Wednesday 30 August 2017

ग़ज़ल 29- ऐ मिरे हमसफ़र

ग़ज़ल - ऐ मिरे हमसफ़र
बहर - 212x8

आँख की मस्तियाँ , बात की चासनी , ये न कहना तुझे , है मुहब्बत नही ।
हो फरेबी अगर , साफ़ ये बोल दो , दिल लगाने की' तुझको , जरूरत नही ।।

यूँ तिरे हुस्न की , हर तरफ है ख़बर , हाँ मुझे भी ज़रा , हो गया है असर ।
शरबती आँख का , हूँ मुरीदी सनम , और कोई तमन्ना , इबादत नही ।।

हर खिले फूल का , कोई' माली भी' है , है जवाबी अगर , तो सवाली भी है ।
तुम भी' समझो मुझे, राज़ सब खोल दो , चुप रहो जो हमेशा , शराफ़त नही ।।

सर झुकाउंगा मै , हाँ मनाऊंगा मै , दिल तिरा नेक हो , तो रिझाऊंगा मै ।
तुम बनो गीत सी , हाँ दिखो मीत सी , फिर युं जाने की' तुमको , इजाज़त नही ।।

तुम भरोसा करो , मै भरोसा करूँ , दो कदम तुम चलो , दो कदम मै चलूँ ।
कह रहा ये तरुण , ऐ मिरे हमसफ़र , भूलकर भी करूंगा , बग़ावत नही ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
व्हाट्सएप- 9451348935

हमारी हिंदी

राष्ट्रभाषा ग़ज़ल
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मुझे हिंदी ही' प्यारी है , बहुत भाषा विचारी है ।
मगर अफ़सोस है इतना , वो' अपनों से ही' हारी है ।।

बड़ी मासूम है हिंदी , सभी के साथ चलती है ।
मिले ताने हमेशा क्यों , रहे बनकर बिचारी है ।।

हमारी शान है हिंदी , हमारी जान है हिंदी ।
ये' चारो धाम हैं इसके , यही कन्याकुमारी है ।।

लगे की माँ बुलाती है , कि जब आवाज़ आती है ।
उदर के साथ ही निकली , जुबां इतनी ये' प्यारी है ।।

चलो छोड़ो भरम अपने , कभी ये गुनगुनाओ तो ।
तरुण हिंदी शरम कैसी , सभी पर ये ही' भारी है ।।

कविराज तरुण सक्षम

Tuesday 29 August 2017

सुहाने पल

आज का विषय - सुहाने पल

दूरांत किसी कोने में
किसी स्याही सी काली रात में
सन्नाटे की अंतरिम ध्वनि
जो भँवरे की तरह ही
गूंजित हो रही थी कर्णपटल पर
पर चुभ रही थी
कोशिश तो यही थी
कि एकांत मिले
एक ऐसा एकांत जहाँ
सन्नाटे की भी ध्वनि न पहुँच पाये
पर मै असहाय
अपनी आँख बंद किये
मस्तिष्क की नसों की मंद किये
महसूस कर रहा हूँ
वायु-चापो को
जो कुछ सुना रही है
उसकी भी ध्वनि आ रही है
नही रोक सकता जिसे मै
चाहे कितने कोने में चला जाऊँ
खुद को कितना भी छुपाऊँ
प्रकृति व जीवन हैं अटल
रुकती नही है इनकी गति
करती रहेंगी ये हलचल
इस ध्वनि में ही खोजो नित संगीत
इसमें ही छुपे हैं
सुहाने पल

कविराज तरुण 'सक्षम'

मृगनयनी

विषय - मृगनयनी

ओ मृगनयनी तेरे नेत्र सुहावन ।
अम्बर से नीले कजरी पावन ।
है पलकों के भीतर अल्हड़ रैन ।
निजभाषा में करते नित सैन ।

बंद रहकर भी तेरे बोलते हुए नैन ।
स्वप्न द्वार पलकों से खोलते हुए नैन ।
और कुटिल सी मुस्कान
जिसपर अर्क गुलाबी सा निशान
चुरा लेंगे अनगिनत दीवानों का चैन ।
बंद रहकर भी तेरे बोलते हुए नैन ।

इसकी आभा की उपमा कुछ भी नही
बंद हो तो नज़ाकत, जो खुले तो शरारत
एक टकी से जो देखे , तो फिर हो कयामत
घूर दे तो नसीहत , झपकी ले तो मोहब्बत
चौक कर जब ये देखे , तो फिर विस्मित अकीदत
कभी ये इबादत कभी ये शराफत
कभी ये हकीकत कभी ये मुहब्बत
इस खुदा की सबसे अनोखी ये देन ।
बंद रहकर भी बोलते हुए नैन ।

