Thursday, 30 December 2021

ग़ज़ल - ठीक है

हरकतें भी ठीक हैं और ये नज़र भी ठीक है
इक दफ़ा हो घूमना तो ये शहर भी ठीक है

सुब्ह-शामों पर लिखी नज़्में मुबारक हो तुम्हें
हम मिजाजी हैं ज़रा तो दोपहर भी ठीक है

तल्ख़ काँटों से भरी है ये डगर तो क्या हुआ
साथ है तेरी दुआ तो ये सफर भी ठीक है

वो पुरानी तख्तियों पर दिल बने हैं आज भी
वो पुरानी चिट्ठियों का डाकघर भी ठीक है

इश्क़ तेरी चाह में भटका रहा मै उम्रभर
दरबदर मै ठीक हूँ वो बे-खबर भी ठीक है

इक दफ़ा हो घूमना तो ये शहर भी ठीक है

Wednesday, 18 August 2021

थोड़ी थोड़ी गलती है

मेरी है या तेरी है या किसकी है
हर हिस्से की थोड़ी थोड़ी गलती है

आँखों में सैलाब छुपाकर क्या होगा
रो लेने दो दिल की जबतक मर्जी है

हर कोई तेरे जैसा हो बात गलत
सबकी अपनी रागें अपनी ढपली है

जो जैसा हो उसको वैसा ही मानो
दुनिया अपने ढर्रे पर ही चलती है

उम्मीदों का भार 'तरुण' जब ज्यादा हो
कुछ हटकर करने की जिद तब अच्छी है

Sunday, 18 July 2021

याद आओगे बहुत

जिंदगी का फलसफा दोहराने से पहले
याद आओगे बहुत याद आने से पहले

ये गलियां ये सड़कें बुलाएंगी तुमको
देख लेना इन्हें भूल जाने से पहले

दिल का क्या है कहीं न कहीं तो लगेगा
याद रखना हमें दिल लगाने से पहले

मुस्कुराता हुआ एक चेहरा यहाँ है
सोच लेना यही मुस्कुराने से पहले

हाथ रखना जरूरी है सीने पे अपने
बातें यहाँ की सुनाने से पहले

Sunday, 4 July 2021

मंज़िल नही मिलती

कभी साहिल नही मिलता कभी मंजिल नही मिलती
मेरे ज़ख्मों को जाने क्यों दवा काबिल नही मिलती

कि उसका नाम लेता हूँ तो अपने रूठ जाते हैं
किसी पत्ते की तरहा रोज सपने टूट जाते हैं

इसी इक बात से हिम्मत जुटा लेता हूँ रातों में
अँधेरों के मुसाफिर को कहीं मुश्किल नही मिलती

ख़फ़ा है या रज़ा है वो मुझे कोई तो बतलाओ
अगर मुझसे तुम्हे मतलब तो फिर उसकी खबर लाओ

बिना उसके लिखूँ मै क्या कहूँ मै क्या करूँ मै क्या
मेरी ग़ज़लें हुईं तन्हा इन्हें महफ़िल नही मिलती

वफ़ा के नाम पर कितने सितम अब और सहने हैं
ज़रा कह दो समंदर से ये आँसूँ और बहने हैं

जहाँ पर कत्ल होता है 'मुहब्बत' का 'मुहब्बत' से
वहाँ किस्से तो मिलते हैं मगर क़ातिल नही मिलती

कविराज तरुण 'सक्षम'
साहित्य संगम संस्थान

Thursday, 1 July 2021

संशय

शीर्षक - संशय

संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है
अच्छा खासा व्यक्ति कदम आगे करने से घबराता है

जो भी काम मिले उसको ना कहने की आदत लगती है
सीधी सादी बात उसे तब हिय के भीतर तक चुभती है
लोगों के फिर मानचित्र वो अनायास ही बनवाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

निराधार विषयों पर चिंतन कारण बनता है दुविधा का
मार्ग उसे मुश्किल लगता है फिर चाहे वो हो सुविधा का
आड़ी तिरछी रेखाओं में उलझा अपने को पाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

चित्त व्यथित हो जाता उसका घोर निराशा छा जाती है
मन की पीड़ा उछल उछल कर अश्रु हृदय से बरसाती है
दूर अकेलेपन का कोहरा चित्र भयानक दर्शाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

अच्छा होगा यदि हम केवल कर्मभाव को अपनायेंगे
चिंता शंका वहम छोड़कर मनोयोग से लग जायेंगे
कोशिश करने वाला ही तो अपनी मंजिल को पाता है
संशय मन में आ जाने से सबकुछ दूभर हो जाता है

तरुण कुमार सिंह
प्रबंधक-विपणन विभाग
लखनऊ अंचल

Monday, 21 June 2021

कवि कौन ?

