कहीं पे जुगनू टहल रहा है
कहीं पे सूरज निकल रहा है
इसी गुमां में बढ़े कदम ये
ज़माना पीछे ही चल रहा है
हटा रहे क्यों ये धूल जाला
इसी से दिल ये बहल रहा है
तुम्हे लगेगा तुम्ही शहंशा
तुम्ही से हर कोई जल रहा है
मगर पता क्या किसे हक़ीक़त
के ऊंट करवट बदल रहा है
कविराज तरुण
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