Sunday 4 July 2021

मंज़िल नही मिलती

कभी साहिल नही मिलता कभी मंजिल नही मिलती
मेरे ज़ख्मों को जाने क्यों दवा काबिल नही मिलती

कि उसका नाम लेता हूँ तो अपने रूठ जाते हैं
किसी पत्ते की तरहा रोज सपने टूट जाते हैं

इसी इक बात से हिम्मत जुटा लेता हूँ रातों में
अँधेरों के मुसाफिर को कहीं मुश्किल नही मिलती

ख़फ़ा है या रज़ा है वो मुझे कोई तो बतलाओ
अगर मुझसे तुम्हे मतलब तो फिर उसकी खबर लाओ

बिना उसके लिखूँ मै क्या कहूँ मै क्या करूँ मै क्या
मेरी ग़ज़लें हुईं तन्हा इन्हें महफ़िल नही मिलती

वफ़ा के नाम पर कितने सितम अब और सहने हैं
ज़रा कह दो समंदर से ये आँसूँ और बहने हैं

जहाँ पर कत्ल होता है 'मुहब्बत' का 'मुहब्बत' से
वहाँ किस्से तो मिलते हैं मगर क़ातिल नही मिलती

कविराज तरुण 'सक्षम'
साहित्य संगम संस्थान

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