Monday 27 April 2020

ग़ज़ल - कभी आओ तुम

मेरे गुमगश्ता ठिकानों पे कभी आओ तुम
अहले-उल्फ़त के तरानों पे कभी आओ तुम

ख्वाहिशे-दिल जो कहे वो भी कभी करने दो
यार बादल की उड़ानों पे कभी आओ तुम

ये जो सिलवट है शगुफ्ता से मेरे चहरे पर
इनके गुजरे उन ज़मानों पे कभी आओ तुम

फिर गमो की रात मेरी मयकशी में गुजरी
मेरे ख्वाबों के मचानों पे कभी आओ तुम

भीड़ लगती है अमीरों की दुकानों पे 'तरुण'
इन गरीबों की दुकानों पे कभी आओ तुम

कविराज तरुण

(गुमगश्ता- खोया हुआ , अहल-ए-उल्फ़त- प्यारा इंसान , शगुफ्ता- खिला हुआ, )

Sunday 26 April 2020

ग़ज़ल - गंगा

ग़ज़ल - गंगा

सभी के पाप धोने की करे कोशिश यही गंगा
इसी कोशिश मे पहले से कहीं मैली हुई गंगा

थे भागीरथ उठा लाये उन्हें शिव की जटाओं से
इसी अफसोस मे शायद रहे अबतक दुखी गंगा

ये अपने ज़ख्म जो तुम धो रहे हो रात में आकर
रहेगी कबतलक पावन सितारों से धुली गंगा

ये मानुष तो समझता है कि इनको दर्द क्यों होगा
सहेगी चोट ये हँसकर बड़ी ही है भली गंगा

'तरुण' की बात सुन लो गौर से सुनने सभी वालों
है देवी माँ इसे पूजो है आफत मे मेरी गंगा

कविराज तरुण

न्याय दो

सोचा था नही लिखूँगा या लिख नही मै पाऊँगा
पर बात इतनी खास थी कि चुप नही रह पाऊँगा

दो संत आखिर मर गए तो कौन सा भूचाल है
कीमती जानें यहाँ कब ? हरतरफ कंकाल है
खुद को ज्ञानी मै समझकर दूर सारी झंझटों से
सोचता बस ये रहा जो हाल है वो हाल है

पर मेरे अंतस का कोना खोजता मुझको रहा
हर घड़ी आवाज देकर कोसता मुझको रहा
सुनकर उसे मै अनसुना करता रहा था आजतक
पर वो सपनों में भी आकर नोचता मुझको रहा

तो कलम का मौनव्रत अब तोड़ने का वक़्त है
जो बहा है लाठियों से वो न केवल रक्त है
तुम भूल जाने के लिए जो सुन रहे तो मत सुनो
जो चल रहा है देश मे वो न दिखे तो मत सुनो
तुम साम्यवादी हो बड़े घनघोर तो फिर मत सुनो
हो सनातन धर्म मे कमजोर तो फिर मत सुनो


सिर्फ हिन्दू मर गया है बात केवल ये नही है
संत तो भगवान का है रूप केवल ये सही है
चोर का तमगा लगाकर मारने का हक़ किसे है
जब पुलिस थी सामने तो और कोई शक किसे है
बेशर्म होके दानवों ने पीटकर हाय मार डाला
इस सनातन धर्म के विश्वास को ललकार डाला
जिसतरह से वो पुलिस का हाथ थामे चल रहे थे
भीड़ में वो इन दरिंदो की सहमकर डर रहे थे
शर्म आनी चाहिए जब हाथ छोड़ा उस पुलिस ने
कर्म अपना भूलकर जो साथ छोड़ा उस पुलिस ने
इन सभी लोगों को सच का आईना देना पड़ेगा
इस घिनोने कार्य का परिणाम तो सहना पड़ेगा
इतिहास कहता है जहाँ पर संत पर प्रहार हो
इसतरह बेबाक होकर घोर अत्याचार हो
तो वहाँ भगवान का एक जलजला आ जायेगा
चुप रहेंगे बुद्धजीवी तो फिर कहा क्या जायेगा
है अगर ये राजनीति तो सही पर न्याय दो
भूल जाने का नही फिर एक ये अध्याय दो

कविराज तरुण

Saturday 25 April 2020

तुम क्या करोगे ?

यूँ लिपटकर छोड़ देने से बुरा तुम क्या करोगे ?
कर सके खुद का भला ना तो भला तुम क्या करोगे ?

