Saturday 11 January 2014

बदलाव

बदलाव

केजरी ने पहना आज केसरी बाना
बेदी ने भेदा है आज फिर निशाना
अन्ना तमन्ना के बीज फिर से बो रहे
भूषण के भाषण से भ्रष्ट आज रो रहे
प्रशांत शांत भाव से कर रहे हैं प्रार्थना
उठो तरुण आज कर दो सिंह की गर्जना
दिला दो देश जो आज फिर आज़ादी
जय हिन्द के नारों से भर दो सारी वादी
अग्निवेश के संग देश कदम कदम मिला रहा
संतोष का जोश संसद को हिला रहा
हम भी खड़े कतार में
चाहे भेज दो तिहाड़ में
रूक न पाएगी आवाज़ ये देश तिलमिला रहा
जावान खून सड़को पे आज अन्ना संग आ रहा

--- कविराज तरुण

Friday 10 January 2014

पथ प्रदर्शक

पथ प्रदर्शक

पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
घनघोर दिशायें तूफां हर पल
चट-चाटती राहें ह्रदय कल कल
रोये निकले तब अख से जल
कर दे ये सब बस भाव विह्वल
पथवृक्ष लगे कांटो का घर
पर फिर भी नित तू चलता चल
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
रणभेरी कुंजो की धार है तू
शक्ति सन्लगित हथियार है तू
माँ का पावन निर्मल प्यार है तू
पिता की वाणी और संस्कार है तू
नभ शून्य बना दे भर दे तल
द्वेष राग को तू कर निर्बल
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
जो गिरे कहीं तूफानों मे
उठ जा और फिर से कोशिश कर
ज्यों अभ्यासों को कर कर कर
जड़मति भी बन जाता बुधिधर
तो फिर क्यों तू निर आसित हो
यूं आँख मूदता रो रो कर
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।

--- कविराज तरुण

प्रिय वियोग गीत

प्रिय वियोग गीत

प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।
ये निश दिन बरसा करते हैं ,
व्यर्थ निकल ही आते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

विरह वेदना क्षणिक नही ,
जीवन भर साथ निभाते हैं ।
विछोभ तुम्हारा सह सह कर ,
नित आँखों से अश्रु लुटाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

वो दिन बचपन के अब भी ,
प्रतिबिम्ब से मन मे छाते हैं ।
और आँखों से बाहर आने को ,
पलकों मे होड़ मचाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

हमसे दूर गए तुम जबसे ,
ना हम हँसते हैं ना मुस्काते हैं ।
तुमसे बिछुड़कर सच कह दूँ ,
हम एक पल भी ना रह पाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

सावन के झूले बिन तेरे ,
हमको नही लुभाते हैं ।
बारिश क्या बादल करते हैं ,
इन आँसू से ये डर जाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

हम पिस पिस कर ये रिस रिस कर ,
अंगो को मेरे भिगाते हैं ।
हवा के झोंके फूलों के रंग ,
हमें मन ही मन तड़पाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

याद तेरी धड़कन पर भारी ,
हम अक्सर रोये जाते हैं ।
विरह के दिन ये कब गुजरेंगे ,
ये नैना तुम्हे बुलाते हैं ।
प्रिय तुम नयनो में बस जाओ ,
ये अश्क बहुत सताते हैं ।।