 
 कविराज तरुण 'सक्षम'

Monday 28 August 2017

ग़ज़ल 27- मजा आ गया

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मजा आ गया

जो न मैंने कहा , सुन लिया आपने ,दिल ने घंटी बजाई , मजा आ गया ।
साँस थमने लगी , आँख झुकने लगी , इक लहर दौड़ आई , मजा आ गया ।।

बरकते हुस्न की , शबनमी चाँदनी, क्या कहूँ खूब हो , दिलकशीं लाजिमी ।
बेसबर सा हुआ , बेखबर सा हुआ , बेअसर सब बुराई , मजा आ गया ।।

मै भटकता रहा , रोज बाज़ार में , प्यार बिकता दिखा , आज संसार मे ।
इक तुही पाक है , तेरा' अंदाज है, तुमसे' नजरें मिलाई , मज़ा आ गया ।।

बात बढ़ने लगी , साथ चलने लगी , ये जमीं वादियां , यार मिलने लगी ।
मेहमां अब नही , दिल के मालिक हुये , ये वसीयत लिखाई , मज़ा आ गया ।।

मौशिकी के लिये , आशिक़ी की लिये , तुम बने साहिबा , जिंदगी के लिये ।
है 'तरुण' आज खुश , रहनुमा तुम मिरे , धुन जो' ये गुनगुनाई , मज़ा आ गया ।।

कविराज तरुण सक्षम

Saturday 26 August 2017

ग़ज़ल 26- नही मिलती

कभी साहिल नही मिलता , कभी मंजिल नही मिलती ।
मिरे ज़ख्मो को' जाने क्यों , दवा काबिल नही मिलती ।।

बड़ी तकरार होती है , ज़रा सी बात पर अब तो ।
नही रहबर मिले कोई कहीं महफ़िल नही मिलती ।।

जमीं है चाँद तारे भी , गवाही है मुहब्बत की ।
मगर वो ही ख़फ़ा हैं तो , ख़ुशी इस दिल नही मिलती ।।

भरम है आबदानी का , जहाँ आँसू ही' मोती हैं ।
तिरी चाहत न होती तो , पलक बोझिल नही मिलती ।।

'तरुण' बेबस तरानो का , नही हक़दार सौदाई ।
अदावत की मिलावट से , फ़िज़ा आदिल नही मिलती ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Thursday 24 August 2017

ग़ज़ल 25- वो रूठ जाता है

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ख़फ़ा होता है' जब मुझसे बहुत ही दूर जाता है ।
बिताये जो हसीं लम्हे , वक़त वो भूल जाता है ।।

ठहर जाऊँ कभी उसकी गली में और चौखट पे ।
चला जाता वो' छज्जे से मिरा दिल टूट जाता है ।।

नज़र मुददत से' मिलती है करूँ दीदार कैसे मै ।
पलक उठती नही उसकी हमेशा रूठ जाता है ।।

शिकायत हैं बड़ी शायद वफ़ा की बात मत पूछो ।
सफाई दे नही पाते ये' लम्हा छूट जाता है ।।

इनायत भी खुदा की रूबरू होती नही मुझसे ।
मिरे हिस्से की' ये दौलत , तरुण वो लूट जाता है ।।

कविराज तरुण

Tuesday 22 August 2017

ग़ज़ल 24- मिल गया होता

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आरा
मिल गया होता

जो' मुझको प्यार का कोई इशारा मिल गया होता ।
नदी भी मिल गई होती किनारा मिल गया होता ।।

बड़ी बेचैन सी ये जिंदगी है आज राहों मे ।
कमी तेरी जो भर पाती गुजारा मिल गया होता ।।

मुझे बदनाम करने की वक़ालत कर रहे वो ही ।
जिसे शीशे मे' खुद अपना नज़ारा मिल गया होता ।।

हसीं हैं चाँद तारे ये हसीं है रात ख़्वाबो की ।
जो' आते पास लम्हा भी गवारा मिल गया होता ।।

करी हैं कोशिशें खुद से , यकीं तुमको नही होगा ।
'तरुण' को गर समझ लेते , दुबारा मिल गया होता ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Thursday 17 August 2017

दुःख क्यों है : नारी प्रधान रचना

विषय - दुःख क्यों है : नारी प्रधान रचना

नारी ने नारी को जन्मा फिर उसको दुःख क्यों है ?
भूल गई क्या अपना बचपन फिर उसको दुःख क्यों है ?

