Friday 30 June 2017

कौन हूँ मै

कौन हूँ मै

फिर वही प्रश्न कौन हूँ मै
शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मै

सागर की तलहटी मे खोजता गहराई हूँ
पानी की चादरों में तलाशता परछाई हूँ

सत्य क्या असत्य क्या नित सोचता हूँ
धर्म में निहित कर्म भावों को टोहता हूँ

हूँ धरातल या भला ये व्योम हूँ मै
फिर वही प्रश्न कौन हूँ मै
शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मै

महफ़िल मिले जब तो चाहता तन्हाई हूँ
दुःख मिले तो प्रभु से माँगता शहनाई हूँ

बाट पलपल सुख क्षणों की जोहता हूँ
पुष्प करलव लालसा को मोहता हूँ

अर्थ हूँ मै स्वयं का या विलोम हूँ मै
फिर वही प्रश्न कौन हूँ मै
शब्द मूर्छित हैं मौन हूँ मै

*कविराज तरुण सक्षम*

ग़ज़ल - हुआ सा है

1212  1122 1212 22
आ ,  सा है

मिरा खुदा मुझसे ही ख़फ़ा ख़फ़ा सा है ।
रवां अकीदत सब कुछ उड़ा उड़ा सा है ।।

असास का इक पत्थर हिला के' जाना ये ।
वजूद-ए-हम वहशत अलम खला सा है ।।

मलाल ये है' कि उसने मुझे नही समझा ।
मलाल ये भी' कि अब वो जुदा जुदा सा है ।।

ख़ुलूस था कद जिसका किताब के जैसे ।
हरेक हर्फ़ उसी का धुआँ धुआँ सा है ।।

तरुण ये' चाहत की सरहदें छू' के देखा ।
मिज़ाज-ए-उलफ़त अब फ़ना फ़ना सा है ।।

*कविराज तरुण सक्षम*

ख़फ़ा - नाराज
रवां - जिंदगी
अकीदत - भरोसा
असास - नींव
वहशत - पागलपन
अलम - दुःख
खला - खाली
मलाल - अफ़सोस
ख़ुलूस - स्पष्ट
हर्फ़ - अक्षर
उलफ़त - प्यार
फ़ना - अंत

Thursday 29 June 2017

आय है ग़ज़ल

1212 1122 1212 22

लिपट लिफ़ाफ़े' में' उनका पयाम आया है ।
जिसे खुदा ने' बहुत खूब ही बनाया है ।।

दुआ सलाम नही लफ्ज़ कुछ अलग सा है ।
बड़ी नज़ाक़त से उसने' सितम ढाया है ।।

बिना मिले मुमकिन हो मिरा बसर यूँही ।
बिठा पलक पर ख़्वाबो को' आजमाया है ।।

यकीं नही अब चाहत ये' चीज ऐसी है ।
डुबाता' खुद जिसने तैरना सिखाया है ।।

तरुण सबक कुछ लेता नही मुहब्बत से ।
हरेक हर्फ़ कई ज़ख्म साथ लाया है ।।

कविराज तरुण सक्षम

Saturday 24 June 2017

अर्ज़ है 25.06.17

अर्ज़ है -

गौर फरमाईयेगा ...

तिरे सवाल का जवाब लाज़िमी सा है ।
जहन खुदा सा' है लिबास आदमी सा है ।।

सुप्रभात

कविराज तरुण सक्षम

ग़ज़ल 28-नाम आया

ग़ज़ल प्रतियोगिता हेतु

बहर - 212 212 212 2
रदीफ़ - आया
काफ़िया - आम

आज फिर गैर मे नाम आया ।
मै कहाँ सच तिरे काम आया ।।

रात असफार में चाँद नम है ।
मै सुबह निकला' तो शाम आया ।।

कौन कहता खलिश आख़िरी ये ।
मौत का ख़त सरेआम आया ।।

वो दगाबाज़ थे फिर भी' खुश हैं ।
गम में' डूबा मुझे जाम आया ।।

मै ख़रीदा करूँ ख़्वाब बेशक ।
खुद से भी जबर दाम आया ।।

बेवफा ख़त तिरा भी अजब है ।
खार गुल साथ पैगाम आया ।।

चल 'तरुण' छोड़ दे अब मुहब्बत ।
मन मुताबिक न अंजाम आया ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*
*साहित्य संगम संस्थान*

