Wednesday 31 January 2018

ग़ज़ल 82 धुंध सी होगी

2122 1212 22

आँख में धुंध सी जमी होगी ।
या मुहब्बत हिसाब सी होगी ।।

जोड़ कर तुम घटा नही पाये ।
सोचिये कै गुना करी होगी ।।

तुम दिखावे मे जी रहे ऐसे ।
प्यार बिन क्या हि जिंदगी होगी ।।

साथ देता नही कभी कोई ।
वक़्त आने दो जब कमी होगी ।।

याद रखना गली मेरी साहिब ।
राह गुलज़ार दिख रही होगी ।।

नाम तेरा लिखा दराजों पे ।
नींव अरमान की खुदी होगी ।।

बेझिझक यार तुम चले आना ।
दिल की दहलीज मखमली होगी ।।

मै तपोपेश मे सुना आया ।
भूलना बात जो कही होगी ।।

है *तरुण* आज भी वही प्यारा ।
ये पलक गिर के बिछ गयी होगी ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 81 कर न देना

221 2122 221 2122

तुम अपनी निगाहों से बेजार कर न देना ।
है प्यार बेतहाशा बेकार कर न देना ।।

इक बारहां ही होता इकबार दिल धड़कता ।
तुम दल बदलने वाली सरकार कर न देना ।।

चढ़कर उतर न पाये ये मर्ज जानलेवा ।
यूँ खामखाँ हमें तुम बीमार कर न देना ।।

रश्में निभा सको तो ये हाथ फिर बढ़ाना ।
यूँ बावजां ही मुझको शमसार कर न देना ।।

कुछ सब्सिडी मिलेगी मेरी मुहब्बतों को ।
डीलिंक अपने दिल से आधार कर न देना ।।

चल साथ आज मेरे ये दिल की इल्तज़ा है ।
अपने तरुण को रुसवा इसबार कर न देना ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 81 आजकल

2122 1212 22

आजकल भूख भी नही लगती ।
और कुछ चीज भी नही फबती ।।

रहती पलकें खुली खुली हरदम ।
रातभर नींद भी नही जगती ।।

रोग ऐसा लगा जवानी मे ।
जान जाती मगर नही भगती ।।

चाँद आगोश में तसल्ली है ।
चाँदनी बारबां नही सजती ।।

जिस दुपट्टे को थाम के रोया ।
धूप में भी नमी नही हटती ।।

हाल बेहाल दिल तकल्लुफ मे ।
ये कमी भर के भी नही भरती ।।

क्यों *तरुण* खामखाँ पुकारो तुम ।
वो हसीं अब यहाँ नही रहती ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

ग़ज़ल 80 नही सकते

2122 1212 22

हम ये वादा निभा नही सकते ।
नींद को भी बुला नही सकते ।।

मर्ज मालूम है दवा मुश्किल ।
चाह कर भी खिला नही सकते ।।

शाख से पत्ते यूँ गिरे तन्हा ।
फूल इसमें उगा नही सकते ।।

छोड़ आये हैं बात बातों में ।
बोझ इतना उठा नही सकते ।।

हो *तरुण* प्यार गर लकीरों में ।
करके कोशिश मिटा नही सकते ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Tuesday 30 January 2018

ग़ज़ल 79 नही दिया

221  2121 1221 212

कुछ भी तुम्हारे इश्क़ ने करने नही दिया ।
इस बेखुदी ने मौज से रहने नही दिया ।।

बेचा तुम्ही ने प्यार को बाज़ार में कहीं ।
बिकने दिलों को रूह को हमने नही दिया ।।

जो कुछ मिला है आपसे वो काम का सही ।
हों नफ़रतें या प्यार हो थमने नही दिया ।।

ये अश्क़ मेरे आँख की गाढ़ी कमाई हैं ।
इन मोतियों को खामखाँ बहने नही दिया ।।

बिखरा है बे-हिस-आब वो अपने गुरूर में ।
जब पास था हमारे बिखरने नही दिया ।।

बहतर *तरुण* ये हसरतें जलती फरेब से ।
थी आग मेरे सामने जलने नही दिया ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 78 आता है