फिर वही प्रश्न कौन हूँ मै
शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मै

कवि को समझने से पहले कविता को समझना बेहद जरूरी है । हम अक्सर शब्दों के फेरों में लिपटी खूबसूरत कविता को देखते हैं , पढ़ते हैं और आगे बढ़ जाते हैं । पर वह कविता कैसी है इससे कहीं ज्यादा ये प्रश्न गंभीर है कि वह कविता क्यों लिखी गई है । हम-आप सब लोग ये जानते हैं कि भावों का लयबद्ध सम्प्रेषण ही कविता है , परंतु कविता इससे कहीं ज्यादा गहरी होती है । कवि ने किन परिस्थितियों में कविता लिखी, उसे आखिर क्या जरूरत पड़ी अपनी भावनाओं को शब्दों में गढ़ने की, उसने क्या कहा और वो कहना क्या चाह रहा था । इन्ही सब बातों में तो कविता का सच छुपा है और कवि का भी । मै नही मानता कि कवि या कविता की तुलना उसकी लय , गति अथवा शिल्प के आधार पर होनी चाहिए , अपितु उसमे निहित भाव ठीक उसी प्रकार दिखे जैसा कवि दिखाना चाहता है तो कविता सफल है ।

हर कहानी में कविता हो न हो पर हर कविता में एक कहानी होती है । बस वही कहानी अपनी कविता में दर्शाना कवि का धर्म है । कवि कभी भी बंधनों में बँधा नही हो सकता । मुक्त भाव ही कवि का सबसे कारगर साधन है । प्रशंसा मनोबल के लिए आवश्यक है परंतु कवि तो वही है जो इन सबसे मुक्त हो । 'कवि कौन' ये प्रश्न कठिन भी है और आसान भी । प्रकृति को देखेंगे तो पशु, पक्षी, पेड़, वायु , अम्बर, बादल सब कवि लगेंगे क्योंकि ये मुक्त होकर अपना भाव प्रकट करते हैं । मनुष्य में कवि को खोजना कठिन है क्योंकि हम जो हैं वो स्वीकारते नही, जैसा होना चाहते हैं वैसा प्रयास करते नही और जो हो सकते हैं वो हो नही पाते । अपने आप को पहचानना ही कवि होना है , अपने अंदर झाँकना ही कविता है ।

एक कहानी सुनाता हूँ - एक व्यवसायी था जिसने वर्षों तक अथक परिश्रम करके अच्छी संपत्ति बना ली। सोते-जागते उसे अपने व्यवसाय की ही धुन सवार रहती। अपने व्यस्त जीवन में उसने महसूस किया कि उसे कढ़वेपन की बीमारी लग गई है। उसे कोई भी मीठी चीज फीकी या कढ़वी लगती । डॉक्टर को दिखाया, वैद्य, हकीम सभी के चक्कर लगा लिए फ़िरभी कोई फर्क नही पड़ा। विज्ञान समाधान खोजने में असमर्थ दिखा। बहुत परेशान होकर उसने एक आश्रम में शरण ली, वहां बैठे गुरूजी से अपना दुखड़ा कहा। वो कहते-कहते रो पड़ा कि बिना मिठास के जीवन का फायदा ही क्या है? गुरूजी हँस पड़े और कहा कि सब सही हो सकता है पर उसके लिए कुछ कठिन कार्य करने होंगे। वह झटपट सब कार्य के लिए तैयार हो गया।

