Tuesday, 25 July 2017

ग़ज़ल 19- कहानी ढह गई

ग़ज़ल - कहानी ढह गई
2122 2122 212

दरमियां बातें जुबां जो सह गई ।
बन खलिश वो आंसुओं सी बह गई ।।

जब उकेरा आसमां पर ये निशां ।
शक्ल तेरी इस जमीं पर रह गई ।।

आरजू जीने समझने का हुनर ।
उम्र ये गुजरी कहानी ढह गई ।।

हम मिले कुछ पल जमाना जल गया ।
और फिर नींदे हवा में लह गई ।।

सिलसिला ये चल पड़ा था जब तरुण ।
होंठ तेरी बद-जुबानी कह गई ।।

कविराज तरुण सक्षम

Monday, 24 July 2017

ग़ज़ल 18- हसीं हादसा

ग़ज़ल - हसीं हादसा
२१२२ २१२२ २१२

"रंग सब मुझमे फ़ना सा हो गया ।
जब हसीं ये हादसा सा हो गया ।।

इश्क़ की आदत मुझे जबसे हुई ।
मै जुदा सा वो खुदा सा हो गया ।।

आँख झुकती अब नही दरपेश मे ।
शाम में शामिल शमा सा हो गया ।।

अब न पूछो हाल क्या अब हाल है ।
ख़्वाब में मिलना अदा सा हो गया ।।

लाज़िमी था बर्फ का गिरना तरुण ।
गर्म साँसों का धुआँ सा हो गया ।।

-कविराज तरुण✍
साहित्य संगम संस्थान


ग़ज़ल 16- बुलाया है मुझे

ग़ज़ल - बुलाया है मुझे
2122 2122 212

फिर वफ़ा का नूर छाया है मुझे ।
चौक पर उसने बुलाया है मुझे ।।
हर घड़ी करता फिरा था इंतज़ा ।
उस खुदा का गौर आया है मुझे ।।
ताल सुर से ही गया था मै बिदक ।
राग फिर तूने सिखाया है मुझे ।।
चल रहा था भीड़ में तनहा मगर ।
साथ में अपने उड़ाया है मुझे ।।
रोशिनी आने लगी है ज़र्द से ।
बादलों ने खुद बताया है मुझे ।।
हर्फ़ ये निकले हैं' जिसकी अर्ज़ पर ।
उस हसीं ने खुद सिखाया है मुझे ।।
वक़्त तेरा फैसला अब मै करूँ ।
कितने' दिन तूने नचाया है मुझे ।।
धुंध थी जो छट गई वो प्यार मे ।
इस तरह से आजमाया है मुझे ।।
था गमो की ढ़ेर पर बैठा तरुण ।
उस फलक पर अब बिठाया है मुझे ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Saturday, 22 July 2017

ग़ज़ल 15- दिलरुबा

ग़ज़ल - दिलरुबा
बहर- 2212 2212 2212 2212

ये प्यार की तन्हाइयां , आघात बनकर दिलरुबा ।
शामिल हुई जहनो जिगर , नगमात बनकर दिलरुबा ।।

थी साहिलों की सोच ये , कश्ती भँवर के पार है ।
आई कहाँ तूफ़ान सी , बरसात बनकर दिलरुबा ।।

बेशक मिलन मुमकिन नही , तेरा मिरा ये जानते ।
होंठो पे' आई फिर भी' क्यों , जज़्बात बनकर दिलरुबा ।।

कहते सुना है आशिक़ी , जन्नत ख़ुदा का नूर है ।
इन दिलजलों से पूछना , तुम रात बनकर दिलरुबा ।।

संगीन था ये जुल्म तुमने , मुखबिरी की जब तरुण ।
हद से बुरे तब कर दिये , हालात बनकर दिलरुबा ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
साहित्य संगम संस्थान

