Sunday, 22 December 2024

ज़रा ईमान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

जरूरी है कि रौनक हो भरे गुलदान हों सारे 
मगर फिरभी कोई कोना कहीं वीरान रहने दो

वो आयेंगे मचाने शोर जिनको है नही परवाह 
जिन्हें परवाह हमारी है उन्हें अंजान रहने दो

उसे तो खेलने दो खेल सारे ही खिलौनों से 
जगाओ मत अभी तो ख़्वाब में अरमान रहने दो

ये मेरी रूह है इसको कहीं पर बेच दो लेकिन
किसी का प्यार से भेजा हुआ सामान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

Sunday, 8 December 2024

दो चार कदम

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं 

वो कौन है जिसकी मलकियत है मंजिल पर 
आओ उसका चेहरा बदल के देखते हैं

ख़्वाब में अक्सर अपना घर बनाने वालों 
हम ख़्वाब देखते हैं तो महल के देखते हैं

दिल को समझा रखा है किस बात के लिए 
दिलवालों के दिल तो मचल के देखते हैं

क्यों चकाचौंध है तेरे वजूद के इर्द गिर्द 
क्यों लोग तुझे आँखें मल मल के देखते हैं

तुम शमा के जैसे रौशन हो शामियाने में 
हम परवाने तेरी आग में जल के देखते हैं

तेरे इंतज़ार में मै रो भी नही सकता
मेरे कुछ यार मेरी पलकें देखते हैं

अब तो दौलत भी किसी काम की नही
गुड्डे गुड़ियों में फिर से बहल के देखते हैं 

कागज़ की नाँव बनाये ज़माना बीत गया 
बारिश है.. नंगे पाँव टहल के देखते हैं

आतिशबाजी है शोर है हिदायत भी है 
पर बच्चे कहाँ तमाशा संभल के देखते हैं

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं

लोग भुला नही पाते

हाल-ए-दिल जो कभी बता नही पाते
टूट जाते हैं वो मुस्कुरा नही पाते 

मै पाँव फैलाना तो छोड़ नही सकता 
भले मेरे पाँव चादर में समा नही पाते

मैं उन झरोखों से बाहर कूद जाता हूँ 
जिनसे मेरे सपनें अंदर आ नही पाते

ये तो उम्र का तकाजा है कि मै चुप हूँ 
वर्ना अच्छे-अच्छे भी चुप करा नही पाते

मुझे याद रखना आसान है बहुत 
दिक्कत ये है कि लोग भुला नही पाते

मुकम्मल

कि मै डोरियों में वो गुजरा ज़माना मोती समझकर पिरोता रहा
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो तन्हाईयों में इबादत करे
या कि बेचैनियों में हिमाकत करे

क्योंकि मुझको यकीं है कि इतनी मोहब्बत 
वो भी इतने दिनों से फकत माह सालों से या कि सदी से
वो भी इस ताज़गी से 
बड़ी सादगी से 
भला कोई कैसे कहाँ से करेगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो मजनू ने लैला की खातिर नही की 
कोशिश जो राँझे ने आखिर नही की

कोशिश जो उन पगडंडियों को बना दे दोबारा जहाँ से मोहब्बत को राहें मिली थीं 
निगाहें मिली थीं जहाँ पे हमारी और क्या खूब बाहों को बाहें मिली थीं

कोशिश, चिरागों से उस आसमां को दिखाना कि इक चाँद है इस जमीं पर 
जिसने सितारों में मुझको चुना था
तेरी स्याह रातों में सपना बुना था 

मगर कुछ वजह ऐसी आई थी शायद 
मोहब्बत को परदे में रखना पड़ा था 
यही लफ्ज़ जाने से पहले कहा था 
और ये भी कहा था मै आऊंगी एक दिन 
तुम्हारे हवाले ये दिन रात करने 
खतम जो ना हो वो मुलाक़ात करने 

यही सोचकर मैंने दिल की इबारत को रखा है महफूज़ इक डायरी में 
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

