ग़ज़ल - कलयुग
221 2122 221 212
कल का ग़ुमान मत कर, जो है वो आज है
किसके हवाले कबतक, ये तख़्त-ओ-ताज़ है
अंतिम सफर सभी का होता है एक जैसा
माना अलग तरह का रश्मोरिवाज़ है
हर चीज मे मिलावट हर बात खोखली
कैसे हैं लोग इसके कैसा समाज है
वहशी बना हुआ है जिस दिन से आदमी
उस दिन से जानवर का बदला मिजाज है
कलयुग तुम्हे मुबारक अब रंग-ओ-रोशिनी
फैला जहाँ मे तेरा अब कामकाज है
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