Tuesday 31 December 2013

नववर्ष आगमन

नववर्ष आगमन

रश्मियाँ भोर की कल भी आएँगी पर
रात स्वप्निल सुधा से अमर कर दो
सोच लो ठान लो मन का संज्ञान लो
इस हिमालय से ऊँचा ये सर कर दो
काल के द्वार पर हिय का दरबार है
आत्म मंथन से संभव ही उद्धार है
नेत्र अंजलि पर दीप की रोशिनी
वाणी इतनी सहज शक्कर की चासनी
तेज माथे पर और होंटो पर मुस्कान हो
सुख समृद्धि सुयश का नववर्ष पहचान हो
इन विचारों का ह्रदय में आज घर कर दो
रात स्वप्निल सुधा से अमर कर दो

--- कविराज तरुण

Thursday 26 December 2013

तुमसे है

तुमसे है.........

इस दिल की चाहत ,
मन की हसरत,
तन की कुदरत,
तुमसे है...
धड़कन में आहट,
हर लम्हा फुरसत,
काबा कुरबत,
तुमसे है...
इस सरजमीं पर,
हर रोशिनी पर,
सारी नूरी सिरकत,
तुमसे है...
कैसे बताये हम,
क्या छुपाये हम,
अब सारी रहमत,
तुमसे है ...
तू यकीन है,
तू शुकून है,
तू खुदा इबादत,
तुमसे है...
मेरे दिल की ज़न्नत,
रूहानी अस्मत,
मेरा वजूद हिम्मत,
तुमसे है...
आँखों की हरकत,
होंटो की फिदरत,
हाथों की किस्मत,
तुमसे है ।
मेरी अंतर्मुरत,
साँसों की जरुरत,
सूरत और सीरत,
तुमसे है...
दिलनशी तू दिलकशी तू,
है तू अकीदत,
और मोहब्बत,
तुमसे है।।।

---कविराज तरुण

Friday 13 December 2013

गई उम्मीद तुमको पाने की

गई उम्मीद तुमको पाने की

गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  मौत से बढ़कर तेरे जाने का पैगाम लगा
  जिंदगी हर घड़ी लगती है बस एक सज़ा
  ये रूह हँसती है और दर्द झलकने लगता है
  भीगी आँखों से ये अश्क छलकने लगता है
क्या वजह थी मुझे यूँ रुलाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  यकीन न था कभी ये दिन भी आयेगा
  बन के आंसू मेरी पलकों को तू भिगायेगा
  गुजरे लम्हे तेरी डोली संग गुजर ही गये
  यूँ तो जिंदा हैं पर जीते जी हम मर ही गये
कोशिशें करता हूँ अक्सर तुम्हे भुलाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  था अदब मुझको तेरी वफ़ा पर इतनी हद तक
  बैठा के रखा था तुझे खुदा के पद तक
  पर तूने तोड़ा ये दिल और मेरा भरोसा भी
  खुद को कई बार तभी मैंने कोसा भी
थी गलती तुझसे दिल लगाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...


--- कविराज तरुण


केजरी की लीला

केजरी की लीला

दिल्ली के प्रांगण में केजरी की लीला ...
कमल मुरझा गया पस्त हुई शीला ...
मेट्रो के नाम का बहुत दिया झांसा ...
आम जनता को था बहुत दिन से फांसा ...
गरीबो को इन्होने कही का न छोड़ा ...
उन्नति के रास्ते में प्रलोभन का रोड़ा ...
कॉमन को होती रही वेल्थ की प्रोब्लम ...
कॉमनवेल्थ में दिखा दिया अपना तुमने आचरण ...
नारी की इज्ज़त भी तार तार हो गई ...
तुमको लगा जनता सब देख कर भी सो गई ...
इतने अनशन इतनी भीड़ तुम्हे समझा रहे थे ...
पर सत्ता के मद में तुम बहुत मुस्कुरा रहे थे ...
तभी मतदाता ने किया पेंच सारा ढीला ...
कांग्रेस का हाथ सारा आंसुओ से गीला ...
दिल्ली के प्रांगण में केजरी की लीला ...
कमल मुरझा गया पस्त हुई शीला ...

---कविराज तरुण

जिन्दगी

जिंदगी

न जाने कैसी रफ़्तार में है जिंदगी
कश्ती डूब रही मंझधार में है जिंदगी
या तो संभाले खुद को या उन्हें हौसला दे
वक्त की अजीब मार में है जिंदगी
सुना था राह आसान बना देती है
साथ चलने वाले के जब प्यार में है जिंदगी
पर हर मोड़ पर हो जब अंतर्मन की उलझने
खुशियों से वंचित तिरस्कार में है जिंदगी
डूब जाता है सूरज भी अपनी रोशिनी लेकर
ऐसे अँधेरे के आज गुबार में है जिंदगी
न हँसी न ठिठोली न खुशियों की कोई झोली
सन्नाटे से भरे किस संसार में है जिंदगी

--- कविराज तरुण