Tuesday, 3 December 2024

बहुत रमणीक स्थल था

बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
मै गुजरा वहाँ से पर गुजर ना पाया 
कुछ फल लाये थे बैठा और खाया
घास को बिस्तर समझकर मै सो गया 
देखते ही देखते अँधेरा हो गया
फिर मै उठा आनन फानन में जेब टटोली मोबाइल निकाला 
सैकड़ों मिस कॉल पड़ी थी - घर ऑफिस दोस्त यार कुरियर वाला
पीछे मुड़कर देखा तो दो गिलहरी आपस में खेल रहीं थीं 
बड़ा खूबसूरत वो पल था
बहुत रमणीक स्थल था 
खैर! इस पल को कहकर अलविदा 
मै उठा और वापस चल दिया
मन में लाखों सवाल थे कि सबको मै क्या बताऊँगा 
जो ठहराव मैंने आज महसूस किया उसे कैसे जताऊंगा 
चिंता की रेखाएं मेरे माथे पर आ गईं 
खूबसूरत पलों पर जैसे बदली छा गईं 
मै तबीयत का बहाना बनाकर चुपचाप अपने घर में सो गया 
एक रात गुजरी एक नया सबेरा फिर से हो गया 
पर मेरे मन में जीवित मेरा बीता हुआ कल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था

कविराज तरुण 

Tuesday, 26 November 2024

दो चार कदम

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं 

वो कौन है जिसकी मलकियत है मंजिल पर 
आओ उसका चेहरा बदल के देखते हैं

ख़्वाब में अक्सर अपना घर बनाने वालों 
हम ख़्वाब देखते हैं तो महल के देखते हैं

दिल को समझा रखा है किस बात के लिए 
दिलवालों के दिल तो मचल के देखते हैं

क्यों चकाचौंध है तेरे वजूद के इर्द गिर्द 
क्यों लोग तुझे आँखें मल मल के देखते हैं

तुम शमा के जैसे रौशन हो शामियाने में 
हम परवाने तेरी आग में जल के देखते हैं

तेरे इंतज़ार में मै रो भी नही सकता
मेरे कुछ यार मेरी पलकें देखते हैं

अब तो दौलत भी किसी काम की नही
गुड्डे गुड़ियों में फिर से बहल के देखते हैं 

कागज़ की नाँव बनाये ज़माना बीत गया 
बारिश है.. नंगे पाँव टहल के देखते हैं

आतिशबाजी है शोर है हिदायत भी है 
पर बच्चे कहाँ तमाशा संभल के देखते हैं

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं

मेरे घर के जालों की

मैंने अपने दिल की सुन ली तुमने दुनिया वालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

इन्हें पता है तुमने कैसे ख़्वाब दिखाए रातों में 
इन्हें पता है आशाओं के दीप जले थे बातों में
इन्हें पता तुम खुश कितनी हो जाती थी बरसातों में 
इन्हें पता है चलना फिरना हाथ पकड़कर हाथों में

इन्हें पता है अपनी सारी बातें बीते सालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

पहली दफा जो आई थी तो इन्हें हटाया था मैंने 
चिपक गए थे दीवारों से खूब छुड़ाया था मैंने
पर इनको इन दीवारों से जाने कैसी उल्फत थी 
मुझको तुमसे, इनको दीवारों से बड़ी मुहब्बत थी

तभी उकेरी दीवारों पर तस्वीरें उलझे बालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

इन जालों से कह लेता हूँ जो भी आता है मन में 
दर्द तेरे जाने का सहना सबसे मुश्किल जीवन में 
खुशियाँ लेकर चली गई तुम तबसे घर के आँगन में 
पतझड़ ही पतझड़ है शामिल वर्षा गर्मी सावन में

यही जानते हैं केवल गति क्या है हिय के छालों की 
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

Saturday, 2 November 2024

मिट्टी के दीपक लेते जाना

दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना 
बिक जायेंगे दीपक तो मिल जायेगा मुझको खाना

क्या तुम बस एलईडी से ही अपना घर चमकओगे 
या फिर मिट्टी के दीपक भी अपने घर ले जाओगे 
सोच समझकर जो भी मन में आये मुझको बतलाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

पिछली दीवाली में भी मै बैठा था इस कोने में 
मेरी सारी रात कटी थी मन ही मन बस रोने में 
इस बार अगर हो पाये तो मुझको ना तुम रुलवाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

उधर लाइट की चमक धमक है इधर बड़ा सन्नाटा है 
दीपक लेकर छत पर जाने में बालक शर्माता है 
उसे कभी तुम दीपक और दीवाली क्या है समझाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

मेरे घर में दीपक हैं पर रौशन कैसे कर दूँ मै 
भूखे हैं बच्चे मेरे पर पेट कहाँ से भर दूँ मै 
उन्हें पता क्या कितना मुश्किल है दीपक का बिक पाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

Thursday, 24 October 2024

ग़ज़ल- बताना तुम

जरा सी बात करना और हम से रूठ जाना तुम
यही आता यही करके हमें फिर से दिखाना तुम

मुझे लगता है सारी उम्र ऐसे बीत जायेगी
कभी तुमको मनाऊंगा कभी मुझको मनाना तुम

जमाने भर की दौलत का करूँगा क्या तुम्हारे बिन
मेरी हर एक पाई तुम मेरा सारा खजाना तुम

