युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
नेत्र से पट्टी हटाकर, दृष्टि खोलो किस तरफ हो
एक तरफ तो फूल की चादर बिछाये झूठ बैठा
एक तरफ काँटों से लिपटा सत्य सबसे रूठ बैठा
एक तरफ ये आधियाँ हैं शोर है तूफ़ान का
एक तरफ ये दीप परिचय दे रहा अभिमान का
तुम अँधेरे और उजाले में टटोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
तुमको दुश्शासन के जैसे चीर हरने की ललक है
या सभा के मध्य तुमको मौन धरने की ललक है
क्या तुम्हें पांडव के जैसे शर्म से बस सिर झुकाना
या तुम्हें कान्हा की तरहाँ द्रोपदी को है बचाना
उस सभा में हो कहाँ तुम? भेद खोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
कर्ण के जैसे तुम्हें कुण्डल कवच का दान करना
या दुयोधन की तरह तुमको अहम् का पान करना
तुम पितामह की तरह चुपचाप सब कुछ देख लोगे
या कि संजय की तरह बस युद्ध का दर्शन करोगे
तुम उचित-अनुचित के भीतर भार तोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
तुम हो शकुनी शल्य हो जरसंध या फिर द्रोण हो
नीति नियम से अपरिचित पात्र आखिर कौन हो
अश्वथामा सा तुम्हें वरदान है क्या ये कहो
तुमको अभिमन्यु के जैसे ज्ञान है क्या ये कहो
या तुम्हें लगता हवा के साथ हो लो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
©कविराज तरुण