Thursday 22 February 2018

यादों की तिजोरी

यादों की तिजोरी

यादों की तिजोरी को खोला तो पाया
तेरे लिखे हुए ख़त वैसे ही धरे हैं
जिसपर मेरे आंसुओं के मोती साबुत बचे हैं
तेरा दिया कोई फूल मुरझाया नहीं है
हाँ ये सच है एक अरसे से ये मुस्कुराया नहीं है
तेरी शोखी तेरा अंदाज़ बंद इस तिजोरी मे
संग जीने मरने का भी ख्वाब बंद इस तिजोरी मे
तेरे कदमों की आहट इसके दरवाज़े को पता है
इसके आईने मे तेरा चेहरा अब भी सजा है
तेरी हँसी से रंगा है मैंने इसकी दीवारों को
अपनी उदासी से भरा है इसकी दरारों को
तेरी महक आज भी सलामत है इसमे
तेरी कसमे तेरे वादे अमानत हैं इसमे
आरज़ू हसरतो की इसमे एक चाभी लगाईं है
इस ज़माने से कहीं दूर ये तिजोरी छुपाई है
यादों की तिजोरी को खोला तो पाया ...

--- कविराज तरुण

ग़ज़ल 89 आप आये तो आशिक़ी आई

ग़ज़ल 89- चली आई

2122 1212 22

आप आये तो आशिक़ी आई ।
चाँद से मिलने चाँदनी आई ।।

फूल खिलने लगे दिलों के भी ।
साथ बारिश भी दिलनशी आई ।।

राह से मुश्किलें फ़ना करके ।
मंजिलें खुद-ब-खुद चली आई ।।

खामखाँ जी रहे अँधेरे में ।
तुम जो आये तो रोशिनी आई ।।

तार उलझे हमारी नजरो के ।
तो जवां दिल में सरसरी आई ।।

उम्र कुछ इसतरह बढ़ी मेरी ।
मुद्दतों बाद जिंदगी आई ।।

हाँ *तरुण* इश्क़ ये मुबारक हो ।
छोड़ के आसमाँ परी आई ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

ग़ज़ल 88 - करो न करो

ग़ज़ल 88 - करो न करो

2122 1212 22

ऐ सनम प्यार तुम करो न करो ।
मुझपे एतबार तुम करो न करो ।।

सच तो इकदिन नज़र ही आयेगा ।
झूठे अशआर तुम करो न करो।।

धागा टूटे तो जुड़ नही पाये ।
गाँठ हरबार तुम करो न करो ।।

इश्क़ में रूह मोल रखती है ।
चाहे श्रृंगार तुम करो न करो ।।

ये मुहब्बत है आइना दिल का ।
मुझको बेज़ार तुम करो न करो ।।

जो *तरुण* होगा दिख भी जायेगा ।
वादे दो चार तुम करो न करो ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

विषय - कर्म और भाग्य

विषय - कर्म और भाग्य

कर्म कांड को जो नहि माने , जीवन उसका है धिक्कार ।
आलस निद्रा मोह बेकारी , सपनो का करता परिहार ।।

जिजीविषा जो मन में नाही , जीना उसका घोर उधार ।
भाग्य वही हाथन में सोहे , श्रम का जो करता श्रृंगार ।।

अभ्यासों का मोल अनोखा , कर लो भाई तनिक विचार ।
कर कर के ही सफल सितारा , आसमान करता है पार ।।

छोड़ो थकन भरी बीमारी , कर्म करो उज्ज्वल साकार ।
जीत तुम्हारी सहभागी है , साथी सारा ये संसार ।।

बढ़े चलो तुम लक्ष्य बनाकर , पथ को अपने दो विस्तार ।
यही सत्य जीवन का वीरे , कर्म बिना सब है बेकार ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Sunday 18 February 2018

ग़ज़ल 86 कहानी कहानी है बिखरी हुई

212 212 212 212 212 212 212 212

ख़्वाब आये सनम और हवा हो गये , बस कहानी कहानी है बिखरी हुई ।
हाथ उनका सम्हाला किसी और ने , ये जवानी जवानी है बिखरी हुई ।।

साथ दे दो मेरा यूँ न जाओ सनम , साहिलों की रवानी है बिखरी हुई ।
फूल रुसवा हुये बाग़ भी जल गये , अब मेरी बागबानी है बिखरी हुई ।।

बारिशों में करीं बात गुम हो गई , पत्थरों पे मुलाकात गुम हो गई ।
जो खुरच के बनाये थे हमने निशां , वो निशानी निशानी है बिखरी हुई ।।

तुम तो कहते थे होगे जुदा अब नही , पास मे ही रहोगे उमर भर यहीं ।
छोड़ कर चल दिये बीच ही राह मे , सारी बातें पुरानी है बिखरी हुई ।।

चाँद पर था बिठाया तुझे प्यार मे , और कुछ भी नही मेरे संसार मे ।
आज ओझल सितारा तरुण हो गया , चांदिनी ये दिवानी है बिखरी हुई ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Wednesday 7 February 2018

ग़ज़ल 87 मुमताज

221 2122 221 2122

वो बनके मेरी रानी मुमताज हो न जाये ।
ढपली बना कहीं वो फिर साज हो न जाये ।।

बेमेल की मुहब्बत माना तेरी हमारी ।
जो मै करूँ शिकायत नाराज हो न जाये ।।

परिवार ने बिछाया सिर पर मेरे बिछौना ।
मै दब रहा हूँ इसमें अब खाज हो न जाये ।।

किस्मत में ये लिखा था आयेगा वक़्त खोटा ।
बस डर यही है साहब ये आज हो न जाये ।।

मुँह बाँध कर ही आना घर में तरुण हमारे ।
ऐसा न हो तमाचे आगाज हो न जाये ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

