Sunday 18 July 2021

याद आओगे बहुत

जिंदगी का फलसफा दोहराने से पहले
याद आओगे बहुत याद आने से पहले

ये गलियां ये सड़कें बुलाएंगी तुमको
देख लेना इन्हें भूल जाने से पहले

दिल का क्या है कहीं न कहीं तो लगेगा
याद रखना हमें दिल लगाने से पहले

मुस्कुराता हुआ एक चेहरा यहाँ है
सोच लेना यही मुस्कुराने से पहले

हाथ रखना जरूरी है सीने पे अपने
बातें यहाँ की सुनाने से पहले

Sunday 4 July 2021

मंज़िल नही मिलती

कभी साहिल नही मिलता कभी मंजिल नही मिलती
मेरे ज़ख्मों को जाने क्यों दवा काबिल नही मिलती

कि उसका नाम लेता हूँ तो अपने रूठ जाते हैं
किसी पत्ते की तरहा रोज सपने टूट जाते हैं

इसी इक बात से हिम्मत जुटा लेता हूँ रातों में
अँधेरों के मुसाफिर को कहीं मुश्किल नही मिलती

ख़फ़ा है या रज़ा है वो मुझे कोई तो बतलाओ
अगर मुझसे तुम्हे मतलब तो फिर उसकी खबर लाओ

बिना उसके लिखूँ मै क्या कहूँ मै क्या करूँ मै क्या
मेरी ग़ज़लें हुईं तन्हा इन्हें महफ़िल नही मिलती

वफ़ा के नाम पर कितने सितम अब और सहने हैं
ज़रा कह दो समंदर से ये आँसूँ और बहने हैं

जहाँ पर कत्ल होता है 'मुहब्बत' का 'मुहब्बत' से
वहाँ किस्से तो मिलते हैं मगर क़ातिल नही मिलती

कविराज तरुण 'सक्षम'
साहित्य संगम संस्थान

Thursday 1 July 2021

संशय

शीर्षक - संशय

संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है
अच्छा खासा व्यक्ति कदम आगे करने से घबराता है

जो भी काम मिले उसको ना कहने की आदत लगती है
सीधी सादी बात उसे तब हिय के भीतर तक चुभती है
लोगों के फिर मानचित्र वो अनायास ही बनवाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

निराधार विषयों पर चिंतन कारण बनता है दुविधा का
मार्ग उसे मुश्किल लगता है फिर चाहे वो हो सुविधा का
आड़ी तिरछी रेखाओं में उलझा अपने को पाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

चित्त व्यथित हो जाता उसका घोर निराशा छा जाती है
मन की पीड़ा उछल उछल कर अश्रु हृदय से बरसाती है
दूर अकेलेपन का कोहरा चित्र भयानक दर्शाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

अच्छा होगा यदि हम केवल कर्मभाव को अपनायेंगे
चिंता शंका वहम छोड़कर मनोयोग से लग जायेंगे
कोशिश करने वाला ही तो अपनी मंजिल को पाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

तरुण कुमार सिंह
प्रबंधक-विपणन विभाग
लखनऊ अंचल