प्रेमरस
नशा क्या चढ़े उसे
जो प्रेमरस को पिए हो
नायिका के होंठ से दो बूँद अमृत की लिए हो |
जो मोर बनके नाचता
हो केश रुपी बादलों में
महफ़िलो का शौक कहाँ जो चक्षु चार खुद किये हो
|
जाओ कहीं और जाओ
देह के पुजारियों
उस मंदिर से दूर हटो जहाँ प्रेम के दिए हों ||
तुम पूछते हो मुझसे
मेरी चाहतों का सबब
तो सुनो गौर से तरुण को आज क्या चाहिए
न रंग चाहिए न रूप
मुझको चाहिए
उसके तन पे जो पड़ी वो धूप मुझको चाहिए
न फूल जंचता मुझे
न जंचती कोई कली
जंचती मुझे हंसी जो उसके गालो पर खिली
कि बाग़ में खिला
कोई न फूल मुझको चाहिए
उसके पैरों में चुभा हर शूल मुझको चाहिए
कि जहाँ जहाँ धरे
हैं उसने अपने कदम
उसके पग से छुई धुल मुझको चाहिए
न घर चाहिए न जमीन
मुझको चाहिए
साथ जीने मरने का यकीन मुझको चाहिए
न रंग चाहिए न उमंग
मुझको चाहिए
बस मेरी प्रेयसी का संग मुझको चाहिए
पूरी करोगे तुम
कैसे जो इतनी चाहत को लिए हो
जो लेके नाम नायिका का आजतक जिए हो |
नशा क्या चढ़े उसे
जो प्रेमरस को पिए हो
नायिका के होंठ से दो बूँद अमृत की लिए हो |
जो मोर बनके नाचता
हो केश रुपी बादलों में
महफ़िलो का शौक कहाँ जो चक्षु चार खुद किये हो
|
जाओ कहीं और जाओ
देह के पुजारियों
उस मंदिर से दूर हटो जहाँ प्रेम के दिए हों ||
------------- कविराज तरुण
No comments:
Post a Comment