकदिन हमारे ख्वाब का बेशक
अभी मजबूत थोड़ी सी मेरी बुनियाद होने दो

बिना बोले भी हाले दिल बताना है नही मुश्किल
'तरुण' आँखे उठाकर तुम अगर संवाद होने दो

कविराज तरुण

Tuesday 28 January 2020

ग़ज़ल - नही जानी

मिले हैं मुफ्त में शायद तभी कीमत नही जानी
ये सूरत जान ली तुमने मगर सीरत नही जानी

फलक पर चाँद का टुकड़ा सितारों से अलग क्यों है
लिखा क्या कुछ नही सबने मगर हालत नही जानी

वो पत्थर इसलिए हमसे कभी कुछ कह नही पाया
किसी ने इक दफा रुककर कभी हसरत नही जानी

तुम्हे है नाज जिस जिस पर उन्ही से है तुम्हे ख़तरा
छुपे चेहरों के भीतर की अभी हरकत नही जानी

ये कश्ती पार हो जाती अगर तूफां नही आता
'तरुण' ये कहने वालों ने मेरी हिम्मत नही जानी

कविराज तरुण

Sunday 26 January 2020

लघुकथा - कोयल

लघुकथा - कोयल


बस गाँव आने वाला है । लखनऊ जैसे शहर में पली-बढ़ी मै पहली बार ससुराल वाले गाँव जा रही हूँ ,वो भी अपनी सासूमाँ के साथ । साड़ी , घूँघट और सासूमाँ के उपदेश कि 'कम बोलना' , 'नजरें ना मिलाना' , 'बड़ो के पैर छूना' और जाने क्या क्या ? इतनी घबराहट तो तब भी न थी जब शादी के बाद लखनऊ वाली ससुराल आई थी । खैर वहाँ तो कोई रोक-टोक नही थी, पर यहाँ परिस्थितियों के अनुसार ढलना पड़ेगा । लो ये सब सोचते-सोचते खड़ंजे से होते हुए हमारा घर आ गया । 


गाँव की आबादी से थोड़ा हटके एक कोने में आम के पेड़ों के बीच बना ये घर बहुत सुंदर है ,साथ में शानदार दुआरा और सामने बड़ा सा मैदान । दूर से तो ऐसा लग रहा था कि ये एक बड़ा सा बाग है । कार से पैर निकाले ही थे कि लाल रंग से लबालब थाली मेरे पैरों के नीचे आ गई । दादी की आवाज आई - "आज तो लक्ष्मी जी स्वयं पधारी हैं । हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि तुम आने वाली हो जब कोयल शोर मचाये पड़ी थी । बहू! रंग में पैर डुबोकर दहलीज पर पैरों के निशान बनाते चलो ।" वैसे ऐसा करने में अलग सी खुशी भी मिली । 


गाँव वालों को खबर क्या लगी , लोगो के आने का क्रम ऐसा चला कि सारा दिन मुँह-दिखाई मे ही गुजर गया और रात में सासूमाँ ने दादी के पास पैर दबाने और पुण्य कमाने के लिए भेज दिया । मुझे दादी से थोड़ा डर तो लग रहा था पर हिम्मत करके मै उनके कमरे मे गई और पैर दबाने लगी। दादी ने पूछा कि गाँव मे कैसा लग रहा ? मै कुछ जवाब देती लेकिन मुँह से आवाज तक न निकली । दादी बोली - लगता है तुम्हारी सास ने तुम्हे बहुत डरा दिया है पर डरो मत! मै पुराने ख्यालों की नही हूँ । आठवीं पास हूँ और जब ब्याह होकर इस गाँव मे आई थी तो सब मास्टरनी कहते थे । गाँव की पहली शिक्षित बहू । तुम अपनी सहेली समझकर मुझसे बात कर सकती हो । मुझे थोड़ा अच्छा लगा और मैंने एक सवाल पूछ ही लिया - दादी जब मै आई तो आप कह रही थीं कि आपको पहले पता चल गया था, वो कैसे ? दादी जोर से हँसी और बोलीं- दोपहर से तुम्हे ये बात सताये जा रही है । हम व्हाट्सएप वाले जमाने के नही हैं । हमारे समय मे तो चिट्ठी से हालचाल , सूरज के उगने-डूबने से वक़्त और खाने की महक से बनाने वाले का बर्ताव पता चलता था । पेड़-पौधे , पशु-पक्षी और हवायें यहाँ गीत सुनाती हैं । किसी और चीज की जरूरत ही नही है । और ये तुम्हारे आने की खबर तो हमे सुबह कोयल ने ही दे दी थी । कुछ दिन में तुम सब समझ जाओगी । जाओ अब जाकर सो जाओ । सुबह जल्दी उठना तो आम के बाग में चलेंगे । दादी की बातों में इतनी मिठास है कि क्या बोलूँ । मै उठी और अपने कमरे मे सोने चली गई । मै ये तो बताना ही भूल गई कि मेरे पतिदेव और ससुर जी दिल्ली गए हैं । एक घर खरीद रहे हैं उसी सिलसिले में इसलिए हफ्ते भर हम गाँव मे रहेंगे । एक तो फोन में नेटवर्क नही आ रहा इसलिए जगने का कोई फायदा ही नही । सो ही जाती हूँ , वैसे भी सुबह पाँच बजे दादी के साथ आम के बाग में घूमने जाना है ।


