Sunday 26 January 2020

लघुकथा - कोयल

लघुकथा - कोयल


बस गाँव आने वाला है । लखनऊ जैसे शहर में पली-बढ़ी मै पहली बार ससुराल वाले गाँव जा रही हूँ ,वो भी अपनी सासूमाँ के साथ । साड़ी , घूँघट और सासूमाँ के उपदेश कि 'कम बोलना' , 'नजरें ना मिलाना' , 'बड़ो के पैर छूना' और जाने क्या क्या ? इतनी घबराहट तो तब भी न थी जब शादी के बाद लखनऊ वाली ससुराल आई थी । खैर वहाँ तो कोई रोक-टोक नही थी, पर यहाँ परिस्थितियों के अनुसार ढलना पड़ेगा । लो ये सब सोचते-सोचते खड़ंजे से होते हुए हमारा घर आ गया । 


गाँव की आबादी से थोड़ा हटके एक कोने में आम के पेड़ों के बीच बना ये घर बहुत सुंदर है ,साथ में शानदार दुआरा और सामने बड़ा सा मैदान । दूर से तो ऐसा लग रहा था कि ये एक बड़ा सा बाग है । कार से पैर निकाले ही थे कि लाल रंग से लबालब थाली मेरे पैरों के नीचे आ गई । दादी की आवाज आई - "आज तो लक्ष्मी जी स्वयं पधारी हैं । हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि तुम आने वाली हो जब कोयल शोर मचाये पड़ी थी । बहू! रंग में पैर डुबोकर दहलीज पर पैरों के निशान बनाते चलो ।" वैसे ऐसा करने में अलग सी खुशी भी मिली । 


गाँव वालों को खबर क्या लगी , लोगो के आने का क्रम ऐसा चला कि सारा दिन मुँह-दिखाई मे ही गुजर गया और रात में सासूमाँ ने दादी के पास पैर दबाने और पुण्य कमाने के लिए भेज दिया । मुझे दादी से थोड़ा डर तो लग रहा था पर हिम्मत करके मै उनके कमरे मे गई और पैर दबाने लगी। दादी ने पूछा कि गाँव मे कैसा लग रहा ? मै कुछ जवाब देती लेकिन मुँह से आवाज तक न निकली । दादी बोली - लगता है तुम्हारी सास ने तुम्हे बहुत डरा दिया है पर डरो मत! मै पुराने ख्यालों की नही हूँ । आठवीं पास हूँ और जब ब्याह होकर इस गाँव मे आई थी तो सब मास्टरनी कहते थे । गाँव की पहली शिक्षित बहू । तुम अपनी सहेली समझकर मुझसे बात कर सकती हो । मुझे थोड़ा अच्छा लगा और मैंने एक सवाल पूछ ही लिया - दादी जब मै आई तो आप कह रही थीं कि आपको पहले पता चल गया था, वो कैसे ? दादी जोर से हँसी और बोलीं- दोपहर से तुम्हे ये बात सताये जा रही है । हम व्हाट्सएप वाले जमाने के नही हैं । हमारे समय मे तो चिट्ठी से हालचाल , सूरज के उगने-डूबने से वक़्त और खाने की महक से बनाने वाले का बर्ताव पता चलता था । पेड़-पौधे , पशु-पक्षी और हवायें यहाँ गीत सुनाती हैं । किसी और चीज की जरूरत ही नही है । और ये तुम्हारे आने की खबर तो हमे सुबह कोयल ने ही दे दी थी । कुछ दिन में तुम सब समझ जाओगी । जाओ अब जाकर सो जाओ । सुबह जल्दी उठना तो आम के बाग में चलेंगे । दादी की बातों में इतनी मिठास है कि क्या बोलूँ । मै उठी और अपने कमरे मे सोने चली गई । मै ये तो बताना ही भूल गई कि मेरे पतिदेव और ससुर जी दिल्ली गए हैं । एक घर खरीद रहे हैं उसी सिलसिले में इसलिए हफ्ते भर हम गाँव मे रहेंगे । एक तो फोन में नेटवर्क नही आ रहा इसलिए जगने का कोई फायदा ही नही । सो ही जाती हूँ , वैसे भी सुबह पाँच बजे दादी के साथ आम के बाग में घूमने जाना है ।


यहाँ गाँव मे तो कुदरत खुद आके उठा जाती है । चिड़ियों की चहचहाहट, ठंडी हवा के झोंके और मुर्गे की बाग किसी अलार्म से कम थोड़े न होते हैं । सुबह के चार बजे रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे कि आज पहली बार मैंने शुकून की नींद ली है । इतनी सुबह पहली बार उठी हूँ पर फिरभी बहुत तरो-ताजा महसूस कर रही हूँ । मैंने नहा-धोकर किचन में गरमागरम चाय बनाई और दादी को उठाने चली गई । पर दादी तो पहले से उठी हुई थी और सासूमाँ से बतिया रही थीं । मुझे देखकर उनकी आँखों मे चमक आ गई । दादी बोली - हमे तो लगा था कि पाँच बजे तुम उठ पाओगी या नही पर तुमने तो दिल ही जीत लिया । सासूमाँ के आँखों की चमक बता रही थी कि मैंने आज उनकी लाज रख ली । हम और दादी थोड़ी देर बाद आम के बाग की ओर निकल लिए । 