सुबह हवन के लिए लकड़ी काटकर लाना, आश्रम में आये लोगों के लिए भोजन बनाना, आश्रम की सफाई करना और भोजन के नाम पर दिनभर खाली पेट रहने के बाद रात्रि में करेले की सब्जी एक रोटी के साथ खाकर सो जाना। कई दिन बीत गए, उसने मीठेपन की कल्पना करना तक छोड़ दिया।

पर इस नियमावली से तंग आकर आखिरकार वो गुरूजी के पास गया और बोला - गुरुदेव कई दिन से ठीक से भोजन तक नही किया। करेले की सब्जी इतने दिन से खाते-खाते परेशान हो गया हूँ। पहले तो मीठी चीज ही फीकी लगती थी पर अब तो करेला भी फीका लगने लगा है। बिना स्वाद के क्या जिंदगी गुरुदेव?
गुरुदेव ने कहा अभी ये कार्य कुछ दिन और करो।
पर कबतक गुरुदेव? - झुंझलाकर वो बोल पड़ा
जबतक करेले की सब्जी मीठी न लगने लगे - इतना कहकर गुरुदेव मुस्कुरा दिए
उस रात उसने यही सोचकर करेले की सब्जी खाई कि उसे वह मीठी लगे और यकीन मानिये हुआ भी ऐसा ही। वो भागकर गुरुदेव के पास गया और बोला - गुरुदेव आज तो करेला भी मीठा लगने लगा
गुरुदेव हँसकर उसे देखे और फिर बिना कुछ कहे सोने चले गए

सुबह जब वह उठा तो वो समझ चुका था कि अपने स्वाद को पुर्नजीवित करना उसी के हाथ में था पर वो अनायास ही दवाओं और डॉक्टरों की शरण में चला गया। उसने अपने दिनचर्या की व्यस्तताओं और अनिश्चिताओं में उलझकर जीवन के साथ-साथ, जिह्वा के स्वाद को भी कढ़वा कर लिया था। उसने खाने की मिठास को ही नजरअंदाज करना शुरू कर दिया था और शिकायतों के मकड़जाल में खुद को ही बीमार समझ लिया था परन्तु अब उसे सत्य की अनूभूति हो चुकी थी, संवेदना का परिचय हो चुका था, भावनाओं की महत्ता पता चल चुकी थी। उसे जीवन के हर स्वाद की उपयोगिता समझ आ चुकी थी। उसे यह पता चल चुका था कि हम जैसा महसूस करते हैं वैसे ही बन जाते हैं। अपने अंदर बसे जीव को पहचानना उसे आ चुका था, उसे यह पता चल चुका थे कि भावशून्य व्यक्ति स्वादहीन हो जाता है। अब वो भावप्रधान हो चुका था। उसे अपने अंदर की भावनाओं को पढ़ना और उसे प्रकट करना आ चुका था। वास्तव में अब स्वयं के लिए वो एक कवि बन चुका था।

कविराज तरुण

Friday, 18 June 2021

ग़ज़ल - तुम हो

मेरी जिंदगी की ग़ज़ल खास तुम हो
मेरी हर दुआ मेरी अरदास तुम हो

मै जब भी गुजरता हूँ तेरी गली से
मेरी धड़कनों की अहसास तुम हो

नही है किसी की मुझे अब जरूरत
ये दुनिया मेरी है अगर पास तुम हो

बनाया है तुमने बिगाड़ा है तुमने
मेरी इस कहानी का इतिहास तुम हो

समंदर तुम्ही हो ये दरिया तुम्ही हो
मेरी इन निगाहों की हर प्यास तुम हो

कविराज तरुण

Sunday, 6 June 2021

श्रीराम दिखाता सीने में

रघुनंदन की उस महिमा का गुणगान दिखाता सीने में
मै देवधरा के कण कण का अभिमान दिखाता सीने में

हाँ ! मुझमें अंश समाहित है उस मर्यादा पुरुषोत्तम का
हनुमान नही हूँ वर्ना मै भगवान दिखाता सीने में

भगवान दिखाता सीने में श्रीराम दिखाता सीने में

Friday, 28 May 2021

क्या मुझसे मिलने आओगी

मेरे अविनाशी मन का हर भाव तुम्हे जब प्रेषित हो
मेरे चित्तपटल पर तेरा नाम स्वयं आलेखित हो

