Friday 8 April 2016

रूपवर्णन

जब भी देखता हूँ तेरे आँखों की गहराई में
वो बहका समंदर जिसमे डूबने को जी चाहता है
क्या रखा है आखिर इस दुनिया पराई में ।
इन पलकों की मासूमियत सी अदा
अधरों पर अर्क गुलाबी सा नशा
जो बुदबुदाते हैं तो झरती स्वरांजलि
जैसे बागों में नवपुष्प की कलियाँ खिली
भीगे केशों का बिखर के चेहरे पर आना
सुर्ख गालो का जैसे स्वतः भींग जाना
और होंटों से टपकते पानी की आहट
पी जाए कोई तो मिल जाए जन्नत
भीगी गर्दन से जवाँ हुस्न की नमी दिख गई है
भाँप बनकर हवाओं में ताजगी बिक गई है
केशो की बूँदों से तेरे सीने पर सावन
संग तुम्हारे इन नजारों की दास्ताँ लिख गई है
तेरे यौवन से मादक महक आ रही है
जिसको मिल जाए उसको खबर क्या सही है
चुन चुन के उभारा है हर बदन का कोना
इससे बेहतर कोई जग में मूरत नहीं है
जिस्म जैसे तराशी हुई एक गागर
रस इतना कि कम पड़ जाए सागर
उसमे अदाओं की ऐसी मिलावट
गीले लबो पर जैसे कोई मुस्कराहट
सर से पाँव तक तू एक अप्सरा है
खबर क्या तुझे कि तू चीज क्या है
शायर की ग़ज़लें सारंगी की सरगम
चातक का मोती नदियों का संगम
तू दिलकश हसीं तू है नाजिमी
दिल का बहकना तो हो गया लाजिमी
पर हक़ीक़त में तू जिस्म का है खज़ाना
तेरे हुस्न का रब भी होगा दीवाना ।

कविराज तरुण

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