Wednesday 21 June 2017

ग़ज़ल12- बनाना पड़ेगा

212 212 212 2

नाम तुझको बनाना पड़ेगा ।
काम करके दिखाना पड़ेगा ।।

भव्यता भाव मे गर निहित हो ।
भव्य करके बताना पड़ेगा ।।

मुश्किलों की दवा है पसीना ।
खूब इसको बहाना पड़ेगा ।।

आसमां भी समझता इरादे ।
कोशिशों से झुकाना पड़ेगा ।।

कर सके जो न खुल के इबादत ।
उनका' सिर भी उठाना पड़ेगा ।।

प्यास बादल को' लगने लगी है ।
तुझको दरिया बढ़ाना पड़ेगा ।।

काम चुप होके' चलता कहाँ है ।
बोल के ही हँसाना पड़ेगा ।।

कहकशों की कहानी नही है ।
चाँद तारे सजाना पड़ेगा ।।

है *तरुण* जिस्म में गर रवानी ।
जिंदगी को लुभाना पड़ेगा ।।

*कविराज तरुण सक्षम*
*साहित्य संगम संस्थान*

Tuesday 20 June 2017

योगदान महादान

*योग-दान , महा-दान*
(मनहरण घनाक्षरी)

दुराचार दूर करे
  सदविचार प्रदाता
    कुछ न काम आये तो
      योग अपनाइये ।।

रोग को समेटकर
  क्यों हो जीवनयापन
    निरोगता की पुष्टि है
      योग आजमाइये ।।

योग के समान कोई
  है उपाय नही दूजा
    नित्य आधे घंटे योग
      और मुस्कुराइये ।।

प्राणायाम है महान
  सूर्य नमस्कार करो
    वज्र , मृग , सिंहासन
     करिये कराइये ।।

*योग-दान महा-दान*
  इसमें छुपा है ज्ञान
    प्रातःकाल नित्य ध्यान
      चित्त को लुभाइये ।।

वासना को त्याग दो
  साधना में भाग लो
    शुद्धता का है प्रमाण
      योग दोहराइये ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*
*साहित्य संगम संस्थान*