--- कविराज तरुण

आज के संत

आज के संत

मै यही सोचता रह रह कर
ये कैसे आज के संत
वेद कोई पढ़ा नही
व्यर्थ बोलते मन्त्र
ये कैसे आज के संत ।
एक बात कुछ रोज की है
जब मेला लगा विशाल
सामने प्रचल वाहिनी गंगा
पीछे लगी कतार
कोई बूढ़ा था कोई
बच्चा और जवान
कुछ अधमरे पड़े हुए थे
कुछ की बाकी नही थी जान
मै भी था कुंभ की इस अथाह भीड़ मे
वीडियोग्राफी के संग
कुछ साधू बैठे बजा रहे थे
अनगिनतो सुंदर शंख
पर उनका ध्यान हटा उन्होंने
जब देखा मेरा यंत्र
चकित भाव से पास आ गए
छोड़ के सारे तंत्र
बोले ये बच्चा क्या है
जीव या अवतार
मैंने फिर ये बोला बाबा
ये है विज्ञान का चमत्कार
फिर बाबा लोगो ने खिचातानी मे
उसमे आँख लगाई
देख कर वे सब दंग हो गए
गंगा निकट थी आई
जब देखी बंद कैमरे मे ये
अखिल सृष्टि सुकड़ाई
और लाखो ने एक पल मे ही
डुबकी खूब लगाई
तो प्रभु की महिमा ख़त्म हुई
विज्ञान ने फूंका मन्त्र
कुछ साधू संतों ने किया तुरत ही
धर्म का सुन्दर अंत
मै यही सोचता रह रह कर
ये कैसे आज के संत
वेद कोई पढ़ा नही
व्यर्थ बोलते मन्त्र
ये कैसे आज के संत ।।

--- कविराज तरुण

प्रथम कविता

प्रथम कविता

क्या हुआ अचानक मनु को
जिसने प्रथम कविता थी बनाई
क्या हृदय मे उसके अथाह पीड़ा
विषसम थी भर आई
भरे नेत्र से उसके
और थी शीथलता सी छाई
या विरह वियोग ने उसके
हिय की गति बढ़ाई
उसके मन मे अनजान एक क्यों
भाव अमिट सा जागा
वह कल्प तरन्नुम मे गोते खाने
आखिर क्यों था भागा
यह विषम प्रश्न मेरे कानों मे
देने लगा सुनाई
समझ नही मुझे आ रहा
मनु ने कविता क्यों उपजाई
ये गहन बात चिंतन की अब
नैनों में आई रुलाई
कह दो कोई कारण क्या
जो पहली कविता बन पाई ।।

--- कविराज तरुण

बचपन की यादें

बचपन की यादें

वो सालो साल पहले जब मै पैदा हुआ था
कुछ लोग कहते गेंहू कुछ कहते मैदा हुआ था
पर मुझे क्या पता , थी मुझे क्या खबर
कि मै ऐसा हुआ था कि कैसा हुआ था ।
कुछ वर्ष बीते मुझे याद आ रहा है
वो बचपन के लड्डू का स्वाद भा रहा है
वो माँ का आँचल , वो आँखों का पानी
सुर्ख होंटो से वो मेरे गालों पर निशानी
पापा का मेरे दफ्तर से आना
वो लोरी गाना वो सिर सहलाना
कंधो पर अपने मुझको घुमाना
उँगली पकड़कर चलना सिखाना
वो लम्हे आज क्यों यूं याद आ रहे
वो किस्से आज क्यों यूं हमें सता रहे ।
पहली बार जब टीचर ने माँ से हाथ छुड़ाया था
कोई तो बताये मै कितना चिल्लाया था
क्लास में पहला दिन मै मायूस हो रहा था
टीचर से छुपकर मै कितना रो रहा था
इंतज़ार में था ये आँखें माँ से कब मिलेगी
मुरझाये फूलों की ये बगिया फिरसे कब खिलेगी
फिर छुट्टी हुई मै घर को गया
माँ से लिपटा , रूठा और ना जाने कब सो गया ।
फिर धीरे धीरे वक़्त बीते माह और साल बीते
समय खिसकता गया मैंने कई पुरस्कार जीते
था एहसास मुझे मै बड़ा हो रहा हूँ
और अब माँ के तकिये से दूर सो रहा हूँ
पर फिर भी एक कोने में मेरा बचपन दबा हुआ है
जवानी की दस्तक ने आज इसको ठगा हुआ है
कोई आकर कर जाए मुझसे ये वादे
कोई तो मजबूत करे मेरे इरादे
माँ के हाथो से मिल जाए चावल वो सादे
कोई आज लौटा दे मुझे बचपन की यादें ।

