Thursday, 17 May 2018

गीतिका - सम्मान समारोह

२१२ २१२ २१२ २१२

मान सम्मान कर गान गुणगान कर ।
चल रहा है हवन संगमी द्वार पर ।।

जो कलमवीर है वो यहाँ मीर है ।
सूर तुलसी कबीरा हुआ आज घर ।।

चिन्तनों के शिविर काव्य की साधना ।
इक नई रोशिनी मे नहाता शहर ।।

आइये आप भी बैठिये आप भी ।
गीतमाला पहन कर तनिक जा सँवर ।।

दौर इंदौर का इस मई माह मे ।
आपकी राह देखे समूचा नगर ।।

कविराज तरुण

गीतिका - जीत है

२१२ २१२ २१२ २१२

भाव जो हों प्रबल जीत ही जीत है ।
राह का शूल भी मीत ही मीत है ।।

कल्पना शक्ति का रूप यों है अगम ।
रेत पर बारिशों की चली रीत है ।।

कोशिशों से मिले लक्ष्य के सब निशां ।
ऊष्ण के बाद आती लहर शीत है ।।

जो स्वयं का नही सर्व का हो गया ।
जिंदगी ये सरस बन गई गीत है ।।

जब चला वीर वो सिंह की गर्जना ।
सामने भय हुआ आज भयभीत है ।।

मोम सा है हृदय अंग है लौह सा ।
भारती के लिये प्रीत ही प्रीत है ।।

*कविराज तरूण 'सक्षम'*

Wednesday, 16 May 2018

गीतिका - विवाह गीत

२१२ २१२ २१२ २१२

ढ़ोल की गूंज से घर सजा साजना ,
प्रीत के रंग में सब रँगा साजना ।

पास में ये सखी आज कहने लगी ,
चाँद सा खूब ही जँच रहा साजना ।

नैन को चैन अब हो सके तो मिले ,
स्वप्न की ही तरह आ गया साजना ।

पुष्प सा मन हुआ आगमन जब हुआ ,
गीत की धुन चली नाचता साजना ।

रश्म के रूप में जुड़ रहे दिल यहाँ ,
जल गया अब मिलन का दिया साजना ।

कविराज तरुण

गीतिका - बसाया नही

२१२ २१२ २१२ २१२

आपने तो हृदय मे बसाया नही ।
प्रेम की शर्त को भी निभाया नही ।।

पर मेरा प्यार तुमसे बना ही रहा ।
कोय भी और मुझको तो भाया नही ।।

देख कर रूप तेरा समंदर कहे ।
चाँद ने रूप ऐसा भी पाया नही ।।

प्रीत के राग छेड़ो कभी तो प्रिये ।
प्यार है शक्ति ये मोह माया नही ।।

तुम लुटाकर के देखो खजाना ज़रा ।
प्रेम की राह मे कुछ भी जाया नही ।।

कविराज तरुण

Tuesday, 15 May 2018

ग़ज़ल 96- वो निकला

1212 1122 1212 22

बला का हुस्न दिले खाकसार सा निकला ।
वजूद उसका यकीनन गुबार सा निकला ।।

जिसे गरूर बड़ा मै मिलूँगा चौखट पर ।
मेरी गली वो सनम बेकरार सा निकला ।।

यकीं नही है मुझे पर यही हक़ीक़त है ।
चुना करोड़ो जिसे वो हज़ार सा निकला ।।

चिराग-ए-इश्क़ तेरी लौ जले बता कैसे ।
हवा उड़ाते हुये वो बयार सा निकला ।।

ये गम नही कि जिगर हो गया मेरा छलनी ।
यही मलाल तरुण वो कटार सा निकला ।।

कविराज तरुण

गीतिका - बावरे

गीतिका
आधार छंद -वाचिक स्रग्विणी

२१२ २१२ २१२ २१२

श्वान के भाल होते नही बावरे ,
सिंह के सामने सब सही बावरे ।

वीरता स्वयं ही राह अपनी चुने ,
वेद भी कह गये हैं यही बावरे ।

शक्ति है कल्पना कर्म की साधना ,
