Wednesday 15 April 2020

ग़ज़ल - रोता हूँ

हर विफलता पे बड़ा मायूस होता हूँ
दिखता खुश हूँ पर अकेले मै भी रोता हूँ

कर्म अपना साधने में देर हो जाये
तो कहाँ फिर चैन की मै नींद सोता हूँ

जो मिलें खुशियाँ उसे मै बाँट कर सबको
सबके चहरे की खुशी दिल में पिरोता हूँ

वक़्त आयेगा हसीं ये मानता मै भी
पर मिला जो वक़्त उसको मै सँजोता हूँ

वो लहर चुपचाप अपना काम करती है
और मै चुपचाप अपने पाप धोता हूँ

जिंदगी जब भी मिले तो पूछना उससे
क्या हुआ उस ख़्वाब का जो रोज बोता हूँ

पा लिया जितना अभी तुमने 'तरुण' उतना
रोज पाता और फिर मै रोज खोता हूँ

कविराज तरुण

No comments:

Post a Comment