--- कविराज तरुण

Sunday 5 January 2014

यादों की तिजोरी

यादों की तिजोरी

यादों की तिजोरी को खोला तो पाया
तेरे लिखे हुए ख़त वैसे ही धरे हैं
जिसपर मेरे आंसुओं के मोती साबुत बचे हैं
तेरा दिया कोई फूल मुरझाया नहीं है
हाँ ये सच है एक अरसे से ये मुस्कुराया नहीं है
तेरी शोखी तेरा अंदाज़ बंद इस तिजोरी मे
संग जीने मरने का भी ख्वाब बंद इस तिजोरी मे
तेरे कदमों की आहट इसके दरवाज़े को पता है
इसके आईने मे तेरा चेहरा अब भी सजा है
तेरी हँसी से रंगा है मैंने इसकी दीवारों को
अपनी उदासी से भरा है इसकी दरारों को
तेरी महक आज भी सलामत है इसमे
तेरी कसमे तेरे वादे अमानत हैं इसमे
आरज़ू हसरतो की इसमे एक चाभी लगाईं है
इस ज़माने से कहीं दूर ये तिजोरी छुपाई है
यादों की तिजोरी को खोला तो पाया ...

--- कविराज तरुण

Saturday 4 January 2014

मुझे सुला दो माँ

मुझे सुला दो माँ

मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।
शाम गुजरती चिंता मे माँ रात निकल जाती है।।
छोटा था मै कितना चंचल और कितना प्यारा था ,
ना मेरा तेरी करता था सबकी आँखों का तारा था ।
अब दुनिया भर की बातों ने कैसे मुझे बदल डाला है ,
तुमने तो माँ बोला था ये जीवन फूलों की माला है ।
पर कांटो की चुभन से मेरी साँसे रुक सी जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।
जब भी मै गलती करता था तुम नाराज़ नही होती थी ,
पापा की धमकी देती थी पर फिरभी कुछ ना कहती थी ।
बस प्यार से मुझको समझाकर थी लेती मेरी बलायें ,
माँ सारी बातें आज भी मेरे मन मंदिर में छा जायें ।
पर दफ्तर में गलती करने पर आफत सी आ जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।
इस अफरा तफरी भागा दौड़ी में मेरा बचपन बिदक गया ,
माँ तुझसे दूर किया पैसों ने मै कितना सिसक गया ।
लगन लगाकर पढ़कर मैंने तेरी उम्मीदों को थाम लिया ,
घर से निकला सांस भरी एक और माँ का नाम लिया ।
पर अब माँ उम्मीदों की बोरी सिर पर अब भारी सी पड़ जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।

--- कविराज तरुण

रंग केसरी कर देना

रंग केसरी कर देना

ऐ मौला मेरे कभी देश पर दाग नही लगने  देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना
किस्से कसमे शहादत की घर घर को याद जुबानी है
माथे पर हिन्द की अस्मत है हाथो में गंगा का पानी है
इस पानी सा पावन निर्मल हर कोना कोना भर देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना
उसपार ज्वाल की लपट बहे तो सरहद पर मै अंगार भरूँ
इस मातृभूमि की मिट्टी से मै अपना श्रृंगार करूँ
कि जबतक रुधिर शेष छिद्रों मे तुम लड़ने का ही बल देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना
सन्नाटों में दरबार लगाकर दुश्मन नित कितनी चाल चले
बैसाखी पर चलने वाले ये हम तूफानों से क्या खाक लड़ें
अब अर्थी बन जाएगी इनकी मुझे हिम्मत और असर देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना
हम मित्र बना लेते बेशक पर तेरी रूह मे गद्दारी है
पीठ में खंजर भोंकने की तुझको  बड़ी बीमारी है
इस बीमारी को काट के दूर करूँ मौला ऐसा खंजर देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना
हम राजनीति से शोषित हैं पर है देशप्रेम की कमी नही
हिन्दुस्तान हमारी माता है केवल ये एक जमीं नही
जो इसको आँख दिखायेगा उसको बिन धड़ के सर देना
चाहे देना न तुम रंग गुलाबी पर रंग केसरी कर देना

--- कविराज तरुण