विषय - जिजीविषा
पथभ्रमित करे जब ओर-छोर
जब लुप्त दिखे हर कोण दिशा
शून्य रहे अंतर्मन जब
हो घोर कालिमा लिए निशा
तब जीने की हर कोशिश पर
प्रश्नचिन्ह लग जाता है
आगे बढ़ने का संकल्प कदाचित
संकल्प मात्र रह जाता है
निर-आशा का घेर लिपटकर
विचलित कर देता है मन को
मिट्टी के सूखे बर्तन सा
वही तोड़ता है तब तन को
ऐसे दुष्कर विषम काल मे
वही उभरकर आता है
जिजीविषा हो जिसके अंदर
वही शिखर पर जाता है
कविराज तरुण
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