2122 1212 22

जब वो' मेरे करीब आता है ।
खुद ही' चलके नसीब आता है ।।

लोग जलते हैं' खामखाँ मुझसे ।
भाव सबका अजीब आता है ।।

दुश्मनों की मजाल क्या होगी ।
बन खुदा जब हबीब आता है ।।

लफ्ज़ दर लफ्ज़ बात तेरी हो ।
तब ग़ज़ल मे अदीब आता है ।।

यूँ असर है *तरुण* दुआओं मे ।
दर्द लेने तबीब आता है ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Sunday 28 January 2018

चंदन चंदन

विषय - चंदन चंदन

चंदन चंदन गूँज उठी है , कासगंज की वादी ये ।
भीड़ तिरंगा लेके निकली , गोली क्यों चलवा दी है ।।

क्या धर्म के रक्षक अब कोई , अवाज नही उठायेंगे ।
गैंग अवॉर्ड वापसी वाले , यहाँ मौन रह जायेंगे ।।

अब असहिष्णु भारत का नारा , हमको कौन सुनायेगा ।
पत्रकारिता इस मुद्दे पे , बोलो कौन करायेगा ।।

जो हमसब चुपचाप रहेंगे , वर्ग विशेष इतरायेंगे ।
पाकिस्तानी झंडे को वो , जगह जगह लहरायेंगे ।।

तब अखंड भारत का नारा , खंड खंड हो जायेगा ।
जयचंदो की खाल पहनके , दुश्मन धूम मचायेगा ।।

घर घर टूटेंगे फूटेंगे , त्राहि त्राहि मच जायेगी ।
हिन्दू मुस्लिम भाई भाई , बस बातें रह जायेगी ।।

तम का नंगा नाच दिखेगा , भारत माँ के सीने पे ।
जब पाबंदी लग जायेगी , वंदेमातरम् कहने पे ।।

ओर छोर अहसासों का भी , आग लपट में जलता है ।
जयहिंद लबों पर लेकर के , देखे कौन निकलता है ।।

देखो इन गद्दारों को मै , आँख दिखाने आया हूँ ।
एक एक को मै चुन चुनके  , आज मिटाने आया हूँ ।।

जो भरा नही है भावों से , वो बिलकुल खाली खाली है ।
मौन समर्थन देने वालों , ये कैसी मक्कारी है ।।

यही हाल जो रहा देश का , कोय नही चंगा होगा ।
गली गली में चौराहे पे , भीषड़ फिर दंगा होगा ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Tuesday 23 January 2018

ताटंक छंद-देशहित

ताटंक छंद-देशहित
16,14 मात्राएँ प्रति पंक्ति, अंत मे 3 गुरु , दो- दो पंक्ति संतुकान्त

विषय - देशहित

सत्ता के अब रखवालों ने
ऐसी लपट लगा दी है ।
देख देख हरकत ओछी को
शर्मिंदा अब गांधी है ।।

धर्म जाति पर लड़ते देखा
हमने कई दलालों को ।
ऊँच नीच का लेखा जोखा
सतरंगी इन चालों को ।।

खून आज भी नेताजी का
धधक रहा है काया में ।
लौहपुरुष भी ये ही सोचें
कैसा दिन ये आया है ।।

लटके हँसते हँसते देखो
राज-भगत-सुख सूली पे ।
वीर शौर्य की गाथा थे वो
पुरुष नही मामूली थे ।।

आज देख हालत बेचारी
देशभक्त भी रोया है ।
जाने नफरत का पौधा क्यों
राजनीति ने बोया है ।।

एकसूत्र में बांध ले कोई
मै आवाज लगाता हूँ ।
धरती अमर शहीदों की
फिरसे आज बताता हूँ ।।

बेमतलब की बातें छोड़ो
याद करो कुर्बानी को ।
काम देश के जो ना आये
है धिक्कार जवानी को ।।

केसरिया पट्टी को बाँधो
माथे तिलक लगाना है ।
राजनीति से आगे आके
हमको देश बचाना है ।।

तरुण कुमार सिंह
9451348935

Sunday 21 January 2018

ग़ज़ल 77 - आवारगी अच्छी नही

2122 2122 212

इश्क़ में आवारगी चलती नही ।
बैठकर कोई शमा जलती नही ।।

हासिये पर जिंदगी के दांव हैं ।
ख़्वाब मे सच्चाइयां पलती नही ।।

जब मुहब्बत खोज ले तेरा पता ।
खिड़कियों से आड़ तब मिलती नही ।।

दो इजाजत वक़्त को कुछ रोज की ।
बेवजा ये जिंदगी छलती नही ।।

जो जवां हैं आदतन दिल से *तरुण* ।
उम्र उनकी जीते' जी ढलती नही ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Saturday 20 January 2018