दूध के ही बिना क्या दही बावरे ।

सूक्ष्म को दिव्य कर दीर्घ कर दृश्य कर ,
चींटियां आज फिर कह रही बावरे ।

कविराज तरुण

गीतिका - रोने लगा

गीतिका
आधार छंद -वाचिक स्रग्विणी

२१२ २१२ २१२ २१२

वेदना से हृदय आज रोने लगा ,
कंठ व्याकुल गला शुष्क होने लगा ।

भाव भीतर भये कष्ट की कालिमा ,
पाँव पाथर पथिक पंथ खोने लगा ।

पुष्प की डालियां शूल की बालियां ,
बाग़ मुरझा गया घास बोने लगा ।

है सजल नेत्र ये मर्म का क्षेत्र ये ,
पंखुड़ी सी पलक नित भिगोने लगा ।

डूब कर प्रेम में चंचला मन चला ,
रूप का फूल ये तन पिरोने लगा ।

हिय हमारा हरा ही हरा हेरता ,
अंध सावन हरे में डुबोने लगा ।

कविराज तरुण

Monday, 7 May 2018

पटल विस्तार

[4/30, 16:10] कविराज तरुण: *ये समाज*

संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज
क्या कहूँ कि कितना प्रबुद्ध है ये समाज

दोस्त ज्यादा है हमदर्द कम हैं
मन की बारिश है आंख नम है
झूठ फरेब और चपलता की हद है
जो मतलबी उसी का ऊँचा कद है

धन मान सम्मान फेसबुक टिंडर ट्वीटर
सब तो है पर वक़्त कहीं खो गया है
उसने माँ बाप के पैर छूने बंद क्या किये
सब कहते हैं बेटा अब बड़ा हो गया है

जो बड़ी शिद्दत से गर्लफ्रेंड को गिफ्ट दिलाता है
वो अपनी माँ का बर्थडे अक्सर ही भूल जाता है
फ़िक्र तो बस व्हाट्सएप के संदेशो में कैद है
काले से काला कृत्य भी अब तो दूध सा सफ़ेद है

आकलन कठिन कितना अशुद्ध है ये समाज
संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज

पीठ में खंजर द्वेष ईर्ष्या जलन सब अंदर ही अंदर
निर्मम अमानवीय अशोभनीय व्यक्ति का आडंबर
सबकुछ असत्य सब कुछ षडयंत्र
बैठा हर मनुष्य में विषधर भुजंग

कहीं रक्षक भक्षक कहीं राजा ही चोर
भगवान के नाम पर कुकृत्य घनघोर
नफरत की असीम सत्ता धर्म जाति के नाम
करती रही समाज में मानवता को बदनाम

कोई दया भी करता है तो अहसान देकर
कोई अहसान भी करता है तो हिसाब लेकर
अपना हित साधने में लगे हुए भागती जनता
जिनके बेसब्र सपनों का घर कभी नही बनता

एक दूसरे के प्रति कितना क्रुद्ध है ये समाज
संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज

कविराज तरुण 'सक्षम'
[5/1, 17:18] कविराज तरुण: जलतरंग का कलकल करता स्वर
नीले दर्पण में लालिमा का प्रादुर्भाव
जिसमे स्वर्ण सा चमकता सूर्य का रूप
और आशा की किरण का असीम प्रभाव

खगस्वरों से गूंजित संपूर्ण वायुमंडल
पानी में पुष्प का बिखरता स्वभाव
जिसमे तरु-पल्लव का निःस्वार्थ समर्पण
जैसे तैरती है नदी में बहकी हुई नाँव

इन्ही संवेदनाओं की अतुलित भाव भंगिमा
जब कागज़ पर उतरकर उदघोष करती है
तब उदित होता है एक नवीन प्रकाश
कलम नए जोश में तब प्राण भरती है

