Saturday 30 April 2016

लखनवी पहचान

बड़ी अदब से आदाब करना
नज़ाकत से हर ख्वाब भरना
लफ्ज़ हििंदी के उर्दू ज़ुबानी
है शराफ़त की जिसमे निशानी
ये शहर ज़नाब तहजीबो का है
इसका हर रिवाज़ तमीजों का है
इसकी विरासत मे मोहब्बत पनहगार है
जंग-ए-आज़ादी में ये मददगार है
सहेज़ रखा है इसने कला का खज़ाना
लज़ीज़ है यहाँ की हर थाली का खाना
राजनीति ने सदा इसको दिल मे बसाया
अटल राज से लेकर यादव की माया
शुकून का आलम है उम्मीदों का असर है
हर मज़हब साथ चलते हैं ऐसा शहर है
रुपहले पर्दे ने नवाज़ी है इसकी फिदरत
इसकी मिट्टी से है हर शायरी को मोहब्बत
नवाबो की शानोशौकत उमराव की जान
लखनऊ है सभ्यता की अज़ब पहचान

कविराज तरुण

Sunday 24 April 2016

ग़ज़ल चाँदनी रात

निशा को भी रोशिनी की जरुरत होगी
चाँदनी रात में कब तुमसे मोहब्बत होगी
अब तो खोजती है कश्ती भी साहिल का पता
माना पहले उसे इन लहरों की हसरत होगी
निशा को भी रोशिनी की जरुरत होगी
चाँदनी रात में कब तुमसे मोहब्बत होगी

उगा के फूल अरमानों के अपने गुलशन में
दिये जला के बैठा हूँ कबसे चिलबन में
ये घटा बरसी थी कई रोज जमाने के लिए
अपनी आँखों से भिगोया है फ़र्श आँगन में
अबके बारिश में संग भीगने की चाहत होगी
चाँदनी रात में कब तुमसे मोहब्बत होगी

मुख़्तसर सी थी तमन्ना अब वो भी न रही
बात होने लगी बेवज़ह जो हमने न कही
तुम दुनियां की घनी भीड़ की सुनते ही रहे
ग़लत तो होना ही था करूँ कितना भी सही
जाने कब दिल में तेरे इन बातो की बगावत होगी
चाँदनी रात में कब तुमसे मोहब्बत होगी

कविराज तरुण

Friday 8 April 2016

बीत हुआ कल

छुपी हुई देखी तेरी नजरो में एक मोहब्बत,
कुछ अधूरे से उसमे अनकहे ख्वाब भी थे ।
काँटो की चुभन का दर्द था बेशक,
पर किसी कोने में महकते गुलाब भी थे ।
है यकीं हमें इस अँधेरे से बाहर ,
किसी की दुनियां के तुम आफताब भी थे ।
आज खुद के सवालो में गुम हो ,
कभी हर पहेली के तुम जवाब भी थे ।
उम्र दर उम्र बीते लम्हों पर मुस्कुराते ,
तुम हसीं ग़ज़ल की पहली रियाज़ भी थे ।
यूँ समेट रहे हो अपने दिल के पन्ने ,
कभी किसी के लिए पूरी किताब भी थे ।

कविराज तरुण

रूपवर्णन

जब भी देखता हूँ तेरे आँखों की गहराई में
वो बहका समंदर जिसमे डूबने को जी चाहता है
क्या रखा है आखिर इस दुनिया पराई में ।
इन पलकों की मासूमियत सी अदा
अधरों पर अर्क गुलाबी सा नशा
जो बुदबुदाते हैं तो झरती स्वरांजलि
जैसे बागों में नवपुष्प की कलियाँ खिली
भीगे केशों का बिखर के चेहरे पर आना
सुर्ख गालो का जैसे स्वतः भींग जाना
और होंटों से टपकते पानी की आहट
पी जाए कोई तो मिल जाए जन्नत
भीगी गर्दन से जवाँ हुस्न की नमी दिख गई है
भाँप बनकर हवाओं में ताजगी बिक गई है
केशो की बूँदों से तेरे सीने पर सावन
संग तुम्हारे इन नजारों की दास्ताँ लिख गई है
तेरे यौवन से मादक महक आ रही है
जिसको मिल जाए उसको खबर क्या सही है
चुन चुन के उभारा है हर बदन का कोना
इससे बेहतर कोई जग में मूरत नहीं है
जिस्म जैसे तराशी हुई एक गागर
रस इतना कि कम पड़ जाए सागर
उसमे अदाओं की ऐसी मिलावट
गीले लबो पर जैसे कोई मुस्कराहट
सर से पाँव तक तू एक अप्सरा है
खबर क्या तुझे कि तू चीज क्या है
शायर की ग़ज़लें सारंगी की सरगम
चातक का मोती नदियों का संगम
तू दिलकश हसीं तू है नाजिमी
दिल का बहकना तो हो गया लाजिमी
पर हक़ीक़त में तू जिस्म का है खज़ाना
तेरे हुस्न का रब भी होगा दीवाना ।

कविराज तरुण