ग़ज़ल 76 अच्छी लगी

2122 2122 212

प्यार की गहराइयाँ अच्छी लगी ।
धूप में परछाइयां अच्छी लगी ।।

फुर्सतों से मिल रहे जब रात दिन ।
शाम की अंगड़ाइयाँ अच्छी लगी ।।

शब्द में जब मै तुम्हे लिखने लगा ।
अर्थ की रानाइयाँ अच्छी लगी ।।

चाँदिनी जब आ गिरी है फ़र्श पर ।
चाँद की तन्हाइयाँ अच्छी लगी ।।

मुफ़लिसी की अब मुहब्बत देखकर ।
दिल की' ये महँगाइयाँ अच्छी लगी ।।

बारिशों की बूँद छतरी पर गिरी ।
मौसमी शहनाइयाँ अच्छी लगी ।।

बादलों ने उड़के' जो पूछा पता ।
तो तरुण पुरवाइयाँ अच्छी लगी ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Friday 19 January 2018

ग़ज़ल 75 - मेरी बिटिया सयानी

२१२२ २१२२ २१२

जब मिरी बिटिया सयानी हो गई ।
लग रहा जैसे कि नानी हो गई ।।

रोज मुझको टोकती हर बात में ।
चाय से चीनी बे'गानी हो गई ।।

अब दवा को टाल पाता मै नही ।
वक़्त पे खा लूँ कहानी हो गई ।।

योग का रूटीन फॉलो जब किया ।
जिंदगी अपनी दिवानी हो गई ।।

वो हुकूमत कर रही यूँ प्यार से ।
रजकुमारी आज रानी हो गई ।।

है तरुण सच ! रूप माँ का बेटियां ।
देख गीली आबदानी हो गई ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Thursday 18 January 2018

ग़ज़ल 74 प्यार कर

ग़ज़ल
२१२२ २१२२ २१२

दो मिरी नज़रें तू' दो से चार कर ।
ख़्वाब के ही दरमियां अब प्यार कर ।।

सींक जैसी जिंदगी बारीक है ।
पर्वतों सा तू मिरा आधार कर ।।

मुश्किलों से मामला तुझतक गया ।
कार्यवाही कुछ भली इसबार कर ।।

रात की काली सियाही तेज है ।
आँच से ही रौशिनी साकार कर ।।

मै नही कहता मुहब्बत झूठ है ।
सच मगर इसको कभी तो यार कर ।।

चादरों को भी पसीना आ गया ।
चाहतों की देर तक बौछार कर ।।

आप के आगोश में हैं हसरतें ।
इस *तरुण* को खार से गुलज़ार कर ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Wednesday 17 January 2018

बाल कथा

विषय - बालकथा

ढील दो ढील दो ढील दो... अरे कैसे पकड़े हो ? छोटा सा काम भी नही आता तुम्हे ... बेवक़ूफ़ ।

भईया बाकी सब तो ठीक है पर ये बेवक़ूफ़ न बोलिये ।

बड़ी जुबान चलने लगी है तेरी । आज पतंग तेरी वजह से कटी तो मैदान के सौ चक्कर लगवाऊंगा ।

... और पतंग कट गई ।

बुलेट की रफ़्तार से चरखी छोड़ मै घर को भागा और पीछे पीछे मेरे बड़े भाई साहब । मुझे पकड़ना मुश्किल ही नही नामुमकिन है और जब पीछे यमदूत पड़ा हो तो भागने में अलग ही मजा है ।

रानू ! रुक जा वर्ना इतना दौड़ा रहा है मुझे । बेटा डबल पिटाई होगी ।

पहले पकड़ो तो फिर मारना । - मैंने बोला और सीधा दीवार फांदके घर के अंदर । पहली मंजिल पर तीसरा कमरा और वहाँ यमदूत को भी झाड़ लगाने वाली मेरी प्यारी माँ ।