मै तुमसे जीत सकता हूँ मगर मै हार जाऊँगा 
मेरी बस एक कमजोरी नही आंसूँ बहाना तुम

'तरुण' होने की मुश्किल है कि बूढ़ा हो नही सकता 
बुढ़ापा आ भी जाये तो नही मुझको बताना तुम

Sunday, 20 October 2024

जंग

*मिलकर आवाज उठानी होगी, अधिकारों को पाना होगा*
*मूक रहोगे कबतक आखिर, एकदिन सच बतलाना होगा*
*एक अकेले के लड़ने से, जंग नही जीती जाती है*
*अगर जीत हासिल करनी तो, संग सभी को आना होगा*

कविराज तरुण

Thursday, 3 October 2024

जिंदगी गुजरने को है बताओ कब आओगे

जिंदगी गुजरने को है बताओ कब आओगे
जिस्म से जां निकल जायेगी तब आओगे

आज हवा में ठंड है पहले से कहीं ज्यादा
ये तो इशारे हैं कुदरत के मतलब आओगे

हमने गुलदान में कुछ फूल सजा रखे हैं
ये खुद-ब-खुद ही खिल जायेंगे जब आओगे

इसी उम्मीद में नींदों से किनारा किया हमने
रात के मुसाफिर हो जब होगी शब आओगे

दिल तोड़कर फिर से जोड़ा कैसे जाता है
हमें यकीन तुम दिखाने ये करतब आओगे

मुश्किल लगता है

उम्मीदों के बिन ये जीवन कितना मुश्किल लगता है 
रेत में जैसे पानी का ही बहना मुश्किल लगता है 

इक दूजे का हाथ पकड़कर चलने वाले बतलाये
एक अकेले तूफ़ानो में चलना मुश्किल लगता है

गैरों से तो जीत हार का खेल पुराना है साहब 
पर अपनों से बीच युद्ध मे लड़ना मुश्किल लगता है

जिन लोगों को होती आदत कसमें वादे करने की 
उन लोगों पर यार भरोसा करना मुश्किल लगता है

भरते भरते भर जाता है जख्म हमारी चोटों का 
पर जब दिल में जख्म हुआ तो भरना मुश्किल लगता है

कविराज तरुण 

क़त्ल भी होगा इल्जाम भी ना आयेगा

कत्ल भी होगा इल्जाम भी न आयेगा
तुम्हारा हुनर कुछ काम भी न आयेगा

उसके चाहने वालों की लंबी फेरहिस्त में
हमें ये यकीं है तेरा नाम भी न आयेगा

इंतजार में बैठे हो किसके और किसलिए
वो सुबह का भूला अब शाम भी न आयेगा

मान लो ये इश्क तुम्हारे बस का नही
दर्द भी होगा तुम्हे आराम भी न आयेगा

क्यों उसके आने की उम्मीद करें बैठे हो 
तुम देखना उसका पैगाम भी न आयेगा

गणमान्य हेतु विदाई प्रशंसा गीत

आसमान से ऊंचा निश्चय मन मस्तक में जिनके है
कार्यसिद्धि को पूर्ण समर्पण करना जिनकी आदत है

कल का जिनको अनुमान है और पता है जिन्हें आज का
जिनके रहता संज्ञान में स्तर कैसा काम काज का

जो रखते हैं ध्यान सभी का जैसे मुखिया परिवार में
जो भरते हैं ज्ञानचक्षु से ज्योत असीमित अंधकार में

जो उन्नति की दिशा दिखाते सबसे आगे चलते हैं
जो अपने ऊंचे आदर्शों से भाव जीत का भरते हैं

हमें खुशी है उनके जैसा पथ प्रदर्शक हमने पाया
यूं लगता है सूर्य अलौकिक आसमान में अपने छाया

यही कामना करते हमसब स्वास्थ्य हमेशा बना रहें
खुशियों का संचार आपके जीवन में अब सदा रहे

मुश्किल लगता है

उम्मीदों के बिन ये जीवन कितना मुश्किल लगता है 
रेत में जैसे पानी का ही बहना मुश्किल लगता है 

इक दूजे का हाथ पकड़कर चलने वाले बतलाये
एक अकेले तूफ़ानो में चलना मुश्किल लगता है

गैरों से तो जीत हार का खेल पुराना है साहब 
पर अपनों से बीच युद्ध मे लड़ना मुश्किल लगता है