देख लेंगी ये तुम्हे भी वक़्त की चिंगारियां सब
उस खुदा के नाम पर अब आसरा तुम क्या करोगे ?

कविराज तरुण

Friday 24 April 2020

बैंक वाले बैंक वाले ।। bank wale bank wale

चाहे जान जोखिम में , फिर भी करें सेवा
ये सिंपल से बंदे हैं , खाते नही मेवा
पूरे ईमान से , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सच मे महान हैं
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

पहले आया जन-धन तो , खाते खुले लोगों के
लाइन लगी पब्लिक की , हमने कहा ओके है
फिर आई नोटबन्दी , फिर से कतार लगी
बारह बजे रात में भी , हमने करी सेवा थी

चाहे हो जीएसटी या , चाहे पैसे ईंधन के
सभी को संभाला है , हमने तो तन-मन से
छोटा बड़ा कोई नही , जो भी यहाँ आया है
डिजिटल जमाने को , हमने बनाया है
जनता के काम मे , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सच मे महान हैं
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

मुद्रा के लोन खाते , खुले ये अपार जब
गली गली गाँव मे भी , बढ़े रोजगार तब
चाहे आधार हो , चाहे पगार हो
बैंक की ही मेहनत से , काम-व्यापार हो

इन दिनों छाया ये , वायरस कोरोना का
हम गए काम पर , काहे का रोना था
जनता की सेवा का , अपना प्रयास है
सल्लू ने भी बोला , बैंक वाले खास हैं
पूरे ही ध्यान से , लगे हैं जी-जान से
बैंक वाले बैंक वाले
सॉलिड इंसान हैं

कविराज तरुण
7007789629
9451348935

Thursday 23 April 2020

ग़ज़ल - हवा चल रही है

ग़ज़ल - हवा चल रही है

बड़ी तेज फिर से हवा चल रही है
इन्हें क्या पता है शमा जल रही है

कि भटकी हुई हैं मुहब्बत की गलियाँ
यही बात दिल मे मुझे खल रही है

न समझे जमाना तो इसमें नया क्या
ये अपने उसूलों पे ही चल रही है

वो लड़की जिसे ख़्वाब आते थे मेरे
किसी और के घर में वो पल रही है

तुम्हे आज फिर याद आई तरुण की
ये किस्मत मेरी हाथ फिर मल रही है

कविराज तरुण

कविता - जिजीविषा

विषय - जिजीविषा

पथभ्रमित करे जब ओर-छोर
जब लुप्त दिखे हर कोण दिशा
शून्य रहे अंतर्मन जब
हो घोर कालिमा लिए निशा

तब जीने की हर कोशिश पर
प्रश्नचिन्ह लग जाता है
आगे बढ़ने का संकल्प कदाचित
संकल्प मात्र रह जाता है

निर-आशा का घेर लिपटकर
विचलित कर देता है मन को
मिट्टी के सूखे बर्तन सा
वही तोड़ता है तब तन को

ऐसे दुष्कर विषम काल मे
वही उभरकर आता है
जिजीविषा हो जिसके अंदर
वही शिखर पर जाता है

कविराज तरुण

Sunday 19 April 2020

गीत - मधुबन

मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया
ऐसा मुझको स्वाद चढ़ा है , पीना खाना भूल गया

राधा को प्रभु गिरिधर नागर , सीता को प्रभु राम मिले
मैंने देखा जबसे तुमको , मुझको चारों धाम मिले

प्रेम हृदय मे संचित करके , दर्द पुराना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया

तू शीतल है तू निर्मल है , तू कोमल बनफूल सखे
मै भँवरा हूँ रज का प्यासा , दे दो अपनी धूल सखे

ऐसा मधुरस तुमने बाँटा , पंख चलाना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया

वृक्ष लता के नख से सिर तक , आकर्षण का द्वार मिला
मै विस्मित हूँ पाकर तुमको , जीवन को अब प्यार मिला

अनुरागी हो प्रीत-कमल से , ठौर ठिकाना भूल गया
मै तेरे मधुबन में आके , बाहर जाना भूल गया


कविराज तरुण

Saturday 18 April 2020

ग़ज़ल - रात में क्या क्या रहा

ग़ज़ल - रात में क्या क्या रहा

इश्क़ गफलत में रहा कल , हुस्न भी टूटा रहा
आप अब ना पूछिये फिर , रात में क्या क्या रहा

