Saturday 10 September 2022

कविता - दो पैसे लाने का चक्कर

कविता - दो पैसे लाने का चक्कर

अपनी मर्जी से कब कोई, दूर शहर को जाता है
दो पैसे लाने का चक्कर , चक्कर खूब लगाता है
जब पिज्जा खाने की हसरत, मजबूरी बन जाती है
तब मां के हाथों की रोटी, उसको बड़ा सताती है
सोच सोचकर घर का खाना, भूखे ही सो जाता है
दो पैसे लाने का चक्कर, चक्कर खूब लगाता है

सपनों का मोहक आकर्षण, बातें चांद सितारों की
बेमानी हो जाती है जब, टोली अपने यारों की
सुध बुध खोने वाली चाहत, नेहप्रिया की बाहों में
धीरे धीरे थक जाती है, शामें ढलकर राहों में
तब उसको मखमल का बिस्तर, नींद कहां दे पाता है
दो पैसे लाने का चक्कर, चक्कर खूब लगाता है

रिश्तों की गर्माहट से जब, गंध जलन की आती है
सहकर्मी की मेल भावना, प्रायोजित रह जाती है
जब मीठी बातों का बादल, सच्चाई से टकराये
टूटा मन तब बारिश बनकर, इन आंखों में भर जाये 
झूठ कपट का मारा सावन, रोता ही रह जाता है
दो पैसे लाने का चक्कर, चक्कर खूब लगाता है

जब बूढ़ी मां, आ जाओ तुम, कह कह के थक जाती है
दीवारों की पपड़ी झड़कर, उम्र उसे बतलाती है
जब वो बूढ़ा बाप डपटकर, चुप होने को कहता है
बेटे की ना फिक्र करो तुम, वो लंदन में रहता है
फिर अपने कमरे में जाकर, वो आंसू पी जाता है
दो पैसे लाने का चक्कर, चक्कर खूब लगाता है

ढ़ेरों रुपया होने पर भी, खर्च नही कर पाते हैं
छुट्टी के दिन घर में बैठे, बैठे ही रह जाते हैं
मां से क्या ही बात करें वो, भावुक इतना होती है
'अच्छा' सुनकर रोती है वो, 'गड़बड़' सुनकर रोती है
जाने इतना प्यार कहां से, इस बेटे पर आता है
दो पैसे लाने का चक्कर, चक्कर खूब लगाता है

कविराज तरुण
7007789629

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