Sunday 18 January 2015

मै दरिया हूँ

पेश है वियोग रस मे लिखी मेरी अंतिम काव्य रचना ::
समंदर से मिलाने का , मै बस एक ज़रिया हूँ ।
रहो तुम मौज मे नदिया , मै बस एक दरिया हूँ ।
लहर मे डूब जाता हूँ ...
तपन मे सूख जाता हूँ ।
नही वजूद है कोई ...
तुमसे खुद को बनाता हूँ ।
तू अविरल छलकती जाये , तो फिर मै भी बढ़िया हूँ ।
रहो तुम मौज मे नदिया , मै बस एक दरिया हूँ ।
समंदर से मिलाने का , मै बस एक ज़रिया हूँ ।।

चली जब भी ये पुरवाई , तुम्हारी याद ले आई ।
मोहब्बत की ये तन्हाई , पुराना ख्वाब ले आई ।
ज़माना वो भी था अपना ...
सितारों से भरा सपना ।
गए तुम छोड़कर सबकुछ ...
नही अब कोई भी अपना ।
ख़ामोशी की चादर मे , मै सिमटी तंग गलिया हूँ ।
रहो तुम मौज मे नदिया , मै बस एक दरिया हूँ ।
समंदर से मिलाने का , मै बस एक ज़रिया हूँ ।।

ख़त्म होती कहानी का , आखिरी ज़ख्म है गहरा ।
नज़र दीदार को तरसे , ज़माने भर का है पहरा ।
कभी दिल तोड़कर रोया ...
कभी मुँह मोड़कर सोया ।
दर्द हिस्से मिला मुझको ...
जो मैंने प्यार को बोया ।
यही एक बात चुभती है , तू बोले कि मै छलिया हूँ ।
रहो तुम मौज मे नदिया , मै बस एक दरिया हूँ ।
समंदर से मिलाने का , मै बस एक ज़रिया हूँ ।।

सिफारिश थी मोहब्बत की , गुजारिश थी इबादत की ।
जुबां पर नाम ना आया , ये मेरी शराफत थी ।
मेरे ये ज़ख्म गहरे हैं ...
घने काले अँधेरे हैं ।
तमाम राहत तुम्हारी है ...
और ये अश्क मेरे हैं ।
किसी माली से रूठे पेड़ की , शायद मै कलिया हूँ ।
रहो तुम मौज मे नदिया , मै बस एक दरिया हूँ ।
समंदर से मिलाने का , मै बस एक ज़रिया हूँ ।।

कविराज तरुण

Monday 12 January 2015

मिलन का अवसर कैसे होगा

मै पतझड़ का सूखा पत्ता
सावन की तुम पुष्प गुलाबी ।
मै सिगरेट की धुंध कालिमा
आँखों का मायाजाल शराबी ।
तुम स्वच्छ सुन्दरी काया हो
तुझमे तनिक भी नही खराबी ।
मै किस्मत का मारा यौवन
तुम खुल जा सिमसिम वाली चाबी ।
फिर मिलन का अवसर कैसे होगा
नही बनेंगे अब ठाट नवाबी ।।

तुम विटामिन बी की गोली
मै बीज करेले वाला हूँ ।
तुम सहारा गंज का शोरूम
मै अमीनाबाद का गड़बड़झाला हूँ ।
मै कुरूप घनघोर धूप
काजल से भी गहरा काला हूँ ।
तुम साँझ सुहानी छाया हो
मै मकड़ी का बस जाला हूँ ।
फिर मिलन का अवसर कैसे होगा
मै बस काटों की वरमाला हूँ ।।

मै लंगड़ा बूढ़ा सांड सरफिरा
हिरनी सी तेरी चाल अनोखी ।
मै देशी ठर्रा पन्नी वाला
तू काजू वाला माल अनोखी।
मै ट्रेन की सीटी जैसा कर्कश
तुम जाकिर हुसैन की ताल अनोखी ।
मै आम की गुठली सा कठोर
तेरे मक्खन से कोमल गाल अनोखी ।
फिर मिलन का अवसर कैसे होगा
यूँही बुरे रहेंगे हाल अनोखी ।

कविराज तरुण

मै और मेरा जन धन

कई दिनो से एक कविता लिखने को कह रहा था ,
मेरा एक सहकर्मी चन्दन ।
चलो फिर सुनाता हूँ आप सबको ,
मै और मेरा जन धन ।।
पहले नही लगती थी , यूं खातों की कतारें ।
अब भीड़ उमड़ती है ऐसे , जैसे नभ मे सितारे ।
बस अंतर है इतना ...
सितारे रात मे आते हैं और खातो की कतारे दिन मे आती है ।
सितारों को देखकर नींद आती है और खातो से नींद गुम हो जाती है ।
मेरा सुख छीना चैन छीना इन्ही खातो ने ।
दिमाग की नसों को किया ढीला इनकी बातो ने ।
बारिश क्या सर्दी क्या झुलस गया सावन ।
सबक मिला जिंदगी का ,
मै और मेरा जन धन ।।
ऊपर से नौकरशाहो का दबाव कि सर्वे करा लो ।
किस किस का नही है खाता एक सूची बना लो ।
और ये भी रखो ध्यान दो बार खुले नही खाता ।
लगाते रहो नारा जन धन भाग्य विधाता ।
इन्शुरन्स करो इनको ओडी भी दो ।
दे दो सरकार इन्हें मोदी भी दो ।
थकान से चूर त्रस्त मेरा जीवन ।
दिन रात परेशान करे ,
मै और मेरा जन धन ।।
नीतियाँ सरकार की चले बैंक के रास्ते ।
पर देने को नही है फूटी कौड़ी अपने वास्ते ।
आधार लिंक करो गैस लिंक करो ।
आया कहा से इतना कैश लिंक करो ।
पर नही करो वेतन बढ़ाने की मांग ।
सरकार खीच लेगी वर्ना अपनी टांग ।
प्राइमरी टीचर रहीश है और गरीब बैंक स्केल वन ।
बहुत पछताता हूँ ,
मै और मेरा जन धन ।।

कविराज तरुण