Tuesday 28 January 2020

ग़ज़ल - नही जानी

मिले हैं मुफ्त में शायद तभी कीमत नही जानी
ये सूरत जान ली तुमने मगर सीरत नही जानी

फलक पर चाँद का टुकड़ा सितारों से अलग क्यों है
लिखा क्या कुछ नही सबने मगर हालत नही जानी

वो पत्थर इसलिए हमसे कभी कुछ कह नही पाया
किसी ने इक दफा रुककर कभी हसरत नही जानी

तुम्हे है नाज जिस जिस पर उन्ही से है तुम्हे ख़तरा
छुपे चेहरों के भीतर की अभी हरकत नही जानी

ये कश्ती पार हो जाती अगर तूफां नही आता
'तरुण' ये कहने वालों ने मेरी हिम्मत नही जानी

कविराज तरुण

Sunday 26 January 2020

लघुकथा - कोयल

लघुकथा - कोयल


बस गाँव आने वाला है । लखनऊ जैसे शहर में पली-बढ़ी मै पहली बार ससुराल वाले गाँव जा रही हूँ ,वो भी अपनी सासूमाँ के साथ । साड़ी , घूँघट और सासूमाँ के उपदेश कि 'कम बोलना' , 'नजरें ना मिलाना' , 'बड़ो के पैर छूना' और जाने क्या क्या ? इतनी घबराहट तो तब भी न थी जब शादी के बाद लखनऊ वाली ससुराल आई थी । खैर वहाँ तो कोई रोक-टोक नही थी, पर यहाँ परिस्थितियों के अनुसार ढलना पड़ेगा । लो ये सब सोचते-सोचते खड़ंजे से होते हुए हमारा घर आ गया । 


गाँव की आबादी से थोड़ा हटके एक कोने में आम के पेड़ों के बीच बना ये घर बहुत सुंदर है ,साथ में शानदार दुआरा और सामने बड़ा सा मैदान । दूर से तो ऐसा लग रहा था कि ये एक बड़ा सा बाग है । कार से पैर निकाले ही थे कि लाल रंग से लबालब थाली मेरे पैरों के नीचे आ गई । दादी की आवाज आई - "आज तो लक्ष्मी जी स्वयं पधारी हैं । हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि तुम आने वाली हो जब कोयल शोर मचाये पड़ी थी । बहू! रंग में पैर डुबोकर दहलीज पर पैरों के निशान बनाते चलो ।" वैसे ऐसा करने में अलग सी खुशी भी मिली । 


गाँव वालों को खबर क्या लगी , लोगो के आने का क्रम ऐसा चला कि सारा दिन मुँह-दिखाई मे ही गुजर गया और रात में सासूमाँ ने दादी के पास पैर दबाने और पुण्य कमाने के लिए भेज दिया । मुझे दादी से थोड़ा डर तो लग रहा था पर हिम्मत करके मै उनके कमरे मे गई और पैर दबाने लगी। दादी ने पूछा कि गाँव मे कैसा लग रहा ? मै कुछ जवाब देती लेकिन मुँह से आवाज तक न निकली । दादी बोली - लगता है तुम्हारी सास ने तुम्हे बहुत डरा दिया है पर डरो मत! मै पुराने ख्यालों की नही हूँ । आठवीं पास हूँ और जब ब्याह होकर इस गाँव मे आई थी तो सब मास्टरनी कहते थे । गाँव की पहली शिक्षित बहू । तुम अपनी सहेली समझकर मुझसे बात कर सकती हो । मुझे थोड़ा अच्छा लगा और मैंने एक सवाल पूछ ही लिया - दादी जब मै आई तो आप कह रही थीं कि आपको पहले पता चल गया था, वो कैसे ? दादी जोर से हँसी और बोलीं- दोपहर से तुम्हे ये बात सताये जा रही है । हम व्हाट्सएप वाले जमाने के नही हैं । हमारे समय मे तो चिट्ठी से हालचाल , सूरज के उगने-डूबने से वक़्त और खाने की महक से बनाने वाले का बर्ताव पता चलता था । पेड़-पौधे , पशु-पक्षी और हवायें यहाँ गीत सुनाती हैं । किसी और चीज की जरूरत ही नही है । और ये तुम्हारे आने की खबर तो हमे सुबह कोयल ने ही दे दी थी । कुछ दिन में तुम सब समझ जाओगी । जाओ अब जाकर सो जाओ । सुबह जल्दी उठना तो आम के बाग में चलेंगे । दादी की बातों में इतनी मिठास है कि क्या बोलूँ । मै उठी और अपने कमरे मे सोने चली गई । मै ये तो बताना ही भूल गई कि मेरे पतिदेव और ससुर जी दिल्ली गए हैं । एक घर खरीद रहे हैं उसी सिलसिले में इसलिए हफ्ते भर हम गाँव मे रहेंगे । एक तो फोन में नेटवर्क नही आ रहा इसलिए जगने का कोई फायदा ही नही । सो ही जाती हूँ , वैसे भी सुबह पाँच बजे दादी के साथ आम के बाग में घूमने जाना है ।


