पकड़ के हाथ बोला था जुदा हमको नही होना
चले थे सात फेरों में कई सपने सुहागन के
मिला था राम जैसा वर खुले थे भाग्य जीवन के
ख़ुशी के थार पर्वत सा हुआ तन और मन मेरा
मुझे भाया बहुत सच में तुम्हारे प्यार का घेरा
कलाई पर सजा कंगन गले का हार घूँघट भी
समझता अनकही बातें समझता मौन आहट भी
मगर जब सामने आया मेरे आतंक जिहादी
हुई फिर खून से लथपथ हमारा प्यार ये शादी
हुआ सिंदूर कोसो दूर मेरा छिन गया सावन
सुनाई दे रही चींखें बड़ा सहमा पड़ा आँगन
बुला पाओ बुला दो जो गया है छोड़ राहों में
सभी यादें सिसक कर रो रही हैं आज बाहों में
मगर चुपचाप ऐसा पाप हम अब सह नही सकते
ख़तम इनको किए बिन और जिंदा रह नही सकते
कविराज तरुण
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