ग़ज़ल - गंगा
सभी के पाप धोने की करे कोशिश यही गंगा
इसी कोशिश मे पहले से कहीं मैली हुई गंगा
थे भागीरथ उठा लाये उन्हें शिव की जटाओं से
इसी अफसोस मे शायद रहे अबतक दुखी गंगा
ये अपने ज़ख्म जो तुम धो रहे हो रात में आकर
रहेगी कबतलक पावन सितारों से धुली गंगा
ये मानुष तो समझता है कि इनको दर्द क्यों होगा
सहेगी चोट ये हँसकर बड़ी ही है भली गंगा
'तरुण' की बात सुन लो गौर से सुनने सभी वालों
है देवी माँ इसे पूजो है आफत मे मेरी गंगा
कविराज तरुण
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