Wednesday 16 April 2014

असहाय बेबस

उसको मिलती नही छत कहीं
सिर छुपाने के लिए ।
और हम आज़ाद हैं उसपर
मुस्कुराने के लिए ।
दो रोज़ रोटी की भी मिन्नत
बिन हाथ के बिन पैर के ...
बासी खाना डालते हम
बड़े गर्व से ...
खाने के लिए ।
अर्द्धनग्न अपने वस्त्र मे
खुद को ढके या शर्म को ...
दो चार सिक्को में कहाँ
मिलती है चादर ...
तन छुपाने के लिए ।
मंदिरों में दूध की गंगा बहाने चल पड़े ।
आज भी मज़ार में चद्दर चढ़ाने चल पड़े ।
रास्ते में दिख रहें हैं इसके जरुरी हक़दार कुछ...
पर पैसो से भगवान् को हम रिझाने चल पड़े ।
असहाय बेबस को मिला कब बोलने का हक कभी ...
बस इसलिए ही आज हम उलटी गंगा बहाने चल पड़े ।
एक उम्र लग जाती है हमको
घर बनाने के लिए ।
जवानी घिस जाती है अक्सर
पैसे जुटाने के लिए ।
दिख जाये फिरभी असहाय कोई
तो कुछ मुस्कुरा के बोल दो...
हो सके तो दो चार सिक्के ही
उसे अनमोल दो ...
मिलते हैं अवसर कहाँ अब
पूण्य कमाने के लिए ।
उसको मिलती नही छत कहीं
सिर छुपाने के लिए ।
और हम आज़ाद हैं उसपर
मुस्कुराने के लिए ।

--- कविराज तरुण

3 comments:

  1. सुंदर भावमय अभिवयक्ति .

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  2. कविता का भावपूर्ण अरुण निकला,
    कविराज तरुण की लेखनी से .... बहुत बढ़िया!

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  3. पंकज ही और राकेश जी ...

    सराहना के लिए ह्रदय से आभार ।

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