ग़ज़ल - नहीं है

212 212 212 2
एक प्रयास

तीर दिल पे ये' खाना नही है ।
कुछ हमे आजमाना नही है ।।

बेरुखी दिल्लगी का असर है ।
और रोना रुलाना नही है ।।

डूब जाते मुहब्बत मे अक्सर ।
तैरने का ठिकाना नही है ।।

खार गुल से हुआ जब मुख़ातिब ।
जान पाया ज़माना नही है ।।

रहगुज़र दूर कर दो नज़र ये ।
हाथ कुछ आज आना नही है ।।

*कविराज तरुण सक्षम*

Monday 19 June 2017

ग़ज़ल 14-चलेंगे

212 212 212 2

हाल-ए-दिल सुनाते चलेंगे ।
ख़्वाब अपने सजाते चलेंगे ।।

है अँधेरा घना क्यों डरे हो ।
दीप मन में जलाते चलेंगे ।।

मुश्किलें सामने आ गई तो ।
हम सनम मुस्कुराते चलेंगे ।।

साहिलों को पता है इरादा ।
नाव यूँ ही चलाते चलेंगे ।।

नाम तेरा जवानी तरुण है ।
दिल से दिल हम मिलाते चलेंगे ।।

कविराज तरुण सक्षम

Saturday 17 June 2017

ग़ज़ल 6- असर

ग़ज़ल - असर
रदीफ़ - बाखुदा
काफ़िया - अर
122 122 122 12

हुआ प्यार का यूँ असर बाखुदा ।
नही कुछ भी' आता नज़र बाखुदा ।।

इशारे मिले दिल मुबारक हुआ ।
नया सा लगे अब शहर बाखुदा ।।

कदम दर कदम पास आते गये ।
मिला इक हसीं फिर सफर बाखुदा ।।

इनायत हुई जो मुहब्बत हुई ।
लदा गुल से' मेरा शज़र बाखुदा ।।

बरसने लगे लफ़्ज़ कुछ इसतरह ।
ग़ज़ल की मुकम्मल बहर बाखुदा ।।

अजब हुस्न है रौशिनी सी फ़िज़ा ।
'तरुण' थाम ले ये पहर बाखुदा ।।

*कविराज तरुण सक्षम*
*साहित्य संगम संस्थान*

Thursday 15 June 2017

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ

तवे पे आधी जली रोटियां
कुछ मुझ जैसा लिबास रखती हैं
बेटी के नाम पर जब छिन जाती है कोख
वो माँ उम्रभर इसका हिसाब रखती है

पति की इज्ज़त भी तब
टूटकर तार तार हो जाती है
जब अपनी रूह के टुकड़े से
एक माँ कभी मिल नही पाती है

शायद वो बोलती नही ये सोचकर
मेरी क़िस्मत को यही मंजूर था
या चुप हो जाती है ये मानकर
समाज का शायद यही दस्तूर था

पर ताज्जुब तो तब होता है
जब एक माँ ने दूसरी माँ की बेटी मारी
डुबाया खुद ही वजूद खुद का
मालूम तो होगा उसे वो भी है एक नारी

जाने जहन में कैसे
ऐसा पाप निकल के आता है
बच्चे को दो नज़र से देखने वाला
आखिर बाप ही क्यों बन पाता है

जरूरी है ऐसी सोच को
पैदा होने से पहले ही दफनायें
बेटी कई गुना बेहतर हैं बेटों से
आओ बेटी बचायें बेटी पढ़ायें

