इश्क़ ये दूसरा नही होता
दूर वो है जुदा नही होता
जाने क्या कुछ रही खता मेरी
यार अब वो ख़फ़ा नही होता
शाम मिलती है बनके गैरों सी
और अब कुछ बुरा नही होता
रोज चादर में छुपके रोता हूँ
दर्द लेकिन फ़ना नही होता
एक मुद्दत लगी मनाने में
प्यार का ये सिला नही होता
रूठना फिर से तो नही आना
सोचता हूँ मना नही होता
क्यों तरुण यूँ उदास रहता हूँ
शख्स आखिर खुदा नही होता
कविराज तरुण
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