Sunday, 28 July 2024

ग़ज़ल - अगर हैं मंजिले

अगर हैं मंजिलें तो फिर कहीं पर रास्ता होगा
हमारे हक़ में जो भी है कहीं पर तो लिखा होगा

मै मीलों दूर जाने के लिए तैयार कबसे हूँ
अगर तुम साथ होगे तो सफर मे हौसला होगा

मुझे कुछ सोचकर रब ने बनाया है अलग तुमसे 
मै जैसा हूँ, नही बदलो, बदलकर क्या भला होगा

कभी जब साथ बैठेंगे पुराने दिन की कुर्बत में
रही क्या गलतियां अपनी इसी पर मशवरा होगा

मुझे अफ़सोस होता है मगर मै भूल जाता हूँ
अगर सब याद आ जाये तो कैसे फासला होगा

कविराज तरुण 

Monday, 22 July 2024

हुंकार

हम कबसे अपनी आँखों में अंगार दबाये बैठे हैं 
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

तुम जुल्म हमारे ऊपर कर के पलभर ना घबराते हो 
ये अहंकार ऐसा भी क्या तुम इतना क्यों इतराते हो 

ये वक़्त का पहिया घूम रहा दरकार लगाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

वो कपटी लोग फरेबी हैं तुम जिनको गले लगाते हो 
वो झाँसा देते रहते हैं तुम झाँसे में आ जाते हो

क्यों आस्तीन में छुपकर वो अधिकार जमाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

खुद को भला समझते क्या हो ये तो जरा बताओ तुम 
हिम्मत है तो चाँद पकड़कर इस धरती पर लाओ तुम 

क्यों चाटुकार से भरा हुआ दरबार सजाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

Wednesday, 17 July 2024

ग़ज़ल - सिलसिले

ग़ज़ल - सिलसिले
©कविराज तरुण 

बड़े हुजूम से निकले तुम्हारे काफ़िले हैं 
बहुत से लोग ऐसे हैं जो तुमसे जा मिले हैं

तुम्हारे जुल्म के चर्चे सुनाई दे रहें हैं 
मगर मै कुछ नही कहता भले शिकवे-गिले हैं

मुझे तो बात बस ये ही तसल्ली दे रही है 
हमारे नाम से रौशन तुम्हारी महफिले हैं

जमीं पे कुछ नही निकला हमारे क्यों अभी तक 
उधर तो पत्थरों में भी तुम्हारे गुल खिले हैं

किसी से क्या बताऊँ हाल क्या है अब हमारा 
कहानी फिर वही है और फिर वो सिलसिले हैं

बहुत से लोग ऐसे हैं जो तुमसे जा मिले हैं