तब तुम मिलने आओगी क्या मुझसे मिलने आओगी
तोड़ सभी ये बंधन तुम क्या मेरा साथ निभाओगी

अरुणांचल को छोड़ अरुण जब रूप चाँद का धर लेगा
दिन का उजियारा जब दीपक अपनी लौ में भर लेगा
जब अम्बर के तारे गिनते गिनते मै सो जाऊँगा
जब स्वप्नों की अमरबेल पर तुमको पास बुलाऊँगा

तब तुम मिलने आओगी क्या मुझसे मिलने आओगी
तोड़ सभी ये बंधन तुम क्या मेरा साथ निभाओगी

अधरालय की त्रिज्या से बात तुम्हारी की जायेगी
नयनों की हर कोन दिशा चित्र तुम्हारे दर्शायेगी
जब पुष्पों की गंध हृदय के भीतर आच्छादित होगी
ऋतुओं की जब भाव-भंगिमा तुमपर आधारित होगी

तब तुम मिलने आओगी क्या मुझसे मिलने आओगी
तोड़ सभी ये बंधन तुम क्या मेरा साथ निभाओगी

यदि मै सात वचन देने का वचन तुम्हारे नाम करूँ
अग्नि धरा जल जीवन अम्बर पवन तुम्हारे नाम करूँ
यदि मै नाम करूँ सब अपना जो भी मैंने पाया है
तुमसे कह दूँ तुम ही सच हो बाकी सब तो माया है

तब तुम मिलने आओगी क्या मुझसे मिलने आओगी
तोड़ सभी ये बंधन तुम क्या मेरा साथ निभाओगी

कविराज तरुण

Tuesday, 18 May 2021

ग़ज़ल - बू आ रही है

खतों से अजब आज बू आ रही है
कहीं कोई साजिश रची जा रही है

महकते थे जो वो दहकने लगे हैं
के हर लफ्ज़ साँसों को सुलगा रही है

न रंगों की बातें न फूलों की खुशबू
मुहब्बत नये ढंग अपना रही है

किनारे खड़ा कौन कबतक रहेगा
लहर तेज साहिल से टकरा रही है

बड़ी देर कर दी 'तरुण' आपने भी
ये दुनिया तो कबसे ही समझा रही है

कविराज तरुण

Friday, 14 May 2021

शायरी - खंडहर

विरासत में रख लेना ईमारत मेरी
एक उम्र लगी है इसे बनाने में
हर एक ईंट लहू से जोड़ी है
तब ये दीवार खड़ी ज़माने में

कविराज तरुण

Thursday, 13 May 2021

गुमान से निकला

अपने खुद के गुमान से निकला
तेरी महफ़िल मकान से निकला

मेरा जाना तो ऐसे जाना है
तीर जैसे कमान से निकला

था चराग़ों सा बंद कमरे में
आज मै आसमान से निकला

जब लिखा था अजाब सहना है
खामखाँ इम्तिहान से निकला

तू भी जिंदा है मै भी जिंदा हूँ
दर्द केवल जुबान से निकला

हीर राँझा फराद शीरी क्यों
तू नये खानदान से निकला

कविराज तरुण

Monday, 10 May 2021

नही मिलती

कभी साहिल नही मिलता कभी मंजिल नही मिलती
मेरे ज़ख्मों को जाने क्यों दवा काबिल नही मिलती
के उसका नाम लेता हूँ तो अपने रूठ जाते हैं
मेरी ग़ज़लें रहें तन्हा उन्हें महफ़िल नही मिलती

Saturday, 8 May 2021

ना बहलाओ तुम

उसके जैसा चहरा किसका अच्छा ये बतलाओ तुम
चाँद अगर तुम ला सकते हो तो धरती पर लाओ तुम

फूलों की खुशबू तो उसके आने से ही आती है
हाथों में गुलदस्ता देकर हमको ना बहलाओ तुम

मै पागल हूँ आशिक़ हूँ तो दर्द हमारे हिस्से है
चारा साजी कहकर दिल पर मरहम ना सहलाओ तुम

