Sunday 29 May 2016

व्यथा

व्यथा - व्याकुल मन

कितनी पीड़ा सहता हूँ
तुम क्या जानो पीर है क्यों
अपनी साँसों से खुद लड़ना
इतना लगता गंभीर है क्यों

न कहूँ जो कुछ तो मन व्याकुल
जो कह दूँ तो जीवन व्याकुल
सिसक रही है किसी कोने में
मेरे आँसूं की कतरन व्याकुल

घुट घुट के जीना पड़ता है
दिल हो जाता अधीर है क्यों
तुम शायद जान नही पाओगी
इन आँखों में इतना नीर है क्यों

कविराज तरुण

Tuesday 24 May 2016

दान याचना

हे मालिक इतना दान दीजिये
इन पशुओं को इंसान कीजिये

सिंह ग़ुफ़ा में बंद पड़ा है
नरभक्षी बाहर घूम रहा है
डर है नही विषदंतो से
नरभुजंग गरल मुख चूम रहा है

इतना बस अहसान कीजिये
पशुओं को इंसान कीजिये

स्वानों का काटा बच जाता है
बाजों से कौन अब घबराता है
काट के खाने को आतुर नर
अब उपाय नजर नही आता है

भिक्षा बस यही भगवान् दीजिये
पशुओं को इंसान कीजिये

✍🏻 कविराज तरुण

भीख

किसी के लिए वो भीख है
किसी के लिए दान है ।
किसी के लिए जीविका
किसी का स्वाभिमान है ।

जब आत्मबल हार जाता है ।
या कोई रस्ता नजर नहीं आता है ।
खुद को कोई जब अतिसूक्ष्म समझ लेता है ।
तब परिस्तिथियों के आगे हाथ बिखेर देता है ।

पर किसी न किसी रूप में सब हैं भिखारी ।
जिसपे कुछ नहीं वो लोगो से दान माँगता है ।
जिसपे सबकुछ है विधाता से ध्यान माँगता है ।
कोई माँगता है आशीष तो कोई ज्ञान माँगता है ।
कोई मरने से पहले कर जोड़े प्रान माँगता है ।

विनती है मेरी छोड़ दो लाचारी ।
माँगने की अच्छी नही है बिमारी ।
खुद पर काबू करो हौसले से चलो ।
अपनी क्षमता का हक़ खुद ही हासिल करो ।

जिसको अपने आत्मबल पर मान है ।
वास्तव में वही इंसान है ।
उसके कदमो में जमीं आसमान है ।
उसको ही परमशक्ति से मिलता वरदान है ।

✍🏻 कविराज तरुण

कर्ता कर्महीन

कर्ता कर्म से विमूढ़ हो गया ।
सम्प्रदाय राजनीति का मूल हो गया ।
पैतृक धरोहर का अधिकार संविधान ,
लोकतंत्र का ढाँचा सारा उन्मूल हो गया ।
क्षेत्र धर्म जाति वर्ण में खंडित समाज आज,
राजनेताओं के चरणों में दबी धूल हो गया ।
लोग देने लगे माँ भारती को गाली
अमर्यादित भी खूब पाते हैं ताली
गरीब की आज भी सूनी है थाली
फूल जैसा वतन मुरझाया बिन माली
सुख का सपना मानो एक भूल हो गया ।
जिस जिसको सत्ता मिली वो नशे में चूर हो गया ।
कर्ता कर्म से विमूढ़ हो गया ।
सम्प्रदाय राजनीति का मूल हो गया ।

✍🏻 कविराज तरुण

Wednesday 18 May 2016

राष्ट्र स्वाभिमान

राष्ट्र स्वाभिमान

वृस्तृत गरल के प्रबन्ध हो गए ।
रणबांकुर धरा पर आज चंद हो गए ।
कैसे बजेगी विजय की धुनि ।
छूते ही तार खंड खंड हो गए ।

मंद पद गया माँ  भारती का गान ।
कटघरे में खड़ा हुआ है स्वाभिमान ।
दाग लगने लगे शत्रु जगने लगे ।
ध्वज गिरा के कपूत आज हँसने लगे ।

कल जो चौहान थे जयचंद हो गए ।
भ्रमित चेहरों के सर्वनेत्र बंद हो गए ।
दिल के छाले तरुण मात्र छंद हो गए ।
रणबांकुर धरा पर आज चंद हो गए ।

✍🏻 कविराज तरुण