ग़ज़ल - रात में क्या क्या रहा
इश्क़ गफलत में रहा कल , हुस्न भी टूटा रहा
आप अब ना पूछिये फिर , रात में क्या क्या रहा
वो सिसक कर चादरों के , दरमियां ही सो गई
मै ज़रा मजबूत था तो , दूर ही बैठा रहा
कुछ तेरे इल्ज़ाम ऐसे , जो नही वाजिब लगे
रो रहे थे तुम तो मै चुप-चाप ही सहता रहा
ये कहानी रोज की है , बात है कल की नही
एक आँसूँ बह गया तो , रातभर बहता रहा
और भी मसले कई थे , इस दरो-दीवार में
मै उसे सुनता रहा वो , जोर से कहता रहा
सिलसिले ये जब रुकेंगे , उम्र भी ढल जाएगी
आमना की चाह में मै , सामना करता रहा
कौन किसको दोष दे जब , बोल दोनों के बुरे
तल्ख़ बातें हो रही तो , तल्ख़ ही लहजा रहा
इश्क़ के हर लफ्ज़ से वो , आज कोसों दूर है
क्यों 'तरुण' तू खामखाँ ही , प्यार में उलझा रहा
कविराज तरुण
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