जिन लोगों को होती आदत कसमें वादे करने की 
उन लोगों पर यार भरोसा करना मुश्किल लगता है

भरते भरते भर जाता है जख्म हमारी चोटों का 
पर जब दिल में जख्म हुआ तो भरना मुश्किल लगता है

कविराज तरुण 

मात्र चले जाने से कोई दूर नही होता है

चांद बिना तो अंबर में भी नूर नहीं होता है 
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है 
पल भर में ये रिश्ता चकनाचूर नहीं होता है 
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है 

मिलने और बिछड़ने का क्रम चलता रहता है 
सदा साथ रहने का सपना पलता रहता है 
पर बिछड़न के बिन किस्सा मशहूर नहीं होता है
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है

इन आंखों से कभी-कभी तो होगी ही बरसाते
अधर पुकारेंगे तुमको तुम काश चले आ जाते 
पर जो सोचो अक्सर वो मंजूर नही होता है
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है

परिवर्तन तो नियम है समझाना है खुद को 
नये सफर में नया जोश ले जाना है खुद को 
मुड़कर पीछे जाने का दस्तूर नही होता है 
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है

कुछ मिलता है हमें समय से कुछ मिलता है आगे 
कुछ तो ऐसा भी होता हम जिससे रहें आभागे 
पर मिल ना पाये तो खट्टा अंगूर नही होता है
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है

चांद बिना तो अंबर में भी नूर नहीं होता है 
मात्र चले जाने से कोई दूर नहीं होता है

जरूरी है बहुत

चाहत-ए-इश्क़ में नगमात जरूरी है बहुत 
वहाँद सितारों की बारात जरूरी है बहुत 

तुम मुझे जानो या न जानो, कोई बात नहीं
मै तुम्हें जानता हूँ, ये बात जरूरी है बहुत

मै दर्द सोख लेता हूँ ये यार मेरे कहते हैं
तुम्हें जो दर्द है तो मुलाकात जरूरी है बहुत 

मैंने हवा में लिखा तेरा नाम और आजाद किया
अब तो इन आंखों से बरसात जरूरी है बहुत 

केवल जिस्म के मिलने से तो नही होता है 
है अगर इश्क़ तो ज़ज़्बात जरूरी है बहुत

Wednesday, 2 October 2024

हे पार्थ बोलो किस तरफ हो

युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो
नेत्र से पट्टी हटाकर, दृष्टि खोलो किस तरफ हो

एक तरफ तो फूल की चादर बिछाये झूठ बैठा 
एक तरफ काँटों से लिपटा सत्य सबसे रूठ बैठा
एक तरफ ये आधियाँ हैं शोर है तूफ़ान का 
एक तरफ ये दीप परिचय दे रहा अभिमान का

तुम अँधेरे और उजाले में टटोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो

तुमको दुश्शासन के जैसे चीर हरने की ललक है
या सभा के मध्य तुमको मौन धरने की ललक है
क्या तुम्हें पांडव के जैसे शर्म से बस सिर झुकाना
या तुम्हें कान्हा की तरहाँ द्रोपदी को है बचाना

उस सभा में हो कहाँ तुम? भेद खोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो

कर्ण के जैसे तुम्हें कुण्डल कवच का दान करना 
या दुयोधन की तरह तुमको अहम् का पान करना
तुम पितामह की तरह चुपचाप सब कुछ देख लोगे 
या कि संजय की तरह बस युद्ध का दर्शन करोगे

तुम उचित-अनुचित के भीतर भार तोलो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो

तुम हो शकुनी शल्य हो जरसंध या फिर द्रोण हो 
नीति नियम से अपरिचित पात्र आखिर कौन हो 
अश्वथामा सा तुम्हें वरदान है क्या ये कहो 
तुमको अभिमन्यु के जैसे ज्ञान है क्या ये कहो 

या तुम्हें लगता हवा के साथ हो लो किस तरफ हो
युद्ध है ये धर्म का, हे पार्थ बोलो किस तरफ हो

©कविराज तरुण 

Wednesday, 25 September 2024

जो सदा धरातल पर रहता

जो सदा धरातल पर रहता उसका होता सम्मान सखे 
सकल सृष्टि के जीव जंतु करते उसका गुणगान सखे 

जो धर्म पर अपने चलता, अत्याचार नहीं स्वीकारेगा
कर्म क्षेत्र में कुछ भी हो, प्रतिकार नहीं स्वीकारेगा 
मानवता के बीच कभी, व्यापार नहीं स्वीकारेगा
हां! जब तक जीत नहीं जाता, वो हार नहीं स्वीकारेगा