ग़ज़ल 17- खबरदार चीन

ग़ज़ल - खबरदार चीन
बहर - २२१२ २२१२ २२१२ २२१२

जहनो जिगर की आग से वाक़िफ़ नही असरार तू ।
माफ़ी मुहब्बत प्यार के बिलकुल नही हकदार तू ।।
चीनी पता क्या घोलते हैं हम यहाँ पर चाय मे ।
दो चुस्कियों में हो हज़म बेशक यही किरदार तू ।।
क्यों बात बेमतलब करे ऐसी अकड़ किस काम की ।
हम तोड़ते हर सोच वो जिसका असल आधार तू ।।
चल छोड़ पीछे जो हुआ भाई बनाकर साथ मे ।
खंजर चुभा कर पीठ मे जीता मगर है हार तू ।।
मुमकिन नही है अब तिरा यूँ सामना करना मिरा ।
कहना तरुण का मान लो वर्ना ख़तम इसबार तू ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'


Wednesday, 19 July 2017

ग़ज़ल 13-ज़माना हो गया

2212 2212 2212 2212

फिर नाम मेरा साहिबा वर्षों पुराना हो गया ।
गुजरे हुये दिल की जमीं से अब जमाना हो गया ।।

कुछ कम न थी ये चाहतें ,कहते सभी थे ये मगर ।
बातों ही' बातों मे रफ़ू सारा फ़साना हो गया ।।

थी मंजिले था कारवां भी ,तुम नहीं थे हम नही ।
वो दौर ही कुछ और था जो अब बहाना हो गया ।।

मैंने लिखा फिर नज़्म मे कतरा लहू का घोलकर ।
तेरी जुबां की चासनी मिलकर तराना हो गया ।।

चल छोड़ उसको तू तरुण जो गैर की चाहत हुई ।
बहकी घटा को देखकर क्यों यूँ दिवाना हो गया ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Thursday, 13 July 2017

ग़ज़ल 7-मुहब्बत करेंगे

122 122 122

नही हम शिकायत करेंगे ।
नही फिर बगावत करेंगे ।।

नज़र को झुकाकर के' यूँही ।
फ़क़त हम इबादत करेंगे ।।

ज़माना फरेबी है' माना ।
वफ़ा की हिमायत करेंगे ।।

जमीं पर बिछाकर सितारे ।
गुलिस्तां नियामत करेंगे ।।

तरुण नाम प्रेमी सदा मै ।
अदब से मुहब्बत करेंगे ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

दामाद

दामाद

अगर ससुराल में दामाद है
तो ये भी एक विवाद है
कुछ दिन तो विलायती उर्वरक सा
बाद में गोबर की खाद है
अगर ससुराल में दामाद है

पत्नी को तोहफा दिया
तो साली उदास है
साली को तोहफा दें तो
फिर पत्नी नाराज है
तंखाव्ह का हाल न पूछो
बड़ा गड़बड़ सारा हिसाब है
अगर ससुराल में दामाद है

उधर सासू की तबियत का
बीवी देती है उल्हाना
साले के खर्चे का फ़र्ज़
अक्सर पड़ता है निभाना
और आइसक्रीम खाने में
यहाँ हर कोई उस्ताद है
अगर ससुराल में दामाद है

सास खुश तो ससुर दुखी
ससुर खुश तो साला परेशान
साला खुश तो साली हैरान
साली खुश तो बीवी व्यवधान
सबको खुश रखने के चक्कर मे
जिंदगी हो गई बर्बाद है
अगर ससुराल में दामाद है

कविराज तरुण 'सक्षम'

Wednesday, 12 July 2017

सहायता

सहायता

वो मजबूर है
बेसहारा भी है
कुछ समाज का कसूर है
वो किस्मत का मारा भी है

नही मिला परिवार का सुख
पैदा हुआ तो माँ भी चल बसी
उसकी झोली में आता रहा दुःख
मिल न सकी एक अरसे से ख़ुशी

ऐसा नही है उसने कोशिश नही की
घरों में बर्तन धोये
साईकिल के पंचर लगाये
ढाबे पर कई बार गालियां सुनी
जख्म कई बार बारिश में पकाये
वो लड़ता रहा
खुद से भी खुदा से भी
पेट भर लेता था
कभी कभी हवा से भी