Monday, 3 May 2021

बचपन के दिन

बचपन के दिन बहुत याद आते हैं
चलो, हम फिर से वहीं लौट जाते हैं

एक मुद्दत से हँसना भूल गए हम
चलो, दो पल ठहरकर मुस्कुराते हैं

जो लोग इस दौड़ में पीछे छूट गए हैं
चलो, उन्हें मुड़कर आवाज़ लगाते हैं

हक़ीक़त का ये आईना कितना बुरा है
चलो, रेत पर नई तस्वीर बनाते हैं

दौलत शौहरत सियासत में उलझते रहे
चलो, नीम की छाँव तले वक्त बिताते हैं

हमें क्या मिला ? ये सवाल बेहद कठिन है
चलो, जो मिला उसी को आजमाते हैं

कविराज तरुण

Tuesday, 27 April 2021

ग़ज़ल - सवाल खो गया

जवाब दूंढते रहे सवाल खो गया
ये देखिये शहर का कैसा हाल हो गया

किसान इकतरफ लड़ाई लड़ रहे वहाँ
जहाँ कफन सँभालता वो लाल सो गया

लताड़ रोज लग रही है कोर्ट से मगर
चुनाव फिर भी हो रहा कमाल हो गया

वो आये और 'मन की बात' कह के चल दिये
ये पैंतरा तो फिर से इक मिसाल हो गया

दिखा सके जो सच 'तरुण' वो आइना कहाँ
ये मीडिया ही आजकल दलाल हो गया

कविराज तरुण

Monday, 26 April 2021

ग़ज़ल - आजकल

शहर की आजकल मेरे हवा खराब है
सुलग रही जमीं फलक ये माहताब है

अभी अभी खबर मिली कहीं गया कोई
अभी अभी दिलों का खौफ़ कामयाब है

जली हुई चिता की आग देख सामने
डरा हुआ सिमट रहा वो आफताब है

मिले अगर खुदा तो पूछ लूँगा मै उसे
तू जिंदगी का ले रहा ये क्या हिसाब है

सवाल जस का तस यही बना हुआ 'तरुण'
वो कौन बेरहम कुचल रहा गुलाब है

कविराज तरुण

Sunday, 25 April 2021

ग़ज़ल - कुछ नही होगा




आप अपनी हेल्थ की चिंता न ज्यादा कीजिये
ठीक हो जायेगा सबकुछ ये भरोसा कीजिये

क्या हुआ जो आप थोड़ा सा हुए बीमार हैं
'हिम्मते मर्दे खुदा' बस ये ही सोचा कीजिये

मुश्किलों से है भरा पर वक़्त ये कट जायेगा

फुर्सतों में आप हँस के वक्त काटा कीजिये

पॉजिटिव हो सोच तो फिर हर जगह ही जीत है
शांत मन के साथ सबसे बात साँझा कीजिये

भाँप लेना है जरूरी ले सकें जितनी दफा
और यदि मौका मिले तो योग थोड़ा कीजिये

मास्क चहरे पर लगाना है जरूरी जान लो

हाथ धोने का कभी मौका न छोड़ा कीजिये

है दवा उपलब्ध तो घबरा रहे हो क्यों 'तरुण'
'कुछ नही होगा' ये मन मे भाव पैदा कीजिये

कविराज तरुण

Friday, 23 April 2021

लेकिन फरक किसको पड़े

जिंदगी लाचार है लेकिन फरक किसको पड़े
हर कोई बीमार है लेकिन फरक किसको पड़े

वो चुनावी जंग के फिर सूरमा बनने चले
वाह क्या सरकार है लेकिन फरक किसको पड़े

कुंभ में जमकर नहाने चल दिये हैं इकतरफ
इकतरफ इफ़्तार है लेकिन फरक किसको पड़े

ब्लैक मे ही बिक रही है ये हवा औ ये दवा
चोर थानेदार है लेकिन फरक किसको पड़े

जान का जोखिम लिए वो काम पर तो जा रहा
घुस गया व्यापार है लेकिन फरक किसको पड़े

हरतरफ बस मौत का ही खेल चालू हो गया
खूब हाहाकार है लेकिन फरक किसको पड़े

कविराज तरुण


Thursday, 15 April 2021

जन्मदिवस बधाई

उन्मुक्त सोच के बलबूते जिसने सबको आवाजें दी हैं
संघर्षों के बीच भँवर मे जिसकी सारी उम्र तपी है
जो लोगों के हृदयांगन में जड़ें जमाये बैठा है
जिसने सूरज को पश्चिम से भी भोर निकलते देखा है

