Wednesday, 1 November 2017

ग़ज़ल 58 बेतुकी मुहब्बत

212 1222 212 1222

बेतुकी मुहब्बत का आज ये जमाना है ।
खामखाँ हसीनो से क्यों नज़र मिलाना है ।।

टूटकर बिखरते हैं ख़्वाब आशियानें के ।
दिल लुटाके' गैरों पे घर कहाँ बनाना है ।।

आशिक़ी फरेबी है जान पर भी' आ जाये ।
अश्क़ से भरा रहता इसमे' आबदाना है ।।

राह मुश्किलों की है हरतरफ सवाली हैं ।
घूरती निगाहों का रोज ही फ़साना है ।।

जो तरुण मुनासिब हो इश्क़ में नही होता ।
डूबकर के' दरिया मे पार तुझको' जाना है ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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