यहाँ गाँव मे तो कुदरत खुद आके उठा जाती है । चिड़ियों की चहचहाहट, ठंडी हवा के झोंके और मुर्गे की बाग किसी अलार्म से कम थोड़े न होते हैं । सुबह के चार बजे रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे कि आज पहली बार मैंने शुकून की नींद ली है । इतनी सुबह पहली बार उठी हूँ पर फिरभी बहुत तरो-ताजा महसूस कर रही हूँ । मैंने नहा-धोकर किचन में गरमागरम चाय बनाई और दादी को उठाने चली गई । पर दादी तो पहले से उठी हुई थी और सासूमाँ से बतिया रही थीं । मुझे देखकर उनकी आँखों मे चमक आ गई । दादी बोली - हमे तो लगा था कि पाँच बजे तुम उठ पाओगी या नही पर तुमने तो दिल ही जीत लिया । सासूमाँ के आँखों की चमक बता रही थी कि मैंने आज उनकी लाज रख ली । हम और दादी थोड़ी देर बाद आम के बाग की ओर निकल लिए । 


पगडंडी वाले उस रास्ते पर चलते हुए दादी मुझे हमारे खेत और फसलों के बारे में बहुत सी बातें बताती जा रही थीं । सरसों की पीली चादर में लिपटी धरती तो दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्म की याद दिला रही थी । थोड़ी देर में हम बगिया पहुँच गए । उस बगिया में एक बड़ा सा तालाब भी था ,जिसमे मछली पालन भी होता है । इतने बड़े तालाब में प्यारी प्यारी मछलियों को देखकर वो घरों में बने काँच के मछलीघर तो बेमानी लगने लगे । आम के बड़े बड़े पेड़ और चारो तरफ पक्षी ही पक्षी । सब कुछ किसी फिल्म के दृश्य जैसा सुंदर और मनमोहक लग रहा था । 


मैंने दादी से कहा - दादी गाँव आकर बहुत अच्छा लग रहा है । दादी बोली - मुन्ना की याद नही आ रही । दादी ! बहुत याद आ रही पर यहाँ फोन में नेटवर्क ही नही आता । बात कैसे करूँ? ये कहते कहते मेरी आँखों मे आँसूँ आ गए । दादी ने सिर पर हाथ फिराया और बोलीं - इसमें रोने वाली कौनसी बात है । हमारे जमाने मे नेटवर्क तो क्या फोन भी नही थे फिरभी मेरी बात तुम्हारे दादाजी से हो जाती थी । मैंने कहा - वो कैसे ? फिर दादी बताने लगी - जब मन के तार जुड़े हों तो किसी नेटवर्क की जरूरत नही होती । अपनी बात इस हवा से कहो और ये संदेशा वहाँ तक पहुंचा देगी । जैसे कल सुबह कोयल ने तुम्हारी खबर मुझतक पहुंचाई थी । तभी अचानक मेरे फोन की घंटी बजी । देखा तो उनका फोन आया था , मै तो घंटी की आवाज सुनकर दंग रह गई कि नेटवर्क कैसे आ गया अचानक । तभी दादी बोलीं - मुन्ना का फोन आया होगा बात कर लो वर्ना नेटवर्क चला जायेगा और हँसते हुए वो थोड़ा दूर चली गईं । थोड़ी देर ही बात हुई पर मन को बड़ी खुशी मिली । कभी कभी तो लगता है कि दादी जादूगर हैं।