उनको उनके जन्मदिवस पर ढेरों-ढेर बधाई हो
स्वास्थ्य रहे मंगल मंगल उज्ज्वल सी परछाई हो

जिसने जीवन के हर लम्हे से लड़कर जीना सीखा है
जिसने विष का प्याला भी हँसकर पीना सीखा है
जिसको अपने से ज्यादा ही दूजे की चिंता रहती है
जिसके मन में निर्मल पावन गंगा अविरल बहती है

उनको उनके जन्मदिवस की ढेरों-ढेर बधाई हो
मधुर-मधुर संगीत सुनाती जीवन में पुरवाई हो

जिसको अपना कहने में गर्व हमेशा होता है
जिसके आदर्शों की बगिया में मन हम सबका खोता है
जिसकी लंबी उम्र रहे ये दुआ स्वयं ही आती है
जिससे मिलने से हर चिंता खुद गायब हो जाती है

उनको उनके जन्मदिवस की ढेरों-ढेर बधाई हो
खुशियों से भरपूर सदा हर सपनें की भरपाई हो


Sunday, 28 March 2021

शायरी अपडेट

बिना भरे ही छलक रहीं हैं मै और मेरे तमाम बातें
है स्याह जैसी घनी अँधेरी मै और मेरी तमाम रातें
न कोई अपना मिला हमें तो किया सभी ने सदा किनारा
तुम्हे मुबारक हों सारे रिश्ते तुम्हे मुबारक तमाम नाते

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है इश्क़ फिर तो मलाल कैसा
जुबाँ पे फिर ये सवाल कैसा
तुम्हे पता है तुम्हे खबर है
मेरे शहर का है हाल कैसा

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सितारों की चमक लेके जमीं पर आसरा लूँगा
मै पानी की तरह बहकर समंदर पार पा लूँगा
मुझे तेरे रिवाज़ो से नही कोई भी मतलब है
कि जिसदिन ठान लूँगा मै तुम्हे अपना बना लूँगा

मुहब्बत है नई फिरभी कशिश इसमें पुरानी है
बड़ी ही बंदिशों वाली तेरी मेरी कहानी है
जमाने के बदलने से बदलता है नही सबकुछ
हमें छुपकर भी रहना है निगाहें भी मिलानी है

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मेरी बेबाक नजरें जो कहती रहीं जान कर तू उन्हें जान पाया नही
आके रह जाओ दिल में मेरे उम्रभर यहाँ लगता ज़रा भी किराया नही

वो जो बातें हुईं थीं मेरे साथ में तुम उन्हें भूलने की न कोशिश करो
यार सबकुछ मिलेगा तुम्हें प्यार से बस जरूरी खुदा से कि ख़्वाहिश करो

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मेरी बेबाक नजरें जो कहती रहीं जान कर तू उन्हें जान पाया नही
आके रह जाओ दिल में मेरे उम्रभर यहाँ लगता ज़रा भी किराया नही

वो जो बातें हुईं थीं मेरे साथ में तुम उन्हें भूलने की न कोशिश करो
यार सबकुछ मिलेगा तुम्हें प्यार से बस जरूरी खुदा से कि ख़्वाहिश करो

Sunday, 21 March 2021

क्या फायदा

बिन तुम्हारे दिल लगाने का भला क्या फायदा
बिन तुम्हारे प्यार पाने का भला क्या फायदा

चौदवीं का चाँद हो या चाँद की भी कल्पना
तुम स्वयं श्रृंगार हो या हो रती की साधना
दृष्टि के हर छोर पर तुम विराजित हो रही तो
नेत्र पर अंकुश लगाने का भला क्या फायदा
बात आँखों की छुपाने का भला क्या फायदा

