न्यायोचित है दम्भ अगर तो
मै कौशल दिखलाता हूँ ।
तोड़ भुजाओं का साहस
तुमको परलोक सिधाता हूँ ।।
पर विवेक मेरा कहता है
क्यों असुरों से संग्राम करूँ ।
कर दूं अलग थलग दुनियाँ से
बस इतना ही काम करूँ ।।
तुम आग जलाये बैठे दिल में
मुझे सौहार्द का दीप जलाने दो ।
मत छेड़ो कालदर्प को मेरे
मुझे विकास का रथ चलाने दो ।।
इस अश्वमेध के यज्ञ में मेरे
व्यवधान कोई मत कर देना ।
गलती से भी मित्र पड़ोसी
मेरे विवेक को मत हर लेना ।।
वर्ना रण का बिगुल बजा
बलिवेदी पर शीश उतारूंगा ।
घर के भीतर घुसकर तेरे
चुन चुनकर दानव मारूँगा ।।
*कविराज तरुण*
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