Saturday 16 June 2018

ग़ज़ल 98 - सफर भी है

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है दुआ तेरी तो सफर भी है , इन मंजिलों की ख़बर भी है ।
है नज़र नज़र मे चिराग ये , इक रौशिनी मे शहर भी है ।।

दिल हसरतों के दबाव में , जब आशिक़ी करने चला ।
घर के तेरे हर मोड़ पर , ठहरी हुई ये नजर भी है ।।

न दुआ मिले न दवा मिले , न तो मर्ज का ही पता मिले ।
मै बचूं कहाँ बतलाइये , मदहोश सा ये असर भी है ।।

ये उठी गिरी फिर मिल गई , लो खिली खिली फिर खिल गई ।
ये निगाह का ही कसूर है , सब ओर इसका कहर भी है ।।

है बची कहीं फिर आग ये , जो धुआँ उठा है मकान से ।
अरमान के इस हर्फ़ मे , उलझी मेरी ये बहर भी है ।।

कविराज तरुण

Friday 15 June 2018

घनाक्षरी - ग्रीष्म

*ग्रीष्म*

ताप धुआँधार हुआ
  सीमा लाँघ पार हुआ
    गल रहा रोम रोम
      कोई तो बचाईये ।

शुष्कता की रीत चली
  पाती होके पीत जली
    जल गया व्योम व्योम
      आग ये मिटाईये ।।

ग्रीष्म हाहाकार करे
  आंकड़ों को पार करे
    देह ये बनी है मोम
      और न गलाईये ।

एक ही उपाय शेष
  जीव जंतु व विशेष
    कह रहा नित्य सोम
      पेड़ तो लगाईये ।।

कविराज तरुण

बैंक आय वृद्धि माँग

दो आय अगर तो पूरी दो,
पर, इसमें भी मज़बूरी हो,
तो दे दो केवल उचित दाम,
रक्खो अपने पैसे तमाम।
हम वही खुशी से खायेंगे,
कोई प्रश्न नही उठायेंगे!
सत्तादल वह भी दे ना सका,
आशीष समाज की ले न सका,
उलटे, हमको बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
तब नाश समाज पर छाता है,
जब बैंकर सड़कों पे आता है ।
बैंकर ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
कर्मचारी कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ सत्तादल ! बाँध मुझे।
देखो जनधन मुझमें लय है,
अटल पेंशन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन हैं लोन सकल,
मुझमें लय है उत्थान सकल।
ये देश जानता है कबसे,
ये देश मानता है कबसे ।

याचना नहीं, अब रण होगा,
हिसाब यहां कण कण होगा ।
हम सड़को पर आ जायेंगे,
तो अर्थजगत हिल जाएंगे ।
सिस्टम ये भूषायी होगा,
हिंसा का परदायी होगा ।
तुम हमे रोक न पाओगे,
कैसे ये देश चलाओगे ।

सुनो जरा सा ध्यान धरो,
अब अनुसंशा का संज्ञान करो ।
तब सब अच्छा हो जाएगा,
बैंकर निज कर्म निभाएगा ।

कविराज तरुण

काजल

*काजल*

काजल सी ये काली रैना
जी अतिशय घबराये ।
घोर अमावस में जाने क्यों
चंद्र नजर नही आये ।।

काजल सी काली कोयल
गीत मधुरतम गाये ।
कौवा काला फिर जाने क्यों
कर्कश ही रह जाये ।।

काजल सा काला मेघ जगत में
वर्षा की बूँदें लाये ।
पर चिमनी की धुंध कालिमा
क्यों केवल प्राण सुखाये ।।

काजल सा काला जामुन देखो
शक्कर सा स्वाद दिलाये ।
पर ये काली मिर्च बता क्यों
तीखापन बहुताये ।।

काजल सा काला पत्थर ये
मंदिर में सुधि पाये ।
काला कोयला पर चुनचुन कर
भट्टी में झोंका जाये ।।

काजल से काली आँखें प्रिय की
प्रेमसुधा बरसाये ।
काला मन भीतर का फिर क्यों
पल पल आग लगाये ।।

इस काले का कोई भेद नही
काजल हमको बतलाये ।
चक्षुपटल पर चुभता काजल
श्वेत अश्रु संग लाये ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

गीतिका - चाहता हूँ

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स्वयं को आज पाना , चाहता हूँ
कई रश्में निभाना , चाहता हूँ

कहीं खोया हुआ है , मीत मेरा
उसे वापस बुलाना , चाहता हूँ

रुका था प्रेम भीतर , आँख मे ही
गिरा आँसूँ छुपाना , चाहता हूँ

दबी बातें तनिक सा , शोर आया
जिसे कबसे बताना , चाहता हूँ

पलक बोझिल अलक है , आज गुमसुम
तड़पकर गीत गाना , चाहता हूँ

श्लोगन - बीजेपी 2019

*श्लोगन*

एक ही नारा एक आवाज़
बीजेपी का फिर से राज
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गधे बैल सब एक हो गए
पाप सभी के नेक हो गए
शेर को फिर ललकारोगे
तो झुण्ड सुनो तुम हारोगे
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स्वच्छ देश की अलख जगाई
मोदी जी हो तुम्हे बधाई

देश की इज्जत खूब बढ़ाई
मोदी जी हो तुम्हे बधाई

भ्रष्टाचार की जड़ें मिटाई
मोदी जी हो तुम्हे बधाई

जनधन जीवन उन्नति छाई
मोदी जी हो तुम्हे बधाई
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सब दल मिलकर दलदल करते
कमल के फूल वहीँ पर खिलते
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है विजन यही और यही प्रयास
हो सबका साथ सबका विकास
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आचार शुद्ध और खरा विचार
फिर से हो मोदी सरकार
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जगह जगह बस एक प्रचार
फिर से हो मोदी सरकार
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देश की जनता करे पुकार
फिर से हो मोदी सरकार
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कमल खिलेगा फिर एक बार
फिर से हो मोदी सरकार

ग़ज़ल - 97 मिटाता रहा

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मै जिसे रोज लिख के मिटाता रहा
तू वही गीत क्यों गुनगुनाता रहा

शेर दर शेर पन्नों मे खोते गये
तू खड़ा दूर से मुस्कुराता रहा

मौत है बेरहम मुझपे आती नही
जिंदगी से ये रिश्ता निभाता रहा

प्यार तबतक सलामत रहा बीच मे
चाँद ये दाग जबतक छुपाता रहा

छोड़ दे आज दामन ग़ज़ल का तरुण
दिल लगा जिससे दिल वो लगाता रहा

कविराज तरुण