Monday 24 November 2014

मिल गया होता

तारों को चमकने का बहाना मिल गया होता ।
जो बादल को फलक से दूर ठिकाना मिल गया होता ।
मै आवारा 'तरुण' हूँ दुनिया की बेबाक नज़रों मे ...
जो मेरे दर्द ना होते तो अफ़साना मिल गया होता ।
बड़ी बद्सलूखी की मेरे दिल ने तेरे दिल से ...
अज़ब सी दिलकशी की मेरे दिल ने तेरे दिल से ...
समझ लेती अगर दिल को तो दिवाना मिल गया होता ।
ज़िन्दगी खुल के जीने का बनामा मिल गया होता ।
अब तो आँख से आँसू भी कतरा कतरा रोते हैं ।
बची शायद नही बूँदें ये बस पलकें भिगोते हैं ।
इन्हें आँसू भरा कोई खज़ाना मिल गया होता ।
तो मेरे लफ्ज़ को बेहतर तराना मिल गया होता ।
वो बोले दिन तो है ये दिन , वो बोले तो शाम है ये ।
जो सूरज को कहें चन्दा तो बेशक नाम है ये ।
अगर जिद थोड़ी रख लेते तो आशियाना मिल गया होता ।
मेरी इस अब्र को बारिश का नज़राना मिल गया होता ।
ना अब तो नींद आँखों मे , ना है अब चैन एक पल का ।
धड़कन को सुने कोई तो जाने हाल हलचल का ।
बेसुध मन की हालत को फ़साना मिल गया होता ।
जो तुम मिलती तो मुझको ये ज़माना मिल गया होता ।
चलो अब खैर जाने दो ये बिन सिर - पैर की बातें ।
नही आता मुझे करना , किसी भी गैर की बातें ।
जो तुम पहचान लेती अक्स तो फिर बेगाना मिल गया ।
है जो अब भीड़ का हिस्सा वो किस्सा पुराना मिल गया होता ।

कविराज तरुण

Thursday 20 November 2014

नैन

बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।
स्वप्न द्वार पलकों से खोलते हुए नैन ।
और कुटिल सी मुस्कान
जिसपर अर्क गुलाबी सा निशान
चुरा लेंगे अनगिनत दीवानों का चैन ।
बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।
इसकी आभा की उपमा कुछ भी नही
बंद हो तो नज़ाकत, जो खुले तो शरारत
एक टकी से जो देखे , तो फिर हो कयामत
घूर दे तो नसीहत , झपकी ले तो मोहब्बत
चौक कर जब ये देखे , तो फिर विस्मित अकीदत
कभी ये इबादत कभी ये शराफत
कभी ये हकीकत कभी ये इबारत
इस खुदा की सबसे अनोखी ये देन ।
बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।

--- कविराज तरुण

Wednesday 5 November 2014

बेवजह

अपनों की भीड़ मे, मुझे भूल जाना बेवजह ।
मै हँसता सा दिखूँ , तुम रुलाना बेवजह ।
बाँध कर रखा है मुझे, मेरे ज़ज्बातो की कसम ।
प्यार गैरों के लिए, मेरी किस्मत मे बस सितम ।
करूँ जो मै शिकायत, तो नसीहत हर कदम ।
तोड़ दे दिल मेरा अब, कर दे एक ज़रा सा रहम ।
प्यार का अब ठिकाना , क्यों बनाना बेवजह ।
अपनों की भीड़ मे, भूल जाना बेवजह ।
था भरोसा इश्क पर, झूठा गुरूर था ।
बस नशे की रात सा, एक शुरूर था ।
उतर जाना थी फिदरत, नही तेरा कसूर था ।
मगर तुझको ही किस्मत, हमने माना जरूर था ।
बची इज्ज़त को महफ़िल मे, क्यों लुटाना बेवजह ।
अपनों की भीड़ मे, मुझे भूल जाना बेवजह ।

--- कविराज तरुण

Sunday 2 November 2014

जरुरी था

मै टूट जाऊंगा
बर्बाद भी हो जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
मेरा ना तो जीना जरुरी था ।
ना ही मेरा मरना जरुरी था ।
सिर्फ अपने आपसे मेरा अभी...
लड़ना जरुरी था ।
इसी कश्मोकश मे
पानी सा बिखर जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
सिलसिला सवालों का तुझे बदलना जरुरी था ।
मोहब्बत मे एक उमर अपनी गुजरना जरुरी था ।
ख़त्म कर देती भले कहानी बिन कहे तुम ...
पर एक दुसरे से एक दफा अभी मिलना जरुरी था ।
इस कहानी से बैरंग
मै गुजर जाऊँगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।
सावन के फुहारों का ज़रा जलना जरुरी था ।
कि हल्की आँच पर अहसास का पिघलना जरुरी था ।
हुई जब बात तो ज़ज्बात की नौबत नही आई...
इसी हालात का अपने अभी बदलना जरुरी था ।
ना बदल पाया तो मै
खुद से मुकर जाऊंगा ।
तू नज़र आयेगी
पर मै नज़र नही आऊंगा ।

--- कविराज तरुण