यहाँ गाँव मे तो कुदरत खुद आके उठा जाती है । चिड़ियों की चहचहाहट, ठंडी हवा के झोंके और मुर्गे की बाग किसी अलार्म से कम थोड़े न होते हैं । सुबह के चार बजे रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे कि आज पहली बार मैंने शुकून की नींद ली है । इतनी सुबह पहली बार उठी हूँ पर फिरभी बहुत तरो-ताजा महसूस कर रही हूँ । मैंने नहा-धोकर किचन में गरमागरम चाय बनाई और दादी को उठाने चली गई । पर दादी तो पहले से उठी हुई थी और सासूमाँ से बतिया रही थीं । मुझे देखकर उनकी आँखों मे चमक आ गई । दादी बोली - हमे तो लगा था कि पाँच बजे तुम उठ पाओगी या नही पर तुमने तो दिल ही जीत लिया । सासूमाँ के आँखों की चमक बता रही थी कि मैंने आज उनकी लाज रख ली । हम और दादी थोड़ी देर बाद आम के बाग की ओर निकल लिए । 


पगडंडी वाले उस रास्ते पर चलते हुए दादी मुझे हमारे खेत और फसलों के बारे में बहुत सी बातें बताती जा रही थीं । सरसों की पीली चादर में लिपटी धरती तो दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्म की याद दिला रही थी । थोड़ी देर में हम बगिया पहुँच गए । उस बगिया में एक बड़ा सा तालाब भी था ,जिसमे मछली पालन भी होता है । इतने बड़े तालाब में प्यारी प्यारी मछलियों को देखकर वो घरों में बने काँच के मछलीघर तो बेमानी लगने लगे । आम के बड़े बड़े पेड़ और चारो तरफ पक्षी ही पक्षी । सब कुछ किसी फिल्म के दृश्य जैसा सुंदर और मनमोहक लग रहा था । 


मैंने दादी से कहा - दादी गाँव आकर बहुत अच्छा लग रहा है । दादी बोली - मुन्ना की याद नही आ रही । दादी ! बहुत याद आ रही पर यहाँ फोन में नेटवर्क ही नही आता । बात कैसे करूँ? ये कहते कहते मेरी आँखों मे आँसूँ आ गए । दादी ने सिर पर हाथ फिराया और बोलीं - इसमें रोने वाली कौनसी बात है । हमारे जमाने मे नेटवर्क तो क्या फोन भी नही थे फिरभी मेरी बात तुम्हारे दादाजी से हो जाती थी । मैंने कहा - वो कैसे ? फिर दादी बताने लगी - जब मन के तार जुड़े हों तो किसी नेटवर्क की जरूरत नही होती । अपनी बात इस हवा से कहो और ये संदेशा वहाँ तक पहुंचा देगी । जैसे कल सुबह कोयल ने तुम्हारी खबर मुझतक पहुंचाई थी । तभी अचानक मेरे फोन की घंटी बजी । देखा तो उनका फोन आया था , मै तो घंटी की आवाज सुनकर दंग रह गई कि नेटवर्क कैसे आ गया अचानक । तभी दादी बोलीं - मुन्ना का फोन आया होगा बात कर लो वर्ना नेटवर्क चला जायेगा और हँसते हुए वो थोड़ा दूर चली गईं । थोड़ी देर ही बात हुई पर मन को बड़ी खुशी मिली । कभी कभी तो लगता है कि दादी जादूगर हैं।


