Sunday, 22 December 2024

ज़रा ईमान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

जरूरी है कि रौनक हो भरे गुलदान हों सारे 
मगर फिरभी कोई कोना कहीं वीरान रहने दो

वो आयेंगे मचाने शोर जिनको है नही परवाह 
जिन्हें परवाह हमारी है उन्हें अंजान रहने दो

उसे तो खेलने दो खेल सारे ही खिलौनों से 
जगाओ मत अभी तो ख़्वाब में अरमान रहने दो

ये मेरी रूह है इसको कहीं पर बेच दो लेकिन
किसी का प्यार से भेजा हुआ सामान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

Sunday, 8 December 2024

दो चार कदम

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं 

वो कौन है जिसकी मलकियत है मंजिल पर 
आओ उसका चेहरा बदल के देखते हैं

ख़्वाब में अक्सर अपना घर बनाने वालों 
हम ख़्वाब देखते हैं तो महल के देखते हैं

दिल को समझा रखा है किस बात के लिए 
दिलवालों के दिल तो मचल के देखते हैं

क्यों चकाचौंध है तेरे वजूद के इर्द गिर्द 
क्यों लोग तुझे आँखें मल मल के देखते हैं

तुम शमा के जैसे रौशन हो शामियाने में 
हम परवाने तेरी आग में जल के देखते हैं

तेरे इंतज़ार में मै रो भी नही सकता
मेरे कुछ यार मेरी पलकें देखते हैं

अब तो दौलत भी किसी काम की नही
गुड्डे गुड़ियों में फिर से बहल के देखते हैं 

कागज़ की नाँव बनाये ज़माना बीत गया 
बारिश है.. नंगे पाँव टहल के देखते हैं

आतिशबाजी है शोर है हिदायत भी है 
पर बच्चे कहाँ तमाशा संभल के देखते हैं

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं

लोग भुला नही पाते

हाल-ए-दिल जो कभी बता नही पाते
टूट जाते हैं वो मुस्कुरा नही पाते 

मै पाँव फैलाना तो छोड़ नही सकता 
भले मेरे पाँव चादर में समा नही पाते

मैं उन झरोखों से बाहर कूद जाता हूँ 
जिनसे मेरे सपनें अंदर आ नही पाते

ये तो उम्र का तकाजा है कि मै चुप हूँ 
वर्ना अच्छे-अच्छे भी चुप करा नही पाते

मुझे याद रखना आसान है बहुत 
दिक्कत ये है कि लोग भुला नही पाते

मुकम्मल

कि मै डोरियों में वो गुजरा ज़माना मोती समझकर पिरोता रहा
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो तन्हाईयों में इबादत करे
या कि बेचैनियों में हिमाकत करे

क्योंकि मुझको यकीं है कि इतनी मोहब्बत 
वो भी इतने दिनों से फकत माह सालों से या कि सदी से
वो भी इस ताज़गी से 
बड़ी सादगी से 
भला कोई कैसे कहाँ से करेगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो मजनू ने लैला की खातिर नही की 
कोशिश जो राँझे ने आखिर नही की

कोशिश जो उन पगडंडियों को बना दे दोबारा जहाँ से मोहब्बत को राहें मिली थीं 
निगाहें मिली थीं जहाँ पे हमारी और क्या खूब बाहों को बाहें मिली थीं

कोशिश, चिरागों से उस आसमां को दिखाना कि इक चाँद है इस जमीं पर 
जिसने सितारों में मुझको चुना था
तेरी स्याह रातों में सपना बुना था 

मगर कुछ वजह ऐसी आई थी शायद 
मोहब्बत को परदे में रखना पड़ा था 
यही लफ्ज़ जाने से पहले कहा था 
और ये भी कहा था मै आऊंगी एक दिन 
तुम्हारे हवाले ये दिन रात करने 
खतम जो ना हो वो मुलाक़ात करने 

यही सोचकर मैंने दिल की इबारत को रखा है महफूज़ इक डायरी में 
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

Tuesday, 3 December 2024

बहुत रमणीक स्थल था

बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
मै गुजरा वहाँ से पर गुजर ना पाया 
कुछ फल लाये थे बैठा और खाया
घास को बिस्तर समझकर मै सो गया 
देखते ही देखते अँधेरा हो गया
फिर मै उठा आनन फानन में जेब टटोली मोबाइल निकाला 
सैकड़ों मिस कॉल पड़ी थी - घर ऑफिस दोस्त यार कुरियर वाला
पीछे मुड़कर देखा तो दो गिलहरी आपस में खेल रहीं थीं 
बड़ा खूबसूरत वो पल था
बहुत रमणीक स्थल था 
खैर! इस पल को कहकर अलविदा 
मै उठा और वापस चल दिया
मन में लाखों सवाल थे कि सबको मै क्या बताऊँगा 
जो ठहराव मैंने आज महसूस किया उसे कैसे जताऊंगा 
चिंता की रेखाएं मेरे माथे पर आ गईं 
खूबसूरत पलों पर जैसे बदली छा गईं 
मै तबीयत का बहाना बनाकर चुपचाप अपने घर में सो गया 
एक रात गुजरी एक नया सबेरा फिर से हो गया 
पर मेरे मन में जीवित मेरा बीता हुआ कल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था

कविराज तरुण