ग़ज़ल - कुछ भी नही
2122 2122 2122 212
छोड़कर तेरी गली अब आसरा कुछ भी नही
मौत से इस जिंदगी का फासला कुछ भी नही
खामखाँ ही आँख में सपने सजाये बारहा
ये कहाँ मालूम था होगा भला कुछ भी नही
वो बड़ा खुदगर्ज था जो दिल हुआ ये गमजदा
धड़कनें अपनी बनाकर दे गया कुछ भी नही
हम कसीदे प्यार के पढ़ते रहे ये उम्रभर
वो शिकायत ये करें हमने किया कुछ भी नही
डूबना था हाय किस्मत रोकता मै क्या भला
कागजी सी नाँव पर था काफिला कुछ भी नही
चाँद तारे आसमाँ क्या क्या नही छूटा तरुण
एक तेरे छूटने से है बचा कुछ भी नही
कविराज तरुण
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