Saturday, 27 December 2014

घर नही आये

वो भी किसी माँ के बेटे होंगे ।
उनके आँसू कभी आँचल ने लपेटे होंगे ।
उनकी ऊँगली वालिद ने थामी होगी ।
उनके घर मे भी मौसी और मामी होगी ।
जाने किसने सबक वैहशी ये सिखाया उनको ।
अपनी माटी का नमक याद ना आया उनको ।
खून के छींटे भी उनको नज़र नही आये ।
स्कूल गए थे वो बच्चे घर नही आये ।
दनादन गोलियाँ मासूमो पर बरसाई कैसे ।
चीख उनकी इनके कानो तक ना आई कैसे ।
उनकी आवाज़ मे रहम की गुजारिश ना देखी ।
या उनकी निगाहों मे आँसुओं की बारिश ना देखी ।
या दिल था पत्थर का या हैवान थे वो ।
मुझे यकीन है नही ज़रा भी इंसान थे वो ।
इतनी बेदर्दी से किसी ने कहर नही ढाये ।
स्कूल गए थे वो बच्चे घर नही आये ।

कविराज तरुण

मै

मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।
कितना भी बुला लो मुड़ के ना देख पाउँगा ।
आँसू बहेंगे दर्द भी होगा
सूनी रातो मे मेरा हमदर्द ना होगा
तन्हा रहूँगा अकेला रहूँगा
तुम कितना भी पूछो कुछ ना कहूँगा
याद कितना भी करूँ पर नही मै बताऊंगा ।
मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।
बहुत दिल लगाकर मोहब्बत करी है
नब्ज़ जितनी चली बस इबादत करी है
तेरी खुशियों को खुदा से बढ़कर ही माना
साथ तेरा दिया कुछ भी कह ले ज़माना
बिन कहे बिन सुने यही दोहराऊंगा।
मै चला गया तो वापस नही आऊंगा ।

कविराज तरुण

Friday, 26 December 2014

व्यर्थ है जीवन

कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।
कभी किसी का हो न सका
अनर्थ है जीवन ।
कभी खुद की नादानियों से
कभी छोटी मोटी बेइमानियो से
कभी अपनी हरकतों से हँसाकर
जाने अनजाने तुझको रुलाकर
अपनी नासमझी मे
बर्बाद किया यौवन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।
हम ना सो जाए कहीं
इसलिए पलकों को जगाये रखा
वो ना आ जाए कहीं
इसलिए दामन को बिछाये रखा
इन्तेहा नही थी मेरी चाहत की
वो ना घबराये कही
इसलिए अश्कों को छिपाये रखा
उनकी खुशियों को नज़र ना लगे
यही सोचकर इन नज़रों को झुकाये रखा
पतझड़ स्वीकार है अगर
उन्हें मिले सावन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।

कविराज तरुण

Thursday, 25 December 2014

आयतें इश्क की

तुम बोलती रहो मै सुनता रहूँ ।
प्यार की तह्मते यूँही बुनता रहूँ ।
तुमसे अलग कुछ भी सोचा नही ...
आयतें इश्क की यूँही लिखता रहूँ ।।
चल ज़रा साथ चल
ना इधर ना उधर
ये बता दिल तेरा
मुझको सोचे अगर
तो भला क्या मेरा
प्यार आये नज़र ।
तू हसीं मै नही
और अदा लाज़मी
मंद मुस्कान है
और लबों पर नमी
तू सुबह ओस की
अब्र सी सादगी ।
छू के देखूँ तुझे या मै तकता रहूँ ।
पास आऊ तेरे या भटकता रहूँ ।
शाम की शबनमी वादियां कह रही ...
आयतें इश्क की यूँही लिखता रहूँ ।।

कविराज तरुण

Monday, 15 December 2014

तिरंगा झलक रहा

इस ओर तिरंगा झलक रहा ।
उस ओर तिरंगा झलक रहा ।
सरहद के काँटो से देखा
सब ओर तिरंगा झलक रहा ।
तुम दिल्ली पर आँख गड़ाए हो
यहाँ लाहौर तिरंगा झलक रहा ।
सियाचीन की बर्फ पे चढ़कर देखा
घनघोर तिरंगा झलक रहा ।
तुम साजिश करके हार गये ।
आतिश बाज़ी करके हार गये ।
भारत का बाल नही उखड़ा
हर कोशिश करके हार गये ।
सावधान पड़ोसी मेरे
अब चहुओर तिरंगा झलक रहा ।
रात मे सपने देख लो कितने
पर अब भोर तिरंगा झलक रहा ।
इस्लामाबाद की धरती पर फिरसे
है शोर तिरंगा झलक रहा ।
हवा महल से बाहर सच है
कर गौर तिरंगा झलक रहा ।

कविराज तरुण