सात जन्मों का वचन देकर बढ़ाया हाथ ये
आपने क्यों राम छोड़ा सहचरी का साथ ये
दूर रखते इन वनों से प्रियतमे की देह को
आग लंका में लगाने का भला क्या फायदा
धर्म की बातें सिखाने का भला क्या फायदा

सूर्य को यदि दिन मिला तो चाँद को ये रात भी
है कहीं पर अंत तो फिर है कहीं शुरुआत भी
जीत खुद उसका वरण करती है जिसमे शक्ति हो
बिन लड़े ही हार जाने का भला क्या फायदा
स्वप्न आँखों मे सजाने का भला क्या फायदा

Saturday, 6 March 2021

ख़ाक-ए-तमाम

खाक-ए-तमाम होने का सिलसिला चलने लगा
उम्र ये बढ़ने लगी तो फासला बढ़ने लगा
हसरतों की प्यास में दरिया दरिया घूमकर
दिल ये मेरा बेदिली का दाखिला करने लगा

Friday, 5 March 2021

अटल हो गया

मेरा सपना अधूरा सकल हो गया
तू सफल हो गयी मै विफल हो गया

तुमको दिल दे दिया ये है गलती मेरी
अपने दिल से ही मै बेदखल हो गया

मैंने देखा जिसे वो हुआ खंडहर
तूने देखा जिसे वो महल हो गया

तुम हुई न कभी मेरी मायावती
मै तुम्हारे लिए ही अटल हो गया

सुर्ख कांटो से जख़्मी मेरा हाथ है
तू चमकता हुआ सा कमल हो गया

कविराज तरुण

Friday, 26 February 2021

मुश्किल हो जाता है

अक्सर तुमसे मन की बातें कहना मुश्किल हो जाता है
रेत में जैसे पानी का ही बहना मुश्किल हो जाता है

चुप रहकर सहते सहते एक उम्र हमारी बीत गई
बाधायें इतनी आईं कि निर-आशा भी जीत गई

ऐसे विषमकाल मे कुछ भी सहना मुश्किल हो जाता है
अक्सर तुमसे मन की बातें कहना मुश्किल हो जाता है

हमने जेठ दुपहरी में भी घंटों तेरी राह तकी है
सर्दी मे भी ठिठुर-ठिठुरकर छत पर जाकर बातें की हैं

अब जाने क्यों साथ मे तेरे रहना मुश्किल हो जाता है
अक्सर तुमसे मन की बातें कहना मुश्किल हो जाता है

Saturday, 30 January 2021

3. प्रियतमे

कबसे सोया हुआ हूँ उठा जाओ न
चाय हाथों से अपने पिला जाओ न
#प्रियतमे ! पास मेरे चले आओ तुम
चाँद सा रूप अपना दिखा जाओ न

2. प्रियतमे

बात साँझा करूँ क्या किसी और से
दिल लगाया करूँ क्या किसी और से
#प्रियतमे ! पास मेरे चले आओ तुम
वक़्त ज़ाया करूँ क्या किसी और से

1. प्रियतमे

तुम विटामिन हो मेरे बदन के लिए
गुनगुनी धूप हो सर्द मन के लिए
#प्रियतमे ! पास मेरे चले आओ तुम
प्रेम आतुर मेरा है मिलन के लिए

Friday, 29 January 2021

मुक्तक - सहना पड़ता है

जीवन मे तो दर्द सभी को सहना पड़ता है
पानी बनकर पर्वत से भी बहना पड़ता है
चुप रहकर ही कौन समझ पाया है बातों को
अपने दिल का हाल कभी तो कहना पड़ता है

Thursday, 28 January 2021

ग़ज़ल - मंजूर है

क्या हुआ जो इश्क़ हमसे दूर है
वक़्त का हर फैसला मंजूर है

फासला दो चार दिन से ही हुआ
दर्द लेकिन हर जगह मशहूर है

दिल पे उसके है मेरी ही मलकियत
आँख में जिंदा मेरा ही नूर है

वो सुहागन बन गई है गैर की
मांग में फिरभी मेरा सिंदूर है

कविराज तरुण

Monday, 18 January 2021

गीत - आधा भाव

तेरी मीठी बातें सुनकर , वैरागी को प्यार हुआ
आधा भाव समर्पण का है , आधे पर अधिकार हुआ