सोचा करती थी वो अक्सर , मै सब सहती ही जाऊँगी ।
पर जब आएगी बेटी घर में , मै खुशियाँ खूब मनाऊंगी ।
खेल खिलौने खील बताशे , केवल लड़को के ही हिस्से क्यों ?
मै अपनी बिटिया को लड्डू , छप्पन भोग खिलाऊँगी ।

पढ़ा लिखा कर अफसर बेटी , जब द्वार खोल कर आयेगी ।
मेरे टूटे सपनो की गगरी , खुशियों से भर जायेगी ।
तब मै देखूँगी उसमे ही , अपने अतीत का स्वप्न प्रबल ।
सच्चे अर्थों में ये माँ उसदिन , अंदर से मुस्कायेगी ।

पर जब नन्ही कली जीवन में , खुशियां लेकर आई है
वो माँ दुःख से भरी हुई है , न जाने क्यों घबराई है
बचपन के सपने भूल के सारे , भूल के अपने किस्से
बेटी बेटी कहती थी पर , बेटे को अब ललचाई है

बेटी है अंचल में सुन्दर फिर भी उसको दुःख क्यों है ?
नारी ने नारी को जन्मा फिर भी उसको दुःख क्यों है ?

कविराज तरुण 'सक्षम'

Wednesday 16 August 2017

ग़ज़ल 23- दुआयें साथ चलती हैं

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बुलंदी पर बड़ी तीख़ी हवायें साथ चलती हैं ।
भटकने वो नही देती दुआयें साथ चलती हैं ।।

यूँ' ज़िल्लत की इजाज़त माँगती कब जिंदगी हमसे ।
कभी लंगड़ी कभी ठोकर सदायें साथ चलती हैं ।।

मै' गिरता हूँ सँभलता हूँ फ़क़त मै आदमी तो हूँ ।
जुबानी जंग में अक्सर फिजायें साथ चलती हैं ।।

मिरे असरार फीके हैं मगर ये हैं गलीमत है ।
बिना बोले कहाँ दिल की अदायें साथ चलती हैं ।।

'तरुण' रुकना मना है आज इस असफार में बेशक ।
जो' हिम्मत की क़वायद हो दिशायें साथ चलती हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Thursday 10 August 2017

ग़ज़ल 22- प्राण हिंदुस्तान हो

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ग़ज़ल - प्राण हिंदुस्तान हो

जब हथेली पर सजाकर मौत ही महमान हो ।
तो अमर है जान उसका प्राण हिंदुस्तान हो ।।

चैन में वो हद नहीं सरहद चले जब गोलियां ।
ख़ाक दुश्मन को करे ऐसा ही' मन में भान हो ।।

मौत से कहना तकल्लुफ छोड़ दे मै वो नही ।
सामने हथियार डाले जो नसल बेमान हो ।।

बुज़दिली आती नही बेबाकियां जाती नही ।
रूह अस्मत खून नस नस देश पर कुर्बान हो ।।

हिंद हूँ मै भारती सुत गंग सतलज धार हूँ ।
तोड़ बंधन चल पड़े गर सामने व्यवधान हो ।।

कविराज तरुण सक्षम

ग़ज़ल 20- मुहब्बत मर गयी

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ग़ज़ल - मुहब्बत मर गयी

सिलसिला कुछ यूँ चला मेरी शराफत मर गयी ।
छोड़ कर उसकी गली अब ये मुहब्बत मर गयी ।।

थाम कर था रख लिया मैंने हसीं जज़्बात को ।
आँख की कोरी सियाही की नियामत मर गयी ।।

मै पशो-उर-पेश मे वो रासता तकता रहा ।
कहकशों की दौड़ मे अहसास चाहत मर गयी ।।

सर्दियों की मौज मे अब बर्फ़ भी गिरने लगी ।
जम गये असरार मेरे तो अकीदत मर गयी ।।

मुन्तज़िर था मै कि वो आये वफ़ा के साथ मे ।
गैर के कंधे दिखा सिर सारी' हसरत मर गयी ।।

जब तराशा हाथ को हमने ज़िगर की आंच पे ।
ख़्वाब पाने का भरोसा और क़ूवत मर गयी ।।

मुफ़लिसी दिल की करी तुम दिलरुबा हो ही नही ।
मै तरुण ख़ामोश बैठा और दौलत मर गयी ।।

*कविराज तरुण सक्षम*