नींद से लिपटी ये बोझल आंखें
नींद से लिपटी ये बोझल आंखें ...
और चेहरे पर उदासी भरी ये शिकन |
कुछ तो फरेब कुदरत का ...
कुछ इस दुनिया का सितम ||
न ख्वाबो का दस्तक देना ...
न उम्मीदों की कोई पहल |
बस यूँही गुजरता लम्हा ...
न कोई हरकत न कोई हलचल ||
हवा की नरमी का एहसास नदारद...
न उड़ते पंछी न कोई सरहद |
पानी की छींटे भी न कर सकेंगी ...
खो जाने की खुद में ऐसी है फिदरत ||
बस एक थकान उम्र दर उम्र बढती...
बंद कमरों में सिमटती कदमो की आहट |
झूठी रौनक झूठी दुनिया झूठे चेहरों की मुस्कराहट ...
खुद से पूछो की हम कहाँ हैं ? कहाँ है हमारी जीने की आदत ||
--- कविराज तरुण
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