थोड़ी देर टहलने के बाद दादी और मै घर आ गए । दिनभर दादी के किस्से-कहानी और बातें सुनकर बहुत मजा आता और इसतरह कब पाँच दिन बीत गए पता ही नही चला । शुक्रवार का दिन था , सुबह से ही कोयल बार-बार मेरे सामने आती और कुहुकने लगती । दादी के साथ बगिया जाते वक्त भी कोयल मेरे ऊपर से गुजरे और आवाज करने लगे । मैंने परेशान होकर दादी से पूछा- दादी ये कोयल आज इतना शोर क्यों मचा रही मेरे पास आकर । दादी हँसने लगी और बोलीं- तुमको बताने आई है कि आज वो आने वाला है जिसकी तुम राह देख रही हो । मैंने भी दादी से बोला - अरे दादी ऐसे थोड़ी न होता है । वैसे भी वो तो रविवार से पहले कहाँ आयेंगे । उनका टिकट ही रविवार का है आप भी न दादी । खैर दादी फिरभी अपनी बात पर पूरी तरह आश्वस्त थीं । उन्होंने कहा - तुमलोग ट्वीटर वाली चिड़िया पर ज्यादा भरोसा करती हो और हम इस असली वाली चिड़िया पर । कुछ देर बाद बगिया घूम कर हम लोग घर लौट आये । 


न जाने क्यों बेचैनी हो रही थी , किसी काम मे मन ही नही लग रहा था । मै छत पर जाकर टहलने लगी । तभी दूर से धूल उड़ाता हुआ एक ट्रैक्टर दिखाई दिया । वो सीधा अपने घर की तरफ आ रहा था । मै भाग कर दुआरे पर गई । पीछे से दादी भी बाहर आ गई । थोड़ी देर में ट्रैक्टर घर पर आकर रुका और उसपे से मेरे पतिदेव उतरे । उन्हें देखते ही मेरी आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी और होंठों से बस ये निकला- "हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि आप आने वाले हो । हमे कोयल ने बता दिया था ।" ये सुनकर दादी भी हँस पड़ी और मै भी ।

तरुण कुमार सिंह

(कविराज तरुण)

Wednesday 15 January 2020

ग़ज़ल - मुस्कुराना चाहिए

चार दिन की जिंदगी है मुस्कुराना चाहिए
जो मिले जैसा मिले अपना बनाना चाहिए

खामखाँ क्यों अश्क़ का ये भार पलको पे रहे
थामकर कंधा कोई आँसूँ बहाना चाहिए

फल अगर रसदार हो तो क्या लटककर फायदा
बहतरी तो है उसे अब टूट जाना चाहिए

माजरा ये है नही किसके लिए कब क्या किया
जब जरूरत हो सभी को आजमाना चाहिए

राज क्यों इतने छुपाकर जी रहे हो तुम मियाँ
कम से कम खुद को कभी तो कुछ बताना चाहिए

काम करने को बहुत हैं हो अगर तुझमे हुनर
अपनी किस्मत का लिखा खुद ही मिटाना चहिए

बेवजह जो शोर इतना कर रहे उनको तरुण
इक दफा खामोश रहकर भी दिखाना चाहिए

कविराज तरुण

Saturday 11 January 2020

मुक्तक

[1/11, 20:10] कविराज तरुण: 

दर्द का इल्जाम तुमपर आज फिरसे आ गया
जिसकी किस्मत में लिखा जो वो उसी को पा गया
मै नही कहता मुकम्मल है हमारा इश्क़ ये
सामने तुम आये जब भी तो ये कोहरा छा गया

[1/11, 20:44] कविराज तरुण: 

