बचपन के दिन बहुत याद आते हैं
चलो, हम फिर से वहीं लौट जाते हैं
एक मुद्दत से हँसना भूल गए हम
चलो, दो पल ठहरकर मुस्कुराते हैं
जो लोग इस दौड़ में पीछे छूट गए हैं
चलो, उन्हें मुड़कर आवाज़ लगाते हैं
हक़ीक़त का ये आईना कितना बुरा है
चलो, रेत पर नई तस्वीर बनाते हैं
दौलत शौहरत सियासत में उलझते रहे
चलो, नीम की छाँव तले वक्त बिताते हैं
हमें क्या मिला ? ये सवाल बेहद कठिन है
चलो, जो मिला उसी को आजमाते हैं
कविराज तरुण
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