Thursday 30 May 2013

ज़िन्दगी एक ग़ज़ल



ज़िन्दगी ग़ज़ल बन गयी पैमाने की ,
रोज बनती है जो तवायफ मैखाने की |
मिले न कद्र-दान होशवाले जिसे कभी ,
कहूं क्या फिदरत इस ज़माने की |
कि मैंने घर को छोड़ दिया जिसकी खातिर ,
हुई नाकाम सब कोशिशें उससे घर बसाने की |
वो तो पलती रही महलों में कलियों की तरह ,
ज़िन्दगी बसर हुई काँटों में दीवाने की |
आरज़ू हसरतों की बात ना करो तो अच्छा है ,
साकी को तलब लगती नहीं आजमाने की |
बस यही गम है हम साकी ना बन सके ,
वर्ना ज़िन्दगी वजह बन गयी होती मुस्कुराने की |
ज़िन्दगी ग़ज़ल बन गयी पैमाने की ,
रोज बनती है जो तवायफ मैखाने की |
--- कविराज तरुण

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