उनके पीछे जाकर छुप गया ।

क्या हुआ बेटा ! आज फिर पतंग कट गई और इल्जाम मेरे दुलारे पर आया है ।

हाँ माँ ! भईया जाने कब अपनी गलती का ठीकरा मुझपे फोड़ना छोड़ेंगे ।

ठन ठन ठन --  टिंग टोंग । - बेल की आवाज मेरी धड़कन की रफ़्तार बढ़ा रही थी ।

रुक मै गेट खोलती हूँ - माँ तो माँ है , उन्हें मेरे दिल की धड़कन या रक्तचाप नापने के लिए किसी मशीन की जरुरत नहीं । बुखार तो बिना सर छुये या नब्ज़ देखे बता देती है कि मुझे हुआ है या नही । फिर ये तो रोज का मसला है पर आज भईया अलग ही मूड में हैं । पिछली बार माँ नही थी तब तीन बेल्ट पड़ी थी मुझे और वो बात किसी को बताई भी नही थी । पर आज कोई डर नही है ।

बेल है ये , तुम्हारी मोटर साइकिल का हॉर्न नही है । - बड़बड़ाते हुए माँ ने गेट खोला ।

रानू कहाँ है माँ ? उसने आज मुझसे जुबान लड़ाई है । आज उसे नही छोडूंगा । - भईया चिल्लाते हुए बोले ।

चल बैठ पहले यहाँ और बता ऐसा क्या कह दिया तेरे छोटे भाई ने जो इतना क्रोधित है । - माँ ने कहा

उसने मुझसे जुबान लड़ाई जब मैंने उसे बेवक़ूफ़ कहा और पतंग कटने पर भाग आया यहाँ । मैंने बोला भी कि भागेगा तो बहुत पिटाई होगी तो कहने लगा पहले पकड़ो तो । - एक साँस में भईया ने सब बोल दिया ।

तो इसमें क्या बुराई है रे

माँ उसे फर्जी न बचाओ । आज उसकी गलती है । सजा तो मिलेगी ।

गलती उसकी नही तेरी है । तूने उसे बेवक़ूफ़ बोला , जो वो है नही । क्योंकि अगर होता तो भाग के मेरे पास न आता । और रही बात पकड़ने की तो तुम उसे कभी पकड़ तो पाते नही फिर क्यों पीछा करते हो । मुझे तो लग रहा तुम बेवक़ूफ़ हो । - और माँ हँसने लगी ।

भईया एकदम चुप और तबतक मै भी माँ की हँसी सुनकर वहां आ गया ।

फिर भईया ने जो बोला वो आज भी मेरी आँखे नम कर देता है - माँ मै पीछे इसलिए भागा क्योंकि ये अपनी चप्पल छोड़कर वहाँ से भागा था और मुझे चिंता थी कि कहीं कोई कंकड़ या कांटा न चुभ जाए उसे । भईया के हाथ में अभी भी मेरी चप्पल थी ।

माँ ने मेरी तरफ देखा और उसदिन सच में मेरे पैर में कहीं से कट गया था और तलवे में से खून भी निकल रहा था ।

माँ और मेरी आँखों में आँसू आ गए ।

और भईया से मैंने सॉरी बोला और गले से लिपट गया ।

- कविराज तरुण 'सक्षम'

Monday 15 January 2018

कवियों का रहस्यवाद

कवियों का रहस्यवाद

सिमट जाता है कभी पलकों में
कभी दरिया बन बह निकलता है
पर्वत लाँघ लेता है क्षण भर में
कभी रेंगता हुआ सा चलता है

काली स्याही ओस की बूँदें पीपल की छाँव
शहर की गलियां टेढ़ी मेढ़े सूना सा गाँव
दिन का उजास रात की कालिमा
चाँद की चाँदनी सूरज की लालिमा
सब देखता है एक ही नज़र से
लिख देता नए भाव इनके असर से
धूल पानी ईंट मिट्टी चहारदीवारी
पेड़ पौधे काँटे फूल ये हरियाली
कभी दरवाजे कभी दरारें
टिमटिमाते हुए नभ के तारे
नदी समंदर ताल ठिकाने
कविता में बनते कितने फ़साने
नायिका से मिलन का प्रेमप्रयाग
विरह में जलती सीने की आग
गोलबंद हुए रिश्तों की खटास
बर्फी लड्डू बताशे मिठास
शब्दो में समेटने को आतुर रहता है
जो कह नही सकता वो भी कहता है