मिलन का अवसर कैसे होगा

प्रसिद्द हास्य कविता ' मुश्किल है अपना मेल प्रिये , ये प्यार नही है खेल प्रिये ' की तर्ज पर लिखी मेरी ये हास्य रचना-
   मिलन का अवसर कैसे होगा
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मै पतझड़ का सूखा पत्ता
सावन का तुम पुष्प गुलाबी ।
सिगरेट की मै धुंध कालिमा
आँखों का मेरे हाल शराबी ।।
चंचल चितवन यौवन तेरा
तुझमे कोई नही खराबी ।
किस्मत से मै बेघर बेचारा
तुम खुलजा सिमसिम वाली चाबी ।।

*अब मिलन का अवसर कैसे होगा*
*नही बनेंगे अब ठाट नवाबी ।।*

तुम विटामिन बी की गोली
मै बीज करेले वाला हूँ ।
तुम शोरूम ऑडी वाला हो
मै पानठेला मतवाला हूँ ।।
मै कुरूप घनघोर धूप
काजल से भी गहरा काला हूँ ।
तुम मदनमोहिनी नवल कामिनी
मै मकड़ी का जाला हूँ ।।

*अब मिलन का अवसर कैसे होगा*
*मै काटों की वरमाला हूँ ।।*

मै बूढ़ा सा सांड सरफिरा
तेरी हिरनी जैसी काया है ।
मै देशी ठर्रा पन्नी वाला
तू काजू कतली की माया है ।।
मै गर्मी से बेहाल पसीना
तू साँझ सुहानी छाया है ।
श्रृंगार बिना ही तू जँचती
मेरी हर कोशिश ही जाया है ।।
*अब मिलन का अवसर कैसे होगा*
*क्या अम्बर धरती पर आया है ।।*

मै ट्रेन की सीटी जैसा कर्कश
अरिजीत का गाना तुम हो ।
पहचान कुपोषण वाली मेरी
काजू किसमिस का दाना तुम हो ।।
मै पेट बाँध के सोने वाला
और होटल का खाना तुम हो ।
कभी कभी मै हँसने वाला
जो हँस दे वो रोजाना तुम हो ।।

*अब मिलन का अवसर कैसे होगा*
*मै मुजरिम और थाना तुम हो ।।*

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

Tuesday 6 February 2018

ग़ज़ल 84 गये हैं

221 2122 221 2122

कुछ इसतरह वो आकर दिल में उतर गये हैं ।
हालात प्यार वाले लगता सुधर गये हैं ।।

फिर रात की सियाही खुद गुमशुदा हुई है ।
गम के गुबार देखो जाने किधर गये हैं ।।

मै जी गया हूँ फिर से हँसने लगी फिजायें ।
दरबार-ए-जिंदगी में जबसे ठहर गये हैं ।।

तुम तिशनगी से कहना अब प्यास भी नही है ।
लहरों की मौज में हम भीतर गुजर गये हैं ।।

आगाज़ खुशनुमा है अंदाज़ भी तरुण है ।
इस जिस्म जान में वो आके सँवर गये हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Monday 5 February 2018

ग़ज़ल 85- क्या गुजरी 2

ऑनलाइन मुशायरे हेतु दूसरी प्रस्तुति

1222 1222 1222 1222

गये तुम छोड़ के तन्हा तो पैमानों पे क्या गुजरी ।
कभी सोचा नही तुमने कि मैखानों पे क्या गुजरी ।।

बदन मेरा तड़पता ही रहा बेशक मुहब्बत में ।
निगाहों की खलिश कहती निगहबानों पे क्या गुजरी ।।

मै गिरता और उठता हूँ मगर मै चल नही सकता ।
कदम खुद रोक दें रस्ता तो अरमानों पे क्या गुजरी ।।

चमकती धूप सा रौशन तिरा मेरा फ़साना था ।
घिरे शक के घने बादल तो अफसानों पे क्या गुजरी ।।

तरुण से पूछ लेना तुम अगर खुद को समझना हो ।
जब इंसानो के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

Saturday 3 February 2018

ग़ज़ल 83 क्या गुजरी

1222 x 4

बड़ी देखी तिरी दौलत निगहबानों पे क्या गुजरी ।
कुचलते ही रहे हरदम ये अरमानों पे क्या गुजरी ।।

बहुत इज्जत कमाते थे निगाहों ही निगाहों मे ।
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।

कि ग़म को पेश करता था ख़ुदा तेरे हवाले मे ।
मगर ये ग़म मिला तुझसे शहर-थानों पे क्या गुजरी ।।

बिसाते जिंदगी के दाँव तू चलता रहा छिपकर ।
नही मालूम हो शायद कदरदानो पे क्या गुजरी ।।

मै घर की दाल चीनी में रहा उलझा रहा पिसता ।
मेरी किस्मत लकीरों के कतलखानों पे क्या गुजरी ।।

यही कारण नही करता महर कोई ज़माने में ।
जो देखा हाल फुरसत में महरबानों पे क्या गुजरी ।।

हुआ कुछ भी नही उनको जिसे दावत नही तेरी ।
'तरुण' अफ़सोस बस इतना कि महमानों पे क्या गुजरी ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'