जो सलीखेवार थे उनको सलीखा अब कहाँ
मुफ़लिसी है इश्क़ में कोई खलीफा अब कहाँ
कितनी कोशिश तुम करो पर मुश्किलों में जीत है
सच्चे आशिक़ को मिले जो वो वजीफा अब कहाँ

[1/11, 20:50] कविराज तरुण: 

कागजी है नाँव फिर भी इक सफर की आस है
बैठ जाने दो उसे जो आज दिल के पास है
जिंदगी का क्या कहें कल शाम मेरी हो न हो
जो मिला है पल यहाँ मेरे लिए वो खास है

ये माना जिंदगी में दुश्वारियाँ बहुत हैं
पर कह दो मुश्किलों से तैयारियाँ बहुत हैं
अरे एक पारी खत्म हुई तो क्या हुआ
आने को अभी तो पारियाँ बहुत हैं

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इश्क़ की बातें मुझे सच्ची नही लगती
क्या करें सीरत तेरी अच्छी नही लगती

बे-ख्याली में कभी आना मेरे साहिब
नींद आँखों में अभी कच्ची नही लगती

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हर एक चीज़ दुनिया से बाँट ली मैंने
बस माँ का प्यार मुझसे बाँटा नही गया
वो हर सामान मेरा अक्सर तोड़ देती है
मै एक बाप हूँ मुझसे उसे डाँटा नही गया

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सामने से रुख हवा का मोड़ देती है
चैन सुख जाने वो क्या क्या छोड़ देती है

मै गमो से घिर न जाऊँ वो करे सजदा
रोज अपनी उम्र मुझमे जोड़ देती है

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ख्वाब अपनी हसरतों के भूल जाता है

कविराज तरुण

शौक के चलते बदनाम हो गये
खास थे मगर हम आम हो गये
यूँ तो पंक्षी बता देते थे हमारा पता
तुम गुम क्या हुए हम गुमनाम हो गये

कविराज तरुण
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08.04.20
दाग दामन पे था दर्द सीने से उठा
तेरा ख़याल आज फिर पीने से उठा
तूने जब ये कहा कि मुझपर भरोसा नही
सच कहूँ यार भरोसा जीने से उठा

कविराज तरुण
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11.04.20

खतरा तो नही है पर एहतियात जरूरी है
घर से निकलो तो फिर कागजात जरूरी है

ये इश्क़ घनी धूप में भला कैसे किया जाये
जज़्बात का तो ठीक मगर बरसात जरूरी है

कविराज तरुण
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12.04.20
वो जो बोलता है सबकुछ तो सच नही है
पर मेरी नजर में वो गुनहगार अबतक नही है

हो सकता है मजबूरी या कोई और वजह हो
या मेरी गलतफहमी ने पाई अभी हद नही है

कविराज तरुण

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कुछ गलतफहमी भी रहने दो
नही क्लियर करो सबकुछ

बहुत कुछ कर लिया तुमने
नही डिअर करो अबकुछ

कविराज तरुण
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03.05.2020
बाग से उखाड़कर गुलाब ले गए
तुम गए तो जिंदगी के ख्वाब ले गए

इसतरह बताओ कौन रूठता भला
तुम हमारे प्यार का हिसाब ले गए

कविराज तरुण
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06.05.2020

मेज पर रखी मेरी उस डायरी में तुम
उस रजिस्टर पर हुई सब हाजरी में तुम

जब भी लिखता हूँ तुम्हे ही सोचकर लिखता
आज भी महफूज़ हो हर शायरी में तुम

कविराज तरुण

लड़खड़ाया हूँ मगर फिर भी खड़ा हूँ मै
देश तेरे वास्ते फिर से लड़ा हूँ मै

जो ये कहते थे सुनो जिद छोड़ दो अपनी
आज उनके सामने जिद पे अड़ा हूँ मै

कविराज तरुण

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12.05.2020

आँखों मे गुमशुदा हैं
जज़्बात आज फिर से
काटे से न कटेगी
ये रात आज फिर से

कैसे मै भूल जाऊँ
नज़दीकियों को तेरी
होने लगी है बाहर
बरसात आज फिर से

कविराज तरुण
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15.05.2020

हर बात पे हैरां हो जाती हो
हँसती हो पर घबराती हो

चहरे पर जो नूर खिला है
कह दो कहाँ से वो लाती हो

कविराज तरुण
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२३.०५.२०२०  १८:४४
हारी हुई बाजी के दाँव दूंढने चलो
आओ आज फिरसे मेरा गाँव दूंढने चलो