कविराज तरुण सक्षम
साहित्य संगम संस्थान

ग़ज़ल 11- आतंक

*ग़ज़ल - आतंक*

बहर - 122 122 122 12

शहर लाल सारा का' सारा हुआ ।
चमन से अमन बे-सहारा हुआ ।।

करे खून इंसानियत बे-वज़ह ।
मुजाहिद मुहब्बत से' हारा हुआ ।।

खुदा नेक रस्ता तू' इनको बता ।
जिहादी अकल से ये' मारा हुआ ।।

जहन पाक हो तो मिलेगा ख़ुदा ।
नही नाम से ही गुजारा हुआ ।।

न रोके रुके हैं 'तरुण' मुश्किलें ।
लहू उस फ़रेबी का खारा हुआ ।।

*कविराज तरुण सक्षम*
*साहित्य संगम संस्थान*

Wednesday 14 June 2017

ग़ज़ल 10- किसान

ग़ज़ल - किसान

बहर - 122 122 122 12

सियासत मुबारक कफ़न कर रहा ।
किसानों को' यूँही दफ़न कर रहा ।।

मुखौटा लगा जो मुखालत करे ।
घरों को जला वो हवन कर रहा ।।

दुपहरी मे' निकला फसल नापने ।
उपज का मुनासिब जतन कर रहा ।।

मिले मूल्य थोड़ा खटे रात दिन ।
दलाली मे' हक़ वो गबन कर रहा ।।

उसे क्यों लपेटो हवस वोट मे ।
घुट घुट कर आधा बदन कर रहा ।।

खुदा से रहम की गुजारिश करूँ ।
सफेदी पहन वो हनन कर रहा ।।

तरुण हाथ जोड़े खड़ा सामने ।
बड़े भाव से अब नमन कर रहा ।।

कविराज तरुण सक्षम
साहित्य संगम संस्थान

ग़ज़ल 4-कर रहा

ग़ज़ल

122 122 122 12

सियासत मुबारक कफ़न कर रहा
किसानों को' यूँही दफ़न कर रहा

मुखौटा लगा जो मुखालत करे
घरों को जला वो हवन कर रहा

दुपहरी मे' निकला फसल नापने
उपज का मुनासिब जतन कर रहा

उसे क्यों लपेटो हवस वोट मे
घुट घुट कर आधा जो' तन कर रहा

तरुण कुछ रहम की गुजारिश करूँ
सफेदी पहन वो हनन कर रहा

*कविराज तरुण सक्षम*
*साहित्य संगम संस्थान*

Monday 12 June 2017

हाँ! मै किसान हूँ

*हाँ! मै किसान हूँ*

हाँ! मै किसान हूँ
मेहनत करता हूँ और खुश रहता हूँ
पर आजकल थोड़ा परेशान हूँ
हाँ! मै किसान हूँ

बिना धूप की चिंता किये
सुबह निकल पड़ता हूँ काम पर
लेकर इन हाथों में हासिये
आता हूँ हर-एक घास काट कर

मौसम की मार भी झेल लेता हूँ
खेतों मे ही बच्चो संग खेल लेता हूँ
खरमेटाव मे चना गुड़ लाई खाकर
सत्तू संग पानी को मेल लेता हूँ

चाह नही है पिज्जा बर्गर की
चैन से जो मिले वही खाता हूँ
अनवरत श्रमसाध्य करता हूँ
रेडियो सुनकर रात मे सो जाता हूँ

कभी सेठ की चालाकी से पीड़ित
कभी भगवान के प्रोकोपो से ग्रसित
कभी राजनीति की लाचारी पे आश्रित
वोटबैंक बनने पर भी बाध्य हूँ कथित

मत कहो हत्यारा, चोर या बेईमान हूँ
खून पसीने की एकत्रित पहचान हूँ
सीधा सादा श्रमिक बेहतर इंसान हूँ
हाँ! मै किसान हूँ

*कविराज तरुण 'सक्षम'*
*साहित्य संगम संस्थान*

ग़ज़ल 3- मुस्कुराया करो

ग़ज़ल - मुस्कुराया करो
बहर - 122 122 122 12

हमें पास आकर बताया करो
नही इसतरह से छुपाया करो

फरेबी नही हैं फिदरत हमारी
ज़रा हाल-ए-दिल दिखाया करो

न समझे ज़माना दिलों की फ़िज़ा
युं आँसू न खुलके बहाया करो

नज़र ही नज़र मे मुनासिब मुहब्बत
नज़र बेधड़क तुम मिलाया करो

तरुण नाम है रहगुजर हूँ तिरा
चलो साथ मे मुस्कुराया करो

*कविराज तरुण सक्षम*
साहित्य संगम संस्थान

Saturday 10 June 2017

विश्वास

*शीर्षक - विश्वास*

वो लड़ सकती है अपनी लड़ाई खुद
उसे नही कुछ ख़ास चाहिए
ज़माने का बस थोड़ा सा विश्वास चाहिए ।

जो मौलाना लगाते हैं फतवे सरेआम
उनकी सीरत का थोड़ा कयास चाहिए
ज़माने का बस थोड़ा विश्वास चाहिए ।

चाहे *'सना'* हो *'सानिया'* या *'हसीं जहां'*
उनके कपड़ों पर नही कोई बकवास चाहिए
ज़माने का बस थोड़ा सा विश्वास चाहिए ।

मज़हब की बातें करते हो
अगर तीन तलाक़ मर्दों का हक़ है
तो यकीनन तुम्हारी अस्ल पर
नस्ल पर और सोच पर मुझे शक है
तुम होते कौन हो आख़िर
हमें जीना सिखाने वाले
वो ख़ुदा दिल में है मेरे
और मेरी ख़ुदाई है उसके हवाले
हमारे दरम्यां आने वाले
ओ मज़हब के हवलदार
नही चाहिए तुम्हारी रायशुमारी
नही चाहिए तुम्हारी जिम्मेदारी