इन्हीं तत्व से मिला जुला वो बनता है इंसान सखे 
जो सदा धरातल पर रहता उसका होता सम्मान सखे

द्वेषभावना लेकर मन में, चिंता का अम्बार लगेगा 
इतना दिल पर बोझ पड़ेगा, के जीना दुश्वार लगेगा
सरल नही तू बन पाया तो, कठिन जीत का द्वार लगेगा
मिथ्या बातें मिथ्या जीवन मिथ्या ये संसार लगेगा

लेष मात्र भी अपने अंदर रखना मत अभिमान सखे 
जो सदा धरातल पर रहता उसका होता सम्मान सखे

धारण कर लो अपने अंदर, रघुकुल की रघुराई को
रामचरित की मन में अंकित कर लो हर चौपाई को 
ऐसे देखो किसी और को, जैसे अपने भाई को
मर्यादा के नाम करो तुम, जीवन की तरुणाई को 

तब जाकर तुम कर पाओगे इस जीवन का उत्थान सखे 
जो सदा धरातल पर रहता उसका होता सम्मान सखे

Tuesday, 24 September 2024

संशय मुक्तक

संशय की घोर अवस्था में राही कैसा विश्राम 
तबतक चल तू जबतक आ जाये ना पूर्ण विराम
नियति नही नियम से आता है उत्तम परिणाम
बस नेक भाव से पूरित कर तू अपना सारा काम

Sunday, 22 September 2024

लिखो कुछ

अनगिनत अहसासों की असंख्य अठखेलियाँ
भ्रमित चेहरे को प्रश्नों का हल देती हैं |
जिह्वा से अनजाने में निकली कोई बात 
इतिहास के पन्नो को सहसा बदल देती है ||
उन्मुक्त विचारो की बहती हवा ही अक्सर
संकुचित दायरों को वृस्तित महल देती है |
रुको नहीं... कुछ सोचो ... कुछ लिखो या कहो कुछ
बात निकलती है तो नई उम्मीद को पहल देती है ||

Sunday, 8 September 2024

लहजा बदल के देख

सब काम होगा तेरा लहजा बदल के देख 
इकबार अपने घर से बाहर निकल के देख

है झुनझुना मोहब्बत ये जानते हैं फिर भी
कुछ देर के लिए ही इससे बहल के देख

किस ख़ाक में जवानी हमने गुजार दी है
ये देखना अगर हो दुनिया टहल के देख

ये क्या कि छोटे छोटे सपनों की सैर करना 
गर देखना है सपना रंगो-महल के देख

कुछ बात बोल दी है कुछ बात है अधूरी
जो माइने छुपे हैं मेरी ग़ज़ल के देख

Wednesday, 28 August 2024

कहाँ से आयेंगे

कौन कितने कब कहाँ से आयेंगे 
अपने नजदीकी मक़ाँ से आयेंगे 

वो तो दुश्मन हैं फ़रिश्ते थोड़ी हैं 
जोकि उड़ के आसमां से आयेंगे 

अहतियातन खुद को मजबूत रखना
तीर नश्तर के जबाँ से आयेंगे 

वक़्त बदला ना तरीका बदला है 
पीठ में खंजर छुपा के आयेंगे

दोस्त समझा तो बुराई क्या इसमें 
फैसले अब इम्तिहाँ से आयेंगे 

दिल लुटाने से नही फुर्सत जिनको 
अपना सबकुछ गवाँ के आयेंगे

कविराज तरुण 

Monday, 19 August 2024

दोस्ती

दोस्ती 

रश्मोरिवाज हमको सिखाती है दोस्ती
इंसान को इंसान बनाती है दोस्ती

अच्छा हो या बुरा हो कि अपना या गैर हो
इन सब से बड़ा मेल कराती है दोस्ती

रिश्ते भी जहां छोड़ चले अपने साथ को 
उस मोड़ पर भी साथ निभाती है दोस्ती

पापा भी कभी कॉल करें मेरे वास्ते 
तो झूठ भी सच बोल बचाती है दोस्ती

मम्मी के लिए दोस्त मेरे लाजवाब हैं 
मेरी माँ को सबकी माँ बनाती है दोस्ती 

यारों को पता है कि मेरा दिल कहाँ फ़िदा
इस बात पे भी शर्त लगाती है दोस्ती

वैसे तो मजे लूटने में छोड़ते नही 
नाराज अगर हों तो मनाती है दोस्ती

जब राह में हों मुश्किलें तो टोर्च की तरह 
दे रोशिनी वो राह दिखाती है दोस्ती

लड़ना जो पड़े भीड़ से तो दोस्त के लिए 
कुछ सोचे बिना हाथ उठाती है दोस्ती

गमख्वार बने ढाल बने गम के सामने 
तन्हाइयों में जश्न मनाती है दोस्ती

आँखों की नमी पोंछ के गालों के दरमियाँ 
हलचल सी मचा जोर हँसाती है दोस्ती

ये बात सभी मानते जब यार साथ हों 
तो हार में भी जीत दिलाती है दोस्ती



कविराज तरुण

Saturday, 10 August 2024

जीवन क्या है?