बहुमंजिला इमारतों से धूप आ रही बड़ी
आओ ज़रा पीपल की छाँव दूंढने चलो

कविराज तरुण

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२४.०५.२०२०   २३:३६

रात मे अक्सर कई सवाल पूछे जाते हैं
चाहने वालों के हाल-चाल पूछे जाते हैं

ठीक नही है तेरा यूँ खामोश हो जाना
अपने बिस्तर मे चुपचाप ही सो जाना

जो भी हो मगर दिल के मलाल पूछे जाते हैं
रात मे अक्सर कई सवाल पूछे जाते हैं


कविराज तरुण
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२५.०५.२०२०।   ११:२९
वो अक्सर मेरे प्यार को इग्नोर करती है
ज़रा ज़रा सी बात पर ही शोर करती है
मै रूठूँगा नही शायद इसका इल्म है उसे
तभी वो लड़ाईयां बड़ी घनघोर करती है

कविराज तरुण
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२५.०५.२०२०।  २२:४५
करना ये अपनी बात ज़रा इत्मिनान से
बैठे हैं लोग-बाग तेरे खानदान से

इनकी दुआ मे साफ झलक मतलबी दिखे
खतरा तुम्हे तो आज भी है पासबान से
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तेरे बताये रस्ते पर ही
तुझसे मिलने जाता हूँ
लेकिन तुम न मिलती हो तो
खाली वापस आता हूँ

मुझे पता है तुम मुझसे अब
मिलने से कतराती हो
जाने ऐसा पत्थर दिल तुम
उठा कहाँ से लाती हो
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जो भी मेरी मुश्किल थी सब तुमसे मिलकर दूर हुई
देखो बंधन की बेड़ी ये कैसे चकनाचूर हुई

अलसायी आँखों से बादल बरसे तेरे नाम के
और मेरे लफ़्ज़ों की फितरत पलभर में मशहूर हुई
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[5/25, 23:40] कविराज तरुण: सच मे तुमको पाकर अब मै तुमको खोने से डरता हूँ
कुछ भी कह लो मुझको तेरे चुप होने से डरता हूँ

खुद की फिक्र नही है मुझको लापरवाह हूँ मनमौजी हूँ
पर तेरे सोने से पहले खुद सोने से डरता हूँ
[5/25, 23:48] कविराज तरुण: काले साये अक्सर मेरे साथ चला करते थे
घनी धूप में वो भी मुझसे दूर हो रहे हैं

अपनों की बस्ती में अब जाने से डर लगता है
और सभी कहते हैं हम मशहूर हो रहे हैं
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मुझको तेरी आँखों ने प्यारा सा अहसास दिया
मुझसे मिलकर चार हुईं और दिल को मेरे पास दिया
अब मै इन आँखों को कैसे रोने दूँ तन्हाई मे
जिसने मेरे जीवन को मकसद इतना खास दिया

कविराज तरुण

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Tuesday 7 January 2020

मै कुछ बोलूंगा

मै कुछ बोलूँगा तो गद्दार हो जाऊँगा
तमाम दलीलों का हक़दार हो जाऊँगा
जो लोग मुझे मानते हैं खुद से भी ज्यादा
उन्ही की आँखों में गुनहगार हो जाऊँगा

Sunday 5 January 2020

ग़ज़ल - गुजार लीजिये

जिंदगी ये प्यार से गुजार लीजिये
चाँद की कभी नजर उतार लीजिये

कौन कब कहाँ मिलेगा किसको क्या पता
एक बार जोर से पुकार लीजिये

साहिलों को है पता बहाव तेज है
कश्तियों की खामियाँ सुधार लीजिये

जो मिला है आपका है या खुदा का है
हो सके तो ये तनिक विचार लीजिये

वक़्त कब रुका कहीं किसी के वास्ते
जो समय मिला 'तरुण' निखार लीजिये

कविराज तरुण