Monday 27 April 2020

ग़ज़ल - कभी आओ तुम

मेरे गुमगश्ता ठिकानों पे कभी आओ तुम
अहले-उल्फ़त के तरानों पे कभी आओ तुम

ख्वाहिशे-दिल जो कहे वो भी कभी करने दो
यार बादल की उड़ानों पे कभी आओ तुम

ये जो सिलवट है शगुफ्ता से मेरे चहरे पर
इनके गुजरे उन ज़मानों पे कभी आओ तुम

फिर गमो की रात मेरी मयकशी में गुजरी
मेरे ख्वाबों के मचानों पे कभी आओ तुम

भीड़ लगती है अमीरों की दुकानों पे 'तरुण'
इन गरीबों की दुकानों पे कभी आओ तुम

कविराज तरुण

(गुमगश्ता- खोया हुआ , अहल-ए-उल्फ़त- प्यारा इंसान , शगुफ्ता- खिला हुआ, )

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