इन्ही भावों का प्रमाण है अभ्युदय काव्यमाला
इन्ही विचारों का प्राण है अभ्युदय काव्यमाला
[5/7, 18:31] कविराज तरुण: विषय - विकास

हे विकास तुम पुण्य प्रतापी
जन जन का उत्थान करो ।
सुनो ज़रा एक विनती है
हो सके तनिक तुम ध्यान धरो ।।

कब विकास होगा मन का
कब भेद मिटेगा जीवन का
कब धर्म जाति से ऊपर होगा
हर कोना घर के आँगन का

साधन के बढ़ते कर्कश मे
हमें सुनाई देगा क्या
योग बिना जीवन दुर्लभ है
हमें दिखाई देगा क्या

हम विकास को तौला करते
घर गाड़ी सड़क तिजोरी में
वो उतना विकसित है दिखता
जितना पैसा जिसकी बोरी में

पर संतो की अतुल्य धरोहर
चिंतित है कितनी व्याकुल है
जो जोड़ी मूल्यों की पाई पाई
जाने कौन दिशा गुल है

आत्मबोध से परे हैं हमसब
सभ्य आचरण खंडित है
जो उपदेश थोक में देता
वही हमारा पंडित है

हे विकास तुम पुण्य प्रतापी
आशा की किरण प्रदान करो ।
सुनो ज़रा एक विनती है
उज्ज्वल भावों के प्राण भरो ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
9112291196

Thursday, 3 May 2018

सुपर शायरी

1 . तुम रस्ते से गुजर जाती हो , हम रह रह के आह भरते हैं ।
तुम प्यार क्यों नही करती , हम बेपनाह करते हैं ।

Wednesday, 2 May 2018

ग़ज़ल 95 - श्रमिक

विषय - श्रमिक

श्रमसाध्य अपने ये दिवस कुछ यूँ बिताता है श्रमिक ।
इस धूप मे थक हार कर घर लौट आता है श्रमिक ।।

दो जून की रोटी मिले सपना यही उसका सुनो ।
इन होटलों को देख मन मे मुस्कुराता है श्रमिक ।।

रिक्शे के पैडल मारकर पाँवों पड़े छाले मगर ।
बच्चों से अक्सर बात ये हँसकर छुपाता है श्रमिक ।।

इस भूख से उसकी लड़ाई है पुरानी सी बहुत ।
वो पेट पर ही बाँध कपड़ा जीत जाता है श्रमिक ।।

मासूम भूखे सो न जायें है यही चिंता उसे ।
सौ ग्राम ही हो पर वो सब्जी रोज लाता है श्रमिक ।।

मजदूर अपनी हसरतों से दूर इतना वो हुआ ।
खुशियाँ अगर मिल जाये तो फिर मुँह चुराता है श्रमिक ।।

बेकार बातें ये सियासत क्या भला कोई करे ।
उम्मीद के इस दौर मे ये बुदबुदाता है श्रमिक ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
9112291196

Tuesday, 1 May 2018

अभ्युदय काव्यमाला

*अभ्युदय काव्यमाला*

जलतरंग का कलकल करता स्वर
नीले दर्पण में लालिमा का प्रादुर्भाव
जिसमे स्वर्ण सा चमकता सूर्य का रूप
और आशा की किरण का असीम प्रभाव

खगस्वरों से गूंजित संपूर्ण वायुमंडल
पानी में पुष्प का बिखरता स्वभाव
जिसमे तरु-पल्लव का निःस्वार्थ समर्पण
जैसे तैरती है नदी में बहकी हुई नाँव

इन्ही संवेदनाओं की अतुलित भाव भंगिमा
जब कागज़ पर उतरकर उदघोष करती है
तब उदित होता है एक नवीन प्रकाश
कलम नए जोश में तब प्राण भरती है

इन्ही भावों का प्रमाण है अभ्युदय काव्यमाला
इन्ही विचारों का प्राण है अभ्युदय काव्यमाला

कविराज तरुण 'सक्षम'