थोड़ी देर टहलने के बाद दादी और मै घर आ गए । दिनभर दादी के किस्से-कहानी और बातें सुनकर बहुत मजा आता और इसतरह कब पाँच दिन बीत गए पता ही नही चला । शुक्रवार का दिन था , सुबह से ही कोयल बार-बार मेरे सामने आती और कुहुकने लगती । दादी के साथ बगिया जाते वक्त भी कोयल मेरे ऊपर से गुजरे और आवाज करने लगे । मैंने परेशान होकर दादी से पूछा- दादी ये कोयल आज इतना शोर क्यों मचा रही मेरे पास आकर । दादी हँसने लगी और बोलीं- तुमको बताने आई है कि आज वो आने वाला है जिसकी तुम राह देख रही हो । मैंने भी दादी से बोला - अरे दादी ऐसे थोड़ी न होता है । वैसे भी वो तो रविवार से पहले कहाँ आयेंगे । उनका टिकट ही रविवार का है आप भी न दादी । खैर दादी फिरभी अपनी बात पर पूरी तरह आश्वस्त थीं । उन्होंने कहा - तुमलोग ट्वीटर वाली चिड़िया पर ज्यादा भरोसा करती हो और हम इस असली वाली चिड़िया पर । कुछ देर बाद बगिया घूम कर हम लोग घर लौट आये । 


न जाने क्यों बेचैनी हो रही थी , किसी काम मे मन ही नही लग रहा था । मै छत पर जाकर टहलने लगी । तभी दूर से धूल उड़ाता हुआ एक ट्रैक्टर दिखाई दिया । वो सीधा अपने घर की तरफ आ रहा था । मै भाग कर दुआरे पर गई । पीछे से दादी भी बाहर आ गई । थोड़ी देर में ट्रैक्टर घर पर आकर रुका और उसपे से मेरे पतिदेव उतरे । उन्हें देखते ही मेरी आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी और होंठों से बस ये निकला- "हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि आप आने वाले हो । हमे कोयल ने बता दिया था ।" ये सुनकर दादी भी हँस पड़ी और मै भी ।

तरुण कुमार सिंह

(कविराज तरुण)

Wednesday 15 January 2020

ग़ज़ल - मुस्कुराना चाहिए

चार दिन की जिंदगी है मुस्कुराना चाहिए
जो मिले जैसा मिले अपना बनाना चाहिए

खामखाँ क्यों अश्क़ का ये भार पलको पे रहे
थामकर कंधा कोई आँसूँ बहाना चाहिए

फल अगर रसदार हो तो क्या लटककर फायदा
बहतरी तो है उसे अब टूट जाना चाहिए

माजरा ये है नही किसके लिए कब क्या किया
जब जरूरत हो सभी को आजमाना चाहिए

राज क्यों इतने छुपाकर जी रहे हो तुम मियाँ
कम से कम खुद को कभी तो कुछ बताना चाहिए

काम करने को बहुत हैं हो अगर तुझमे हुनर
अपनी किस्मत का लिखा खुद ही मिटाना चहिए

बेवजह जो शोर इतना कर रहे उनको तरुण
इक दफा खामोश रहकर भी दिखाना चाहिए

कविराज तरुण

Saturday 11 January 2020

मुक्तक

[1/11, 20:10] कविराज तरुण: 

दर्द का इल्जाम तुमपर आज फिरसे आ गया
जिसकी किस्मत में लिखा जो वो उसी को पा गया
मै नही कहता मुकम्मल है हमारा इश्क़ ये
सामने तुम आये जब भी तो ये कोहरा छा गया

[1/11, 20:44] कविराज तरुण: 

जो सलीखेवार थे उनको सलीखा अब कहाँ
मुफ़लिसी है इश्क़ में कोई खलीफा अब कहाँ
कितनी कोशिश तुम करो पर मुश्किलों में जीत है
सच्चे आशिक़ को मिले जो वो वजीफा अब कहाँ