पगडंडी वाले उस रास्ते पर चलते हुए दादी मुझे हमारे खेत और फसलों के बारे में बहुत सी बातें बताती जा रही थीं । सरसों की पीली चादर में लिपटी धरती तो दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे फ़िल्म की याद दिला रही थी । थोड़ी देर में हम बगिया पहुँच गए । उस बगिया में एक बड़ा सा तालाब भी था ,जिसमे मछली पालन भी होता है । इतने बड़े तालाब में प्यारी प्यारी मछलियों को देखकर वो घरों में बने काँच के मछलीघर तो बेमानी लगने लगे । आम के बड़े बड़े पेड़ और चारो तरफ पक्षी ही पक्षी । सब कुछ किसी फिल्म के दृश्य जैसा सुंदर और मनमोहक लग रहा था । 


मैंने दादी से कहा - दादी गाँव आकर बहुत अच्छा लग रहा है । दादी बोली - मुन्ना की याद नही आ रही । दादी ! बहुत याद आ रही पर यहाँ फोन में नेटवर्क ही नही आता । बात कैसे करूँ? ये कहते कहते मेरी आँखों मे आँसूँ आ गए । दादी ने सिर पर हाथ फिराया और बोलीं - इसमें रोने वाली कौनसी बात है । हमारे जमाने मे नेटवर्क तो क्या फोन भी नही थे फिरभी मेरी बात तुम्हारे दादाजी से हो जाती थी । मैंने कहा - वो कैसे ? फिर दादी बताने लगी - जब मन के तार जुड़े हों तो किसी नेटवर्क की जरूरत नही होती । अपनी बात इस हवा से कहो और ये संदेशा वहाँ तक पहुंचा देगी । जैसे कल सुबह कोयल ने तुम्हारी खबर मुझतक पहुंचाई थी । तभी अचानक मेरे फोन की घंटी बजी । देखा तो उनका फोन आया था , मै तो घंटी की आवाज सुनकर दंग रह गई कि नेटवर्क कैसे आ गया अचानक । तभी दादी बोलीं - मुन्ना का फोन आया होगा बात कर लो वर्ना नेटवर्क चला जायेगा और हँसते हुए वो थोड़ा दूर चली गईं । थोड़ी देर ही बात हुई पर मन को बड़ी खुशी मिली । कभी कभी तो लगता है कि दादी जादूगर हैं।


थोड़ी देर टहलने के बाद दादी और मै घर आ गए । दिनभर दादी के किस्से-कहानी और बातें सुनकर बहुत मजा आता और इसतरह कब पाँच दिन बीत गए पता ही नही चला । शुक्रवार का दिन था , सुबह से ही कोयल बार-बार मेरे सामने आती और कुहुकने लगती । दादी के साथ बगिया जाते वक्त भी कोयल मेरे ऊपर से गुजरे और आवाज करने लगे । मैंने परेशान होकर दादी से पूछा- दादी ये कोयल आज इतना शोर क्यों मचा रही मेरे पास आकर । दादी हँसने लगी और बोलीं- तुमको बताने आई है कि आज वो आने वाला है जिसकी तुम राह देख रही हो । मैंने भी दादी से बोला - अरे दादी ऐसे थोड़ी न होता है । वैसे भी वो तो रविवार से पहले कहाँ आयेंगे । उनका टिकट ही रविवार का है आप भी न दादी । खैर दादी फिरभी अपनी बात पर पूरी तरह आश्वस्त थीं । उन्होंने कहा - तुमलोग ट्वीटर वाली चिड़िया पर ज्यादा भरोसा करती हो और हम इस असली वाली चिड़िया पर । कुछ देर बाद बगिया घूम कर हम लोग घर लौट आये । 


न जाने क्यों बेचैनी हो रही थी , किसी काम मे मन ही नही लग रहा था । मै छत पर जाकर टहलने लगी । तभी दूर से धूल उड़ाता हुआ एक ट्रैक्टर दिखाई दिया । वो सीधा अपने घर की तरफ आ रहा था । मै भाग कर दुआरे पर गई । पीछे से दादी भी बाहर आ गई । थोड़ी देर में ट्रैक्टर घर पर आकर रुका और उसपे से मेरे पतिदेव उतरे । उन्हें देखते ही मेरी आँखों से गंगा-जमुना बहने लगी और होंठों से बस ये निकला- "हमे तो सुबह ही पता चल गया था कि आप आने वाले हो । हमे कोयल ने बता दिया था ।" ये सुनकर दादी भी हँस पड़ी और मै भी ।

तरुण कुमार सिंह

(कविराज तरुण)

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