कविता - जीवन क्या है?

जीवन क्या है? हार-जीत की, मिली-जुली सी एक कहानी 
गगरी ऐसी! जिसमें सुख-दुख, दोनों आकर भरते पानी 

कभी अचंभित करने वाली, घटनाओं का आना-जाना 
कभी बिना रस फीका-फीका, इच्छाओं का ताना-बाना

कभी सफलता खुद आकर, चलने वाले का पाँव पखारे 
कभी विफलता 'धैर्य धरो तुम' कहकर तेरा नाम पुकारे

यही सफलता और विफलता हमें बनाये ध्यानी-ज्ञानी
जीवन क्या है? हार-जीत की, मिली-जुली सी एक कहानी 

बाल्य अवस्था में जीवन का रहता हरदम प्रश्न अधूरा 
बढ़ते-बढ़ते करते हम सब, इन प्रश्नों का आशय पूरा 

वृद्ध हुए तो लगता ऐसे, जैसे जीवन बहकावा है 
मिथ्या सारा जीव जगत है, झूठी सारी माया है 

बातों की अनबूझ पहेली, लेकर आये नई जवानी
इसी बीच अनबूझ पहेली, लेकर आये नई जवानी

कभी-कभी तो चकाचौंध में, लगा रहे लोगों का मेला 
कभी-कभी सब लोग अपरिचित, मन भीतर से रहे अकेला 

कभी -कभी उत्थान-पतन का कारण, अपनों की चतुराई 
कभी -कभी अपनों से ज्यादा, हमको प्यारी प्रीत पराई

इसी प्रीत की बातों में मन, खोजें कोई बात पुरानी
जीवन क्या है? हार-जीत की, मिली-जुली सी एक कहानी 
गगरी ऐसी! जिसमें सुख-दुख, दोनों आकर भरते पानी 

कविराज तरुण

Sunday, 28 July 2024

ग़ज़ल - अगर हैं मंजिले

अगर हैं मंजिलें तो फिर कहीं पर रास्ता होगा
हमारे हक़ में जो भी है कहीं पर तो लिखा होगा

मै मीलों दूर जाने के लिए तैयार कबसे हूँ
अगर तुम साथ होगे तो सफर मे हौसला होगा

मुझे कुछ सोचकर रब ने बनाया है अलग तुमसे 
मै जैसा हूँ, नही बदलो, बदलकर क्या भला होगा

कभी जब साथ बैठेंगे पुराने दिन की कुर्बत में
रही क्या गलतियां अपनी इसी पर मशवरा होगा

मुझे अफ़सोस होता है मगर मै भूल जाता हूँ
अगर सब याद आ जाये तो कैसे फासला होगा

कविराज तरुण 

Monday, 22 July 2024

हुंकार

हम कबसे अपनी आँखों में अंगार दबाये बैठे हैं 
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

तुम जुल्म हमारे ऊपर कर के पलभर ना घबराते हो 
ये अहंकार ऐसा भी क्या तुम इतना क्यों इतराते हो 

ये वक़्त का पहिया घूम रहा दरकार लगाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

वो कपटी लोग फरेबी हैं तुम जिनको गले लगाते हो 
वो झाँसा देते रहते हैं तुम झाँसे में आ जाते हो

क्यों आस्तीन में छुपकर वो अधिकार जमाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

खुद को भला समझते क्या हो ये तो जरा बताओ तुम 
हिम्मत है तो चाँद पकड़कर इस धरती पर लाओ तुम 

क्यों चाटुकार से भरा हुआ दरबार सजाये बैठे हैं
हम चुप हैं इसका मतलब है हुंकार छुपाये बैठे हैं

Wednesday, 17 July 2024

ग़ज़ल - सिलसिले

ग़ज़ल - सिलसिले
©कविराज तरुण 

बड़े हुजूम से निकले तुम्हारे काफ़िले हैं 
बहुत से लोग ऐसे हैं जो तुमसे जा मिले हैं