किसी डोर से बाँध रहा वो , मेरे चाँद सितारों को 
किसी छोर से साध रहा वो , मन के  इन अँधियारों को 
उसकी आँखों के सूरज में , दिन का ये विस्तार हुआ
आधा भाव समर्पण का है , आधे पर अधिकार हुआ

तुमसे मिलकर विरह तान भी , मधुर गीत बन जाती है
तुमसे मिलकर नागफनी भी , मंद मंद मुस्काती है
ऐसे में तुमको पाकर मै , खुशियों का आगार हुआ
आधा भाव समर्पण का है , आधे पर अधिकार हुआ

नेह लिए तुम आई जबसे , मेरे मन के आँगन में
झूल रहा मन पेंग मार के , जोर जोर से सावन में
नई किरण का नये पहर में , नया नया संचार हुआ
आधा भाव समर्पण का है , आधे पर अधिकार हुआ

गंगाजल सा हृदय तुम्हारा , और फूल सी काया है
रूप गढ़ा ये कूट कूट के , प्रभु की कैसी माया है
सतरंगी सपनों का जैसे , चिर यौवन श्रृंगार हुआ
आधा भाव समर्पण का है , आधे पर अधिकार हुआ

कविराज तरुण

Thursday, 14 January 2021

जैसे जमाना चाहे

रेत में क्यों कोई फूल उगाना चाहे
वैसे ढल जायेंगे जैसे ये जमाना चाहे

बात उम्मीद की सुनने में अच्छी है
अपने हालात भला कौन बताना चाहे

छोड़ के वो तो गया ये तेरा मुकद्दर है
क्या हुआ दिल कहीं और ठिकाना चाहे

हर जुर्म इसी बात पे बढ़ता ही चला जाता है
मै दर्द छुपाना चाहूँ वो जुर्म छुपाना चाहे

रायशुमारी से तेरा कुछ नही होगा
उसको दूंढो जो तेरा बोझ उठाना चाहे

कविराज तरुण

ग़ज़ल - निगहबान था

जिसकी सूरत का दिल ये कदरदान था
वो किसी और के दिल का महमान था

ख्वाब उल्फ़त के यूँही बिखर जायेंगे
बात से बेखबर मै तो अनजान था

उसकी हर मुश्किलों में उलझता रहा
मै इन्ही आदतों से परेशान था

हाथ आया नही फूल मुझको कभी
मै बगीचे का कबसे निगहबान था

वो जिसे मै खुदा ही समझता रहा
वो मुसलसल सा बस एक इंसान था

कविराज तरुण

ग़ज़ल - नमी आपसे

दिल लगाया था हमने कभी आपसे
आज आंखों मे आई नमी आपसे

और कोई कहे तो कहे माफ है
तू भी पागल कहे तो दुखी आपसे

एक दिन तो बुझेगा दिया प्यार का
आँधियों की हुई दोस्ती आपसे

नाम आता है जब भी जुबां पर तेरा
मुझको मिलती नही है खुशी आपसे

कविराज तरुण

Thursday, 7 January 2021

नववर्ष

रश्मियाँ भोर की कल तो आएँगी पर
रात स्वप्निल सुधा सी अमर कर दो
सोच लो ठान लो मन का संज्ञान लो
इस हिमालय से ऊँचा शिखर कर दो

रश्मियाँ भोर की कल तो आएँगी पर
रात स्वप्निल सुधा सी अमर कर दो

प्यार के द्वार पर हिय का दरबार है
आत्म चिंतन से संभव ये उद्गार है
नेत्र की अंजलि में चमक जीत की
बोली भाषा बने यों सहज फूल सी
कि लगे सब तरफ सिर्फ मुस्कान है
ये नया वर्ष आकर्ष मेहमान है

इन विचारों का मन में बसर कर दो
रात स्वप्निल सुधा से अमर कर दो

रश्मियाँ भोर की कल तो आएँगी पर
रात स्वप्निल सुधा सी अमर कर दो

तरुण कुमार सिंह
प्रबंधक
विपणन विभाग
लखनऊ