बिदक जाता है खुद की भावनाओं में
तो कभी मुक्त कंठ से शोर करता है
अपनी एक अलग दुनिया बनाने वाला
वो कवि है जो शब्दो में रंग भरता है

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 73 चल दिया

2122 2122 212

आँख से सुरमा चुराकर चल दिया ।
रात फिर बातें बनाकर चल दिया ।।

मै तड़पती ही रही तब याद मे ।
बेरिया जब मुस्कुराकर चल दिया ।।

नींद आ जाये खुदा की खैर हो ।
ख़्वाब मे आके जगाकर चल दिया ।।

प्यार कम है ये नही मै मानती ।
यार मेरा घर बसाकर चल दिया ।।

आहटें दिल की जुबानी आ रहीं ।
धड़कनों मे गुनगुनाकर चल दिया ।।

लौट कर आये शिकायत फिर करूँ ।
हाथ क्यों ऐसे छुड़ाकर चल दिया ।।

कैद कर लूँगी मै' बाहों में तुझे ।
अब 'तरुण' जो पास आकर चल दिया ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

बाल कविता

*बाल कविता*

मेरे घर के अंदर मेरी , बेटी का भी इक संसार है ।
शिनचैन नोबिता डोरेमोन , सबसे उसको प्यार है ।।

अपनी डॉल को लेकर सोती , परवाह उसकी करती है ।
बचपन से ही अलख प्रेम की , देखो कैसे पलती है ।।

खेले खेल खिलौने हरदम , बोले मिशरी सी बोली ।
क्रिसमस ईद दीवाली लोहड़ी , उसके खुशियों की झोली ।।

मन में कोई विकार नही , हर जीव बराबर ही जाने ।
कोरे मन का सुन्दर दर्पण , एकभाव से सब माने ।।

कुछ भी देखे रूप नया , तो प्रश्न सहज ही आते हैं ।
मम्मी! रोज सवेरे उठकर , पापा ऑफिस क्यों जाते हैं।।

देख उसे मै कभी कभी , बचपन में खो जाता हूँ ।
पर खुद को मै पहले से , गिरा हुआ ही पाता हूँ ।।

धर्म जाति नफ़रत लालच , क्या क्या नही बटोरा है ।
मानवमूल्य का धीरे धीरे , खाली पड़ा कटोरा है ।।

काश ! मै बेटी जैसा ही , निःस्वार्थ प्रेम के भाव जगाऊँ ।
यही सोच आती रहती है , जब मै घर मे वापस आऊँ ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Sunday 14 January 2018

ग़ज़ल 72 धिक्कार है

*नारी की दशा/पीड़ा/अन्याय पर लिखी एक अधूरी ग़ज़ल*

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2122 2122 212

जो समझते प्यार को व्यापार हैं ।
मेरी नज़रों में सभी अय्यार हैं ।।

झाकियें मन में इलाही बोलकर ।
खुद कहेंगे आप भी मक्कार हैं ।।

क्या करूँगा मै फ़ज़ीयत आपकी ।
लोग दुनिया के बहुत होश्यार हैं ।।

लुट रही सड़कों पे' तनहा आबरू ।
छोड़ उसको चल रहे रहगार हैं ।।

आहटें जो दर्द की हैं आ रही ।
अनसुना करते इसे हरबार हैं ।।

खून से लथपथ जो' बेटी रो रही ।
उसकी चीखें आप को धिक्कार हैं ।।

फिर सजा का केस बरसो तक चले ।
सच यहाँ सिस्टम सभी बीमार हैं ।।

बेटियां जिनके घरों मे पूछिये ।
क्या सज़ा के वो सभी हकदार हैं ।।

औरतों पर उठ रही हैं उँगलियाँ ।
आज भी सीता कई लाचार हैं ।।

जीन्स निक्कर टॉप लहँगा साड़ियां ।
कटघरे में कुर्तियां सलवार हैं ।।

जो पहनना हो ये' पहने बोल मत ।
क्षेत्र मे तेरे नही अधिकार हैं ।।

लाडले जब देर से घर आ रहे ।
बाप को सारी हदें स्वीकार हैं ।।

रात जब निकलें किसी घर बेटियां ।
तो तमाशे कर रहे परिवार हैं ।।

भेद ये बोलो मिटेगा क्या कभी ।
किस दुराहे पे तिरे व्यवहार हैं ।।

क्रमशः जारी..... कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 71 देखिये