तुम्हारे जुल्म के चर्चे सुनाई दे रहें हैं 
मगर मै कुछ नही कहता भले शिकवे-गिले हैं

मुझे तो बात बस ये ही तसल्ली दे रही है 
हमारे नाम से रौशन तुम्हारी महफिले हैं

जमीं पे कुछ नही निकला हमारे क्यों अभी तक 
उधर तो पत्थरों में भी तुम्हारे गुल खिले हैं

किसी से क्या बताऊँ हाल क्या है अब हमारा 
कहानी फिर वही है और फिर वो सिलसिले हैं

बहुत से लोग ऐसे हैं जो तुमसे जा मिले हैं

Sunday, 23 June 2024

तू साथ है मेरे

मुझको गुरूर था तू साथ है मेरे 
आँखों में नूर था तू साथ है मेरे 

कोई और हो न हो क्या फर्क है मुझे 
इतना जरूर था तू साथ है मेरे 

ये खौफ ये सजा ये दर्द ये सितम 
इन सबसे दूर था तू पास है मेरे

परवाह नही कोई किस ओर थे कदम 
कैसा फितूर था तू साथ है मेरे

जो बात चल पड़ी वो बात हो गई 
बस जी हुजूर था तू साथ है मेरे

जरुरत क्या है

चिंगारी भड़काने की जरुरत क्या है 
दिल मे आग लगाने की जरुरत क्या है 

मै कबसे तेरे जलवों का मुरीद हूँ 
तो मुझसे इतराने की जरुरत क्या है

तेरी हर बात से सहमत हो जाता हूँ 
फिर इतना समझाने की जरुरत क्या है

ज़ख्म से मुहब्बत का नाता गहरा है 
इस पे मरहम लगाने की जरुरत क्या है

बस तेरा साथ चाहिए और कुछ नही
इस बेदर्द ज़माने की जरुरत क्या है

Tuesday, 18 June 2024

कोशिश में रहा

मै दिल को आजमाने की कोशिश में रहा
अपनों को मनाने की कोशिश में रहा

तुम्हें पाने की रेखाएं तो थी ही नही
फिर भी तुझे पाने की कोशिश में रहा

अलफ़ाजों से दिल की बात न निकली
मै खामोशियाँ बताने की कोशिश में रहा

तेरे सच से मेरा कोई वास्ता नही है
तेरा झूठ ही छुपाने की कोशिश में रहा 

मुझे मालूम है तुझे मेरी याद आएगी
सो मै यादें बनाने की कोशिश में रहा

कविराज तरुण

Wednesday, 22 May 2024

बैठ जाते हैं

जहाँ से तुम गुजरते हो वहीँ पर बैठ जाते हैं 
अगर दाना मिले छत पर कबूतर बैठ जाते हैं

तुम्हारे घर के बाहर पत्थरों का ढेर कहता है 
मै इकलौता नहीं ऐसा अधिकतर बैठ जाते हैं

अजब सी बात लहरों ने बताई है मुझे तेरी 
किनारे तुम जो आती हो समंदर बैठ जाते हैं

मै बिल्कुल साफ शब्दों में उन्हें दिल की बताता हूँ
मगर वो फ़ालतू बातें बनाकर बैठ जाते हैं

मुझे तो तैरकर ही ये सफर अब पार करना है 
मै काठी हूँ सुना पानी में पत्थर बैठ जाते हैं 

कविराज तरुण

Thursday, 9 May 2024

जुदाई न दे

आग भी निकले धुआँ भी ये दिखाई न दे
लफ्ज़ हम दोनों के गैरों को सुनाई न दे

इसतरह महफूज़ हो जाये मुहब्बत मेरी 
तू अगर चाहे तो भी मुझको जुदाई न दे

ये बड़ा वाजिब है आँखों मे तेरी कैद रहूँ 
ये जरूरी है कि तू मुझको रिहाई न दे

दर्द जो देने हैं तू दे दे मुझे मंजूर है 
शर्त बस ये है कि फिर उसकी दवाई न दे

आज मै जो हूँ दुआओं का तेरे हाथ है 
खामखाँ इस बात पर मुझको बधाई न दे

कविराज तरुण

Wednesday, 3 April 2024

मशाल

सत्य के जो साथ हो, उसको क्या मलाल हो 
आँख में जूनून हो, हाथ में मशाल हो 
लक्ष्य क्यों सरल मिले, वो भव्य हो विशाल हो 
जीतना पड़े कि ऐसे, उसकी भी मिसाल हो 
रोक दे तुझे कोई, किसकी ये मजाल हो 
दुश्मनों की भीड़ बोले, तुम स्वयं ही काल हो

