Thursday, 30 May 2013

PREMRAS



प्रेमरस
नशा क्या चढ़े उसे जो प्रेमरस को पिए हो
   नायिका के होंठ से दो बूँद अमृत की लिए हो |
जो मोर बनके नाचता हो केश रुपी बादलों में
   महफ़िलो का शौक कहाँ जो चक्षु चार खुद किये हो |
जाओ कहीं और जाओ देह के पुजारियों
   उस मंदिर से दूर हटो जहाँ प्रेम के दिए हों ||

तुम पूछते हो मुझसे मेरी चाहतों का सबब
   तो सुनो गौर से तरुण को आज क्या चाहिए
न रंग चाहिए न रूप मुझको चाहिए
   उसके तन पे जो पड़ी वो धूप मुझको चाहिए
न फूल जंचता मुझे न जंचती कोई कली
   जंचती मुझे हंसी जो उसके गालो पर खिली
कि बाग़ में खिला कोई न फूल मुझको चाहिए
   उसके पैरों में चुभा  हर शूल मुझको चाहिए
कि जहाँ जहाँ धरे हैं उसने अपने कदम
   उसके पग से छुई धुल मुझको चाहिए
न घर चाहिए न जमीन मुझको चाहिए
   साथ जीने मरने का यकीन मुझको चाहिए
न रंग चाहिए न उमंग मुझको चाहिए
   बस मेरी प्रेयसी का संग मुझको चाहिए

पूरी करोगे तुम कैसे जो इतनी चाहत को लिए हो
   जो लेके नाम नायिका का आजतक जिए हो |
नशा क्या चढ़े उसे जो प्रेमरस को पिए हो
   नायिका के होंठ से दो बूँद अमृत की लिए हो |
जो मोर बनके नाचता हो केश रुपी बादलों में
   महफ़िलो का शौक कहाँ जो चक्षु चार खुद किये हो |
जाओ कहीं और जाओ देह के पुजारियों
   उस मंदिर से दूर हटो जहाँ प्रेम के दिए हों ||


------------- कविराज तरुण

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