Monday 12 January 2015

मै और मेरा जन धन

कई दिनो से एक कविता लिखने को कह रहा था ,
मेरा एक सहकर्मी चन्दन ।
चलो फिर सुनाता हूँ आप सबको ,
मै और मेरा जन धन ।।
पहले नही लगती थी , यूं खातों की कतारें ।
अब भीड़ उमड़ती है ऐसे , जैसे नभ मे सितारे ।
बस अंतर है इतना ...
सितारे रात मे आते हैं और खातो की कतारे दिन मे आती है ।
सितारों को देखकर नींद आती है और खातो से नींद गुम हो जाती है ।
मेरा सुख छीना चैन छीना इन्ही खातो ने ।
दिमाग की नसों को किया ढीला इनकी बातो ने ।
बारिश क्या सर्दी क्या झुलस गया सावन ।
सबक मिला जिंदगी का ,
मै और मेरा जन धन ।।
ऊपर से नौकरशाहो का दबाव कि सर्वे करा लो ।
किस किस का नही है खाता एक सूची बना लो ।
और ये भी रखो ध्यान दो बार खुले नही खाता ।
लगाते रहो नारा जन धन भाग्य विधाता ।
इन्शुरन्स करो इनको ओडी भी दो ।
दे दो सरकार इन्हें मोदी भी दो ।
थकान से चूर त्रस्त मेरा जीवन ।
दिन रात परेशान करे ,
मै और मेरा जन धन ।।
नीतियाँ सरकार की चले बैंक के रास्ते ।
पर देने को नही है फूटी कौड़ी अपने वास्ते ।
आधार लिंक करो गैस लिंक करो ।
आया कहा से इतना कैश लिंक करो ।
पर नही करो वेतन बढ़ाने की मांग ।
सरकार खीच लेगी वर्ना अपनी टांग ।
प्राइमरी टीचर रहीश है और गरीब बैंक स्केल वन ।
बहुत पछताता हूँ ,
मै और मेरा जन धन ।।

कविराज तरुण

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