Wednesday, 6 March 2024

कविता - नारी जीवन || कविराज तरुण

कविता - नारी जीवन || कविराज तरुण || 7007789629

नारी जीवन बहुत कठिन है पग पग देखभाल के चलना
बेटी बनकर बाबुल के घर उनकी सारी चिंता हरना

बड़े भाई की निगरानी में अपने सारे फर्ज निभाना
और छोटे की माँ बन करके भले बुरे का भेद बताना
दादा दादी चाचा ताऊ सब रिश्तों में घुल मिल जाना
पापा की नित सेवा करना और मम्मी का हाथ बटाना

फिर इक दिन बाबुल के घर से दुल्हन बनकर दूर निकलना
नारी जीवन बहुत कठिन है पग पग देखभाल के चलना

पियहर में रिश्तों की डोरी नाजुक है ये भान उसे है
ननद जिठानी सास ससुर का हरदम रहता ध्यान उसे है
सबके हित का सोच रही वो सबका ही सम्मान उसे है
संग पिया के रहना उसको केवल ये अरमान उसे है

प्रेम भाव में प्रियतम से ही उसका लड़ना और झगड़ना
नारी जीवन बहुत कठिन है पग पग देखभाल के चलना

हालांकि उसके जीवन में भी सपनों का अम्बार बहुत है
उसके अंदर क्षमता इतनी जीवन में किरदार बहुत है
देख रही वो ऑफिस बिजनस देख रही परिवार बहुत है
उसे सफलता के पर्वत पर जाने का अधिकार बहुत है

यही सोचकर चलते रहना जीवन पथ पर आगे बढ़ना
नारी जीवन बहुत कठिन है पग पग देखभाल के चलना

Tuesday, 5 March 2024

ग़ज़ल - उसकी मासूमियत

ग़ज़ल - उसकी मासूमियत || कविराज तरुण || 7007789629

उसकी मासूमियत पर फ़िदा हो गए मेरे अल्फाज़ भी मेरे ज़ज़्बात भी
हम उसे देखकर ये कहाँ खो गए अब कटेगी नही मेरी ये रात भी

अब के मुस्का के तुमने जो देखा मुझे तो मै दिल को भला कैसे समझाऊंगा
मुझको डर है कहीं दिल ना दे दूँ तुम्हें कितने नाजुक हुए मेरे हालात भी

यूँ तो मुश्किल भरा है सफर ये मेरा आप आओगे तो रोशिनी आएगी
गूँज जायेगी ऐसे गली ये मेरी जैसे गलियों में गूंजे ये बारात भी

एक तो तू हसीं उसपे ऐसी अदा उसपे आवाज में मदभरा ये नशा
उसपे मौसम का ये जादुई पैतरा आज हद करने आई है बरसात भी

जबसे लिखने लगा हूँ तुम्हें नज़्म में सब मुबारक मुबारक ही कहने लगे
हो गए हैं रुहानी मेरे शेर भी हो गए हैं रुहानी ये नगमात भी

ग़ज़ल - थोड़ा धीरे धीरे

ग़ज़ल - थोड़ा धीरे धीरे || कविराज तरुण || 7007789629

सच को झूठ बताना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे
दुख में भी मुस्काना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे

वक़्त लगेगा कहते कहते ज़ख्म मेरा गहराया है
पर मुझको दर्द छुपाना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे

एक नही दो नही न जाने कितनी बार सताया है 
फिर भी उसे मनाना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे

इश्तहार में निकला है कल नाम हमारा महफिल से
ये तुमको भी दिखलाना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे

इक बार इजाजत दो मुझको तो दुनिया तेरे नाम करूँ
ये बातें करते जाना है और वो भी थोड़ा धीरे-धीरे

Tuesday, 9 January 2024

ग़ज़ल - खो गईं वो चिट्ठियां

खो गईं वो चिट्ठियां जिसमें लिखे ज़ज़्बात मैंने
प्यार की अंगड़ाईयों में अनकहे हालात मैंने

एक दिन बीता नही लगने लगा के साल बीते
बिन तुम्हारे किस कदर काटे यहाँ दिन रात मैंने

झूमकर नाचा था मै भी दिलजलो की भीड़ में तब
जब तुम्हारे घर पे देखी और की बारात मैंने

तुमने तो बस कह दिया के भूल जाओ तुम मुझे अब
और फिर घंटों करी थी आँख से बरसात मैंने

ख़त्म होती है कहानी प्यार के जिस मोड़ पर ये
उस जगह से की हमारे प्यार की शुरुआत मैंने