वो सिसक कर चादरों के , दरमियां ही सो गई
मै ज़रा मजबूत था तो , दूर ही बैठा रहा

कुछ तेरे इल्ज़ाम ऐसे , जो नही वाजिब लगे
रो रहे थे तुम तो मै चुप-चाप ही सहता रहा

ये कहानी रोज की है , बात है कल की नही
एक आँसूँ बह गया तो , रातभर बहता रहा

और भी मसले कई थे , इस दरो-दीवार में
मै उसे सुनता रहा वो , जोर से कहता रहा

सिलसिले ये जब रुकेंगे , उम्र भी ढल जाएगी
आमना की चाह में मै , सामना करता रहा

कौन किसको दोष दे जब , बोल दोनों के बुरे
तल्ख़ बातें हो रही तो , तल्ख़ ही लहजा रहा

इश्क़ के हर लफ्ज़ से वो , आज कोसों दूर है
क्यों 'तरुण' तू खामखाँ ही , प्यार में उलझा रहा

कविराज तरुण

Thursday 16 April 2020

होने को है

फिर तुम्हारी याद में ये आसमाँ रोने को है
रात भी होने को है ये चाँद भी सोने को है

फिर न कहना इश्क़ के दो चार किस्से मै कहूँ
एक किस्से में बहुत कुछ आज भी खोने को है

बेकरारी और उल्फत दूर से सब ठीक पर
पास इसके जो गया वो ग़मज़दा होने को है

मै फरिश्ता हूँ नही इक आम ही इंसान हूँ
झेल कर ये मुश्किलें 

लॉकडाउन में

किस तरह खुद को सँवारें लॉकडाउन में
ये बड़ी मुश्किल तुम्हारे लॉकडाउन में

तुम न निकलो मै न निकलूँ वक़्त ही निकले
तो समय कैसे गुजारें लॉकडाउन में

हाल ये है नींद भी आती नही हमको
चाँद को कबतक निहारें लॉकडाउन में

शायरी लिख लिख मै हारा तुम नही आये
और किसको अब पुकारें लॉकडाउन में

जिसके सर पर छत नही वो क्या करे आखिर
जाए वो अब किस किनारे लॉकडाउन में

घर मे रोटी दाल की अब हो रही किल्लत
बंद हैं जब काम सारे लॉकडाउन में

कर सको तो कुछ करो तुम इन गरीबों का
इनकी हालत को विचारें लॉकडाउन में

जिंदगी रुक सी गई है ये 'तरुण' अब तो
फिर कई खरगोश हारे लॉकडाउन में

कविराज तरुण

Wednesday 15 April 2020

ग़ज़ल - रोता हूँ

हर विफलता पे बड़ा मायूस होता हूँ
दिखता खुश हूँ पर अकेले मै भी रोता हूँ

कर्म अपना साधने में देर हो जाये
तो कहाँ फिर चैन की मै नींद सोता हूँ

जो मिलें खुशियाँ उसे मै बाँट कर सबको
सबके चहरे की खुशी दिल में पिरोता हूँ

वक़्त आयेगा हसीं ये मानता मै भी
पर मिला जो वक़्त उसको मै सँजोता हूँ

वो लहर चुपचाप अपना काम करती है
और मै चुपचाप अपने पाप धोता हूँ

जिंदगी जब भी मिले तो पूछना उससे
क्या हुआ उस ख़्वाब का जो रोज बोता हूँ

पा लिया जितना अभी तुमने 'तरुण' उतना
रोज पाता और फिर मै रोज खोता हूँ

कविराज तरुण

Sunday 5 April 2020

विषय - साधना कर लीजिए

देश है ये साधको का साधना कर लीजिए
हो सके तो भक्तिमय आराधना कर लीजिए

दे दिया प्रभुराम ने है ये समय विस्तार का
अपने अंदर की छुपी दुर्भावना संहार का

एक दीपक की हृदय स्थापना कर लीजिए
देश है ये साधको का साधना कर लीजिए

दोष देने से किसी को क्या मिलेगा फल बता
जीव होकर तू किसी भी जीव को अब ना सता

धर्म अपना कर्म अपना है जगत अब साथ मे
एक दीपक आस का हो प्रज्वलित  अब हाथ मे

रात में सब नौ बजे शुभ-कामना कर लीजिए
देश है ये साधको का साधना कर लीजिए

कविराज तरुण