इक्कीसवीं सदी की उम्मीद हैं हम
हमे हर-ओर प्यार और विकास चाहिए
ज़माने का बस थोड़ा विश्वास चाहिए ।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Tuesday 6 June 2017

ग़ज़ल 2- गुजरना क्या

ग़ज़ल

गली से जो न हम गुजरें , निखरना क्या सवरना क्या ।
उनींदी हो अगर आँखें , ये' सूरज का निकलना क्या ।।

बड़े बेताब हो फिर से , मुहब्बत आजमाने को ।
डरो असफार से जो तुम , तो' चलना क्या टहलना क्या ।।

सलीखा भी जरूरी है , नही केवल अदब दिल मे ।
रिवाज़ो के चलन कुछ हैं , बिना वजहें मुकरना क्या ।।

चलो ये मान लेते हैं , जहन है पाक तेरा भी ।
मगर रुसवाई देते हो , हमे जब तो समझना क्या ।।

मुनासिर हूँ सदा तेरा , हमें जब भी बुला लेना ।
'तरुण' आवाज़ दे देना , बिना बोले गुजरना क्या ।।

*कविराज तरुण सक्षम*

Monday 5 June 2017

ग़ज़ल 1-जिंदगानी में

*जिंदगानी मे*
(ग़ज़ल - मुफाईलुन x4)

सनम जो रेख खींची थी ज़माने ने जवानी मे
उसे तुम पार कर लो तो मजा आये कहानी मे

कभी चाहत का' दामन थाम कर घर से कदम रखना
अगर दिल आशिकाना हो लगे है आग पानी मे

ज़रा इस बेदिली को बेदखल कर दो नज़ाक़त से
नज़र आये हमें भी कुछ छुपा जो आबदानी मे

कलम चोटिल बड़ी मुश्किल हया की चादरें भी हैं
उमर बीती चली है आज फिरसे पासबानी मे

*तरुण* असरार है इतना अलम से खुशनसीबी में
अकीदत सी हलावत हो कि जैसे जिंदगानी मे

*कविराज तरुण सक्षम*

अकीदत - भरोसा
हलावत - मिठास
अलम - दुःख
असरार - भेद
पासबानी - देखरेख करना
आबदानी - पानी का पात्र (आँखें)

Sunday 4 June 2017

मेरी माँ

*मेरी माँ*

बूढ़ी हो चली है मेरी माँ
फिरभी उसे काम का भूत सवार रहता है
सोचती है ज्यादा बोलती है कम
पर आँखों का गहरा रंग बहुत कुछ कहता है

वो पीढ़ी अलग थी
जब डोली में सजकर वो आई थी
गाँव वालों ने भी उसदिन
पहली ग्रेजुएट बहू पाई थी

उसके आँखों में अनेक सपने थे
जिन्हें ये रीति रिवाज दबा ले गये
सेकती रही इन चूल्हों में रोटियाँ
जल जल के ख़्वाब हवा हो गये

याद है मुझे
माँ ने मेरे होने के बाद बी.एड. किया था
कई लोगो के व्यंग बाण सहकर
पापा के पास शहर जाने का फैसला लिया था

कभी हिंदी के मुहावरे
कभी संस्कृत के श्लोक सुनाती थी
सरकारी शिक्षिका वो बन न सकी
पर हमें हर रोज पढ़ाती थी

भोली है वो नादान है
बच्चे दूर हैं इसलिए परेशान है
पर अब भी अपना दुखड़ा हमसे छुपाती है
मुझे अपने बाबा की कही एक बात याद आती है
*कि तुम्हारी माँ कोई साधारण नही .. देवी है*
*नित इनकी सेवा करना ये गाय से भी सीधी है*

चला जाऊँ उसके पास
यही सोच अक्सर पानी इन आँखों से बहता है
बूढ़ी हो चली है मेरी माँ
फिरभी उसे काम का भूत सवार रहता है
सोचती है ज्यादा बोलती है कम
पर आँखों का गहरा रंग बहुत कुछ कहता है

*कविराज तरुण 'सक्षम'*