Tuesday 19 March 2013

धर्म की राजनीति

*** दोस्तों इस कविता का उद्देश्य किसी की धार्मिक भावनाओ को आहत करना कदापि नहीं है |
धार्मिक अवसादो के पुलिंदे नज़र आते हैं ...
जब कभी हम किसी नेता के घर जाते हैं |
न विकास की बातें न देश की चिंता ...
धर्म की राजनीति में आखिर ये उतर आते हैं ||

एक आईना तराशा, कि नेक सूरत दिखेगी  ...
हर जगह प्रेम की बस मूरत दिखेगी  ...
गले मिलते हिन्दू ओ मुसलमान दिखेंगे ...
ज़न्नत के फूल इस सरजमीं पर खिलेंगे ...
रंग होली के उर्दू जुबानी मिलेंगे ...
ईद की सेवई से हिंदी के थाल सजेंगे ...
पर इन हुक्म-मरानो को ये मंजूर कहाँ है ?
गन्दी राजनीति में प्रेम का दस्तूर कहाँ है ?
ये तो अपनी बात से ही अक्सर मुकर जाते हैं...
हमको तोड़ते हैं मरोड़ते हैं और साबुत निगल जाते हैं |

धार्मिक अवसादो के पुलिंदे नज़र आते हैं ...
जब कभी हम किसी नेता के घर जाते हैं |
न विकास की बातें न देश की चिंता ...
धर्म की राजनीति में आखिर ये उतर आते हैं ||

  --- कविराज तरुण

2 comments:

  1. बहुत ही सार्थक कविता है,भाईचारे को प्रस्तुत करती बेहतरीन रचना.

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