Sunday 18 March 2018

भावगीत

भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।
आचमन से पहले वाला
न ही कोई दोष हो ।।

साथ में कदम बढ़े
समर्थ फिर प्रयास हो ।
दिल की तेरे तलहटी में
मेरा ही निवास हो ।।

चाहतों के पुन्य दीप
जल गये तो मौज हो ।
भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।।

चंद्र चाँदनी चपल
चले कहाँ ये रात मे ।
दर्प यामिनी नवल
है बादलों के साथ मे ।।

है मिलन सटीक मीत
इंद्रियों मे जोश हो ।
भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।।

श्याम संग राधिका
हैं बाँसुरी बजा रहीं ।
वृंद की लतायें पुष्प
गीतिका सी गा रहीं ।।

ओर छोर भीगे प्रीत
लुप्त सा ही होश हो ।
भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।।

नेत्र के विशाल पट
खोल के कयास लो ।
स्वप्न के परे चलो
यतार्थ प्रेम बाच लो ।

वाणी हो मधुर हृदय
न कोई गतिरोध हो ।
भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।।

देखा देखी और दिखावा
कुछ न काम आयेगा ।
शुद्ध है जो मन नही
तो प्यार टूट जायेगा ।

हो सत्य निष्ठ कर्म नीति
न कलश न रोष हो ।
भाव हों पुनीत गीत
प्रेम वायु कोश हो ।।

Sunday 4 March 2018

ग़ज़ल 92 अब फ़िजा में बहार कौन करे

2122 1212 22/112

अब फ़िजा में बहार कौन करे
इसकदर इंतज़ार कौन करे

छोड़ के जा रहे तुम्हें अब हम
बेवज़ा प्यार व्यार कौन करे

ग़ज़ल 91 गली तेरी पकड़ के हम कभी जब भी गुजरते हैं

1222 1222 1222 1222

गली तेरी पकड़ के हम कभी जब भी गुजरते हैं ।
जुबां ख़ामोश रहती है कदम अक्सर फिसलते हैं ।।

नही नजरें मिलाते हम डरें शायद ज़माने से ।
मगर चाहत लिये भीतर जवां दो दिल मचलते हैं ।।

इनायत देख हूँ हैरां मुहब्बत के खुदा तेरी ।
इधर वो घर से चलते हैं उधर बादल बरसते हैं ।।

ये शोखी और उसपर गाल में तेरे पड़ा डिम्पल ।
मेरे अरमा उसी में डूबकर बाहर निकलते हैं ।।

तरुण मुझको यकीनी बात पे भी है यही मसला ।
वो मेरा नाम लेने में भरी महफ़िल हिचकते हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Saturday 3 March 2018

नेता हास्य

हास्य/व्यंग - नेता

न इत था न उत था
लंगोटी में बुत था
जुबां चल रही थी
नशे में भी धुत था

वो ऊपर मै नीचे
गनर दो ठौ पीछे
बोलूँ तो डर हो
जुबां को न खींचे

कहा उसने भाया
कि क्या काम आया
क्यों इतने हो व्याकुल
चढ़ा कोई साया ?

न साया न प्रेत
सूखा है खेत
बिजली नही है
गमो की चपेट

मै बोला ओ मालिक
रहम की सिफारिश
न सुविधा न बारिश
करूँ क्या गुजारिश

करो कुछ तो बेहतर
सड़क भी नही है
न दवा का ठिकाना
क्या ये सही है

विद्यालय की दूरी
कई मील पर है
सर तो कई हैं
नही कोई घर है

झल्लाकर के नेता
गुस्से से देखा
मेरे गाल पे फिर
पड़ा एक चपेटा

वो बोला मै कोई
विधाता नही हूँ
बिना कुछ दिये
सीट पाता नही हूँ

चुनाव के चक्कर मे
उधारी हुई है
जन्नत की तब ये
सवारी हुई है

मै बोला वहीं
दोनों हाथ जोड़े
इंसां भी बन लो
ज़रा थोड़े थोड़े

बड़े प्यार से तुम
वोट हमसे चुराते
और जब काम आये
तो हमको डराते

नही होगी अब ये
गलती दोबारा
खुदा भी न देंगे
अब तुमको सहारा

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 90 देखिये इस शहर में , सबका अलग किरदार है

2122 2122 2122 212

देखिये इस शहर में , सबका अलग किरदार है ।
दिख रहा है ठीक जो, वो ही असल बीमार है ।।

बेसबर गरजा किये, उन बादलों को क्या पता ।
जो बरस कर झर गये, वो मेघ ही स्वीकार है ।।

जीत के उन्माद में , वो दावतें करता रहा ।
हार अपनों को मिली , तो जीत भी वो हार है ।।

नफरतों के दौर मे जब सरफ़रोशी हो रही ।
तो गुलामी की हदों का आज भी अधिकार है ।।

व्यर्थ क्रंदन के स्वरों का डाकिया बनकर लगा ।
हर उदासी का मुखौटा बेहुदा मक्कार है।।

था तमाशा यार का भी , था भरोसा प्यार पर ।
उलझनों से बच निकल तो , आशिक़ी साकार है ।।

हसरतों का खामियाजा , तब भुगतना आप को ।
जब किराये पर खड़ी हर , रश्म ही व्यापार है ।।

मै जुलूसे इश्क़ की फिर , पैरवी करने चला ।
हर मुलाजिम हुस्न का ये जानिये गद्दार है ।।

इन गुलों गुलफ़ाम को माना मुहब्बत आपसे ।
हम खिजां से हो गये हम सुर्ख शाखें यार है ।।

आरजू भी इसतरह से कर रहे वो भोर की ।
लग रहा है रोशिनी की सूर्य को दरकार है ।।

गर इजाज़त माँगती तो जिंदगी शिकवे करूँ ।
बिन इजाज़त बात कहना भी यहाँ दुश्वार है ।।

जश्न का ये सिलसिला घर में चला जो रातदिन ।
कर भलाई दूसरों की जश्न फिर संसार है ।।

भूख जाने किस गली से आज दस्तक दे रही ।
वो सड़क पर ही ठिठुर के मौत को तैयार है ।।

इन गरीबों की रे' किस्मत चाख दिल हैं एक सब ।
सिसकियाँ ही हर्फ़ हैं औ हिचकियाँ अशआर है ।।

वो दिखावे को बसा के जाप मंतर यूँ करें ।
उस खुदा के ठौर का जैसे वही हक़दार है ।।

मै किराया जिस्म का इस रूह से लेता रहा ।
था अचंभा जिंदगी को मौत ही फनकार है ।।

जो खुदा के नाम पर खुद का भला करने लगा ।
शक्ल कैसी भी हो' उसकी नस्ल तो अय्यार है ।।

बादशाही कब रही इंसान की इंसान पे ।
वो ही मालिक वो ही कुदरत वो असल सरकार है ।।