[1/11, 20:50] कविराज तरुण: 

कागजी है नाँव फिर भी इक सफर की आस है
बैठ जाने दो उसे जो आज दिल के पास है
जिंदगी का क्या कहें कल शाम मेरी हो न हो
जो मिला है पल यहाँ मेरे लिए वो खास है

ये माना जिंदगी में दुश्वारियाँ बहुत हैं
पर कह दो मुश्किलों से तैयारियाँ बहुत हैं
अरे एक पारी खत्म हुई तो क्या हुआ
आने को अभी तो पारियाँ बहुत हैं

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इश्क़ की बातें मुझे सच्ची नही लगती
क्या करें सीरत तेरी अच्छी नही लगती

बे-ख्याली में कभी आना मेरे साहिब
नींद आँखों में अभी कच्ची नही लगती

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हर एक चीज़ दुनिया से बाँट ली मैंने
बस माँ का प्यार मुझसे बाँटा नही गया
वो हर सामान मेरा अक्सर तोड़ देती है
मै एक बाप हूँ मुझसे उसे डाँटा नही गया

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सामने से रुख हवा का मोड़ देती है
चैन सुख जाने वो क्या क्या छोड़ देती है

मै गमो से घिर न जाऊँ वो करे सजदा
रोज अपनी उम्र मुझमे जोड़ देती है

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ख्वाब अपनी हसरतों के भूल जाता है

कविराज तरुण

शौक के चलते बदनाम हो गये
खास थे मगर हम आम हो गये
यूँ तो पंक्षी बता देते थे हमारा पता
तुम गुम क्या हुए हम गुमनाम हो गये

कविराज तरुण
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08.04.20
दाग दामन पे था दर्द सीने से उठा
तेरा ख़याल आज फिर पीने से उठा
तूने जब ये कहा कि मुझपर भरोसा नही
सच कहूँ यार भरोसा जीने से उठा

कविराज तरुण
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11.04.20

खतरा तो नही है पर एहतियात जरूरी है
घर से निकलो तो फिर कागजात जरूरी है

ये इश्क़ घनी धूप में भला कैसे किया जाये
जज़्बात का तो ठीक मगर बरसात जरूरी है

कविराज तरुण
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12.04.20
वो जो बोलता है सबकुछ तो सच नही है
पर मेरी नजर में वो गुनहगार अबतक नही है

हो सकता है मजबूरी या कोई और वजह हो
या मेरी गलतफहमी ने पाई अभी हद नही है

कविराज तरुण

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कुछ गलतफहमी भी रहने दो
नही क्लियर करो सबकुछ

बहुत कुछ कर लिया तुमने
नही डिअर करो अबकुछ

कविराज तरुण
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03.05.2020
बाग से उखाड़कर गुलाब ले गए
तुम गए तो जिंदगी के ख्वाब ले गए

इसतरह बताओ कौन रूठता भला
तुम हमारे प्यार का हिसाब ले गए

कविराज तरुण
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06.05.2020

मेज पर रखी मेरी उस डायरी में तुम
उस रजिस्टर पर हुई सब हाजरी में तुम

जब भी लिखता हूँ तुम्हे ही सोचकर लिखता
आज भी महफूज़ हो हर शायरी में तुम

कविराज तरुण

लड़खड़ाया हूँ मगर फिर भी खड़ा हूँ मै
देश तेरे वास्ते फिर से लड़ा हूँ मै

जो ये कहते थे सुनो जिद छोड़ दो अपनी
आज उनके सामने जिद पे अड़ा हूँ मै

कविराज तरुण

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12.05.2020

आँखों मे गुमशुदा हैं
जज़्बात आज फिर से
काटे से न कटेगी
ये रात आज फिर से

कैसे मै भूल जाऊँ
नज़दीकियों को तेरी
होने लगी है बाहर
बरसात आज फिर से

कविराज तरुण
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15.05.2020

हर बात पे हैरां हो जाती हो
हँसती हो पर घबराती हो

चहरे पर जो नूर खिला है
कह दो कहाँ से वो लाती हो

कविराज तरुण
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२३.०५.२०२०  १८:४४
हारी हुई बाजी के दाँव दूंढने चलो
आओ आज फिरसे मेरा गाँव दूंढने चलो