अब वो चाहता है सबकुछ बदलना
सीख गया है अपने पैरों पर चलना
खोज लिया है उसने काम को
बढ़ाने चला है अपनी दुकान को

दुकान जिसमे सजाता है
मिट्टी के खिलौने
सोचता है हो जायेगा सफल
जगता है रोज सपने बोने

पर

फिरभी तिरस्कार
मिट्टी के दियों की किसे दरकार
दिवाली भी आ कर चली जाती है
चाइनीज़ बत्ती से उम्मीदें हार जाती हैं

वो सोचता है आखिर
उसकी क्या है खता
क्यों लोग खरीदकर
करते नही उसकी सहायता

कविराज तरुण 'सक्षम'

Sunday, 9 July 2017

गाना तेरी चाल (चाल तुरु तुरु की तर्ज पर)

गाना तेरी चाल (चाल तुरु तुरु की तर्ज पर)

तेरी चाल मध्धम मध्धम
खुलते बालों के बंधन
लट गालों पर आ बिखरी
करे घास में किलोलें
अहि कानन में डोले
नभ सूरज की हुई रोशिनी (2)

न कोय तुमसा है हसीं
झलक मिलेगी क्या कहीं
बोले तो दिल को हो ख़ुशी
घोलो लबों से रस यहीं

मीठी बोली सी भाषा
कुछ और नहीं भाता
सुनके कानो में स्वर रागिनी
करे घास में किलोलें
अहि कानन में डोले
नभ सूरज की हुई रोशिनी

सोचे जो मुझसे बोले न
लबों की डिबरी खोले न
नज़रें ज़रा भी फेरे न
शर्मो हया को तोड़े न

हो ऐसे काम न चलेगा
कुछ तो कहना पड़ेगा
अजी छोड़ो भी ये दिल्लगी
करे घास में किलोलें
अहि कानन में डोले
नभ सूरज की हुई रोशिनी

तेरी चाल मध्धम मध्धम
खुलते बालों के बंधन
लट गालों पर आ बिखरी
करे घास में किलोलें
अहि कानन में डोले
नभ सूरज की हुई रोशिनी

कविराज तरुण सक्षम

ग़ज़ल 9- हमसफ़र चाहिये

बहर -212 212 212 212

हाँ मिरी जिंदगी को बसर चाहिये।
आप जैसा को'ई हमसफ़र चाहिये ।।

ताश के ढ़ेर ये कह रहे आजकल ।
जोड़ दो अब मुझे एक घर चाहिये ।।

ख़्वाब आने लगे जो हुई आशिक़ी ।
नींद आँखों में' अब तो ख़बर चाहिये ।।

दिल नही जो मिरा धड़कनों की सुने ।
तू इसे रात दिन उम्र भर चाहिये ।।

है तरुण आज शायर तिरे हुस्न का ।
प्यार की राह में अब गुजर चाहिये ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Saturday, 1 July 2017

मै चाहता हूँ

ग़ज़ल - मै चाहता हूँ
१२२ १२२ १२२ १२२
रदीफ़ - चाहता हूँ
काफ़िया - अ स्वर

सुबह कर सके वो किरण चाहता हूँ ।
सबेरे सबेरे ग़ज़ल चाहता हूँ ।।

ये' बनती व मिटती लहर हैं बहुत पर ।
न मिट जो सके वो लहर चाहता हूँ ।।

फिरंगी जो खुद को खुदा कह रहे हैं ।
हक़ीक़त मे' उनकी दखल चाहता हूँ ।।

हवा आज नम खून के भी हैं' छींटे ।
मै' इसमे मुनासिब बदल चाहता हूँ ।।

हुई दूर इंसानियत आज माना ।
दिलों ही दिलों मे पहल चाहता हूँ ।।

फ़िज़ा हो गुलों सी ज़माना हसीं हो ।
हाँ' रंगत भरा वो शहर चाहता हूँ ।।

अदा हो असर ये गुजारिश खुदा से ।
तरुण बात में फिर अमल चाहता हूँ ।।

कविराज तरुण सक्षम