2122 2122 212

प्यार के किस्से सजाकर देखिये ।
गैर को अपना बनाकर देखिये ।।

बात इतनी सी गुजारिश मै करूँ ।
दिल मे' इक दीपक जलाकर देखिये ।।

वो ख़फ़ा हो जाये तो फिर गम नही ।
सामने से मुस्कुराकर देखिये ।।

कुछ भरोसा भाग्य पर होने लगे ।
हाथ दुश्मन से मिलाकर देखिये ।।

ताज कोई भी बना लेता मगर ।
पत्थरों को खुद उठाकर देखिये ।।

शायरी से बात भी हो जायेगी ।
लफ्ज़ से मोती चुराकर देखिये ।।

दाम इज्जत का नही लग पायेगा ।
हो सके तो अब कमाकर देखिये ।।

चल तरुण अब दर्द पे लिखना भी' क्या ।
है दवा तो फिर खिलाकर देखिये ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 70 पुरानी बात है

2122 2122 212

आज निकली जो पुरानी बात है ।
इन सितारों को दिखानी रात है ।।

बादलों में छुप गया जब चाँद भी ।
इस दिले नादान की वो मात है ।।

मै तमाशे कर न पाया सोचकर ।
वो तमाशे कर कहें शुरुआत है ।।

आस्तीनों में छुपे थे यार कुछ ।
मै समझ बैठा सुखी हालात है ।।

हाल-ए-दिल ना तौलिये यूँ खामखाँ ।
अब किराये पर गया जज्बात है ।।

बोल कौड़ी भाव से यूँ बिक रहे ।
भावना का पेड़ ही बिन पात है ।।

गुनगुनाती धूप क्यों चुप है भला ।
भीगते गम मे तरुण ख्यालात है ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Wednesday 10 January 2018

हास्य कविता - दामाद (मनहरण घनाक्षरी)

हास्य- दामाद

चाल ढाल ठीक ही थे
देख भाल नीक ही थे
बात बात पे मगर
वो शोखी बघारते ।

आता मेहमान कोई
या फिर सामान कोई
घूर घूर देखकर
कमियां निकालते ।।

एकबार दाल मिली
सास के मकान पर
कुछ काला सा गिरा है
चीख के पुकारते ।

दौड़ी दौड़ी सासू आई
क्या हुआ कहो जमाई
जीरा भुन के यहाँ पे
संग घी के डालते ।।

क्या आये हो विदेश से
या हो किस प्रदेश के
माँ के हाथों का ये खाना
शक से निहारते ।

सम्मान है महान है
जमाई से ही जान है
बेटे से ज्यादा तुमको
प्रिय हम मानते ।।

गुण बड़े बहुत हैं
एक और राख लो जी
दूसरों से पहले ही
खुद में झाँक लो जी ।

देखना फिर तुम्हारा
काम जगमगायेगा
देवता के बाद नाम
आपका ही आयेगा ।।

Friday 5 January 2018

ग़ज़ल 69 कहानी है

221 1222 221 1222

आँखों के' दुरस्तों से गिरता हुआ' पानी है ।
कोई तो' ये' समझाये कैसी ये' कहानी है ।।

हम जोड़ के' रिश्तों का मुँह मोड़ नही पाये ।
वो छोड़ के' खुश हैं तो बेकार जवानी है ।।

जो घर था' मुहब्बत का फूलों से' सजा मेरे ।
काँटो सी' हुई अब ये दीवार गिरानी है ।।

ऐसा न हो रो दूँ मै पर अश्क़ तेरे निकलें ।
गर प्यार था' लफ्ज़ो मे कीमत तो' चुकानी है ।।

जो ख़्वाब चला मेरा रातों के' अँधेरों मे ।
चौखट पे' तिरी उसको अब रात बितानी है ।।

ताबूत मे' रख लेना ख़त यार मिरे बेशक ।
जो शब्द पुकारेंगे आवाज़ तो' आनी है ।।

दिलदार *तरुण* कोई हर बार नही बनता ।
इन वक़्त की' शाखों से तकदीर चुरानी है ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*