Friday, 13 December 2013

गई उम्मीद तुमको पाने की

गई उम्मीद तुमको पाने की

गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  मौत से बढ़कर तेरे जाने का पैगाम लगा
  जिंदगी हर घड़ी लगती है बस एक सज़ा
  ये रूह हँसती है और दर्द झलकने लगता है
  भीगी आँखों से ये अश्क छलकने लगता है
क्या वजह थी मुझे यूँ रुलाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  यकीन न था कभी ये दिन भी आयेगा
  बन के आंसू मेरी पलकों को तू भिगायेगा
  गुजरे लम्हे तेरी डोली संग गुजर ही गये
  यूँ तो जिंदा हैं पर जीते जी हम मर ही गये
कोशिशें करता हूँ अक्सर तुम्हे भुलाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...
  था अदब मुझको तेरी वफ़ा पर इतनी हद तक
  बैठा के रखा था तुझे खुदा के पद तक
  पर तूने तोड़ा ये दिल और मेरा भरोसा भी
  खुद को कई बार तभी मैंने कोसा भी
थी गलती तुझसे दिल लगाने की ...
गई उम्मीद तुमको पाने की ...
करूं क्यों चाहत तुम्हे बुलाने की ...


--- कविराज तरुण


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