बहुमंजिला इमारतों से धूप आ रही बड़ी
आओ ज़रा पीपल की छाँव दूंढने चलो

कविराज तरुण

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२४.०५.२०२०   २३:३६

रात मे अक्सर कई सवाल पूछे जाते हैं
चाहने वालों के हाल-चाल पूछे जाते हैं

ठीक नही है तेरा यूँ खामोश हो जाना
अपने बिस्तर मे चुपचाप ही सो जाना

जो भी हो मगर दिल के मलाल पूछे जाते हैं
रात मे अक्सर कई सवाल पूछे जाते हैं


कविराज तरुण
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२५.०५.२०२०।   ११:२९
वो अक्सर मेरे प्यार को इग्नोर करती है
ज़रा ज़रा सी बात पर ही शोर करती है
मै रूठूँगा नही शायद इसका इल्म है उसे
तभी वो लड़ाईयां बड़ी घनघोर करती है

कविराज तरुण
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२५.०५.२०२०।  २२:४५
करना ये अपनी बात ज़रा इत्मिनान से
बैठे हैं लोग-बाग तेरे खानदान से

इनकी दुआ मे साफ झलक मतलबी दिखे
खतरा तुम्हे तो आज भी है पासबान से
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तेरे बताये रस्ते पर ही
तुझसे मिलने जाता हूँ
लेकिन तुम न मिलती हो तो
खाली वापस आता हूँ

मुझे पता है तुम मुझसे अब
मिलने से कतराती हो
जाने ऐसा पत्थर दिल तुम
उठा कहाँ से लाती हो
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जो भी मेरी मुश्किल थी सब तुमसे मिलकर दूर हुई
देखो बंधन की बेड़ी ये कैसे चकनाचूर हुई

अलसायी आँखों से बादल बरसे तेरे नाम के
और मेरे लफ़्ज़ों की फितरत पलभर में मशहूर हुई
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[5/25, 23:40] कविराज तरुण: सच मे तुमको पाकर अब मै तुमको खोने से डरता हूँ
कुछ भी कह लो मुझको तेरे चुप होने से डरता हूँ

खुद की फिक्र नही है मुझको लापरवाह हूँ मनमौजी हूँ
पर तेरे सोने से पहले खुद सोने से डरता हूँ
[5/25, 23:48] कविराज तरुण: काले साये अक्सर मेरे साथ चला करते थे
घनी धूप में वो भी मुझसे दूर हो रहे हैं

अपनों की बस्ती में अब जाने से डर लगता है
और सभी कहते हैं हम मशहूर हो रहे हैं
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मुझको तेरी आँखों ने प्यारा सा अहसास दिया
मुझसे मिलकर चार हुईं और दिल को मेरे पास दिया
अब मै इन आँखों को कैसे रोने दूँ तन्हाई मे
जिसने मेरे जीवन को मकसद इतना खास दिया

कविराज तरुण

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Tuesday 7 January 2020

मै कुछ बोलूंगा

मै कुछ बोलूँगा तो गद्दार हो जाऊँगा
तमाम दलीलों का हक़दार हो जाऊँगा
जो लोग मुझे मानते हैं खुद से भी ज्यादा
उन्ही की आँखों में गुनहगार हो जाऊँगा

Sunday 5 January 2020

ग़ज़ल - गुजार लीजिये

जिंदगी ये प्यार से गुजार लीजिये
चाँद की कभी नजर उतार लीजिये

कौन कब कहाँ मिलेगा किसको क्या पता
एक बार जोर से पुकार लीजिये

साहिलों को है पता बहाव तेज है
कश्तियों की खामियाँ सुधार लीजिये

जो मिला है आपका है या खुदा का है
हो सके तो ये तनिक विचार लीजिये

वक़्त कब रुका कहीं किसी के वास्ते
जो समय मिला